Sunday 19 April 2015

मेरी बेचैनी

(A piece written a year ago at write club, from where I got my Theatre thing started in Bangalore, Have a look)Death bed monologue for scene.
ज़िंदगी को परत दर परत उधेड़ता, बेचैन, आज इसकी आख़िर परत तक आ पहुँचा हूँ. पर वो शोर आज भी थमा नहीं है.शरीर ने कब का साथ देना छोड़ दिया था पर दिमाग़ की बेचैनी और तलाश रुकने का नाम नहीं लेती | कहीं का कहीं वो शोर सन्नाटा बन कर मेरे ज़हन में चीखें मारता है. ये दो चट्टानों के बीच से गुज़रती हुई, चिंघाड़े मारती हुई, हवा का शोर शायद ये मेरी मौत के साथ ही दफ़न हो |...या फिर शायद कभी नहीं |मैं आज अपनी मरन्शैया पर लेटा अपनी ज़िंदगी को फिल्म की तरह रीवैइंड कर कर देख रहा हूँ की वो कौन सा पल था जब ये बेचैनी शुरू हुई थी. उसका भी कोई निशान नहीं मिलता |ज़िंदगी की कड़ियों  को जोड़ते जोड़ते मैं खुद ही उलझ गया, और मैं भी उन्हे सुलझाने के लिए अलग अलग तरीके तलासता रहा, सरकारी नौकरी मे होने के बावजूद , पैंटिंग किया, सोशियल वर्क किया, दुनिया भी घूमा पर बेचैनी जस की तस | हर बार नई खोज एक नशे की तरह काम करती और नशा उतरते ही मैं फिर से बेचैन |हर बार ज़िंदगी को समझने के लिए ज़िंदगी की एक परत उधेड़ता तो फिर नई परत दिखाई पड़ती, पर कुछ वक़्त बाद उसका भी रंग वही, पहले जैसा |ऐसा भी नहीं है की इस परत दर परत ज़िंदगी को समझने मे मैं अकेला था ,सब तो था मेरे पास, पर फिर ये बेचैनी क्यों?इसका जवाब तो इस जन्म मे नहीं मिला, और शायद इस सवाल को करने का ये सही वक़्त भी नहीं है. क्या नहीं था मेरे पास मेरी बीवी थी, बच्चे थे, दोस्त थे, पैसा था. सब कुछ था पर एक बेचैनी के साथ |पर यह शोर शायद थोड़ा कम ज़रूर है, शायद तूफान से पहले का सन्नाटा.क्या पता फिर से कोई नई परत खुलने वाली है |बेचैन रहने की ऐसी आदत पड़ी है तो लगता है मर कर भी चैन नहीं आएगा |मेरी  बेचैनी शायद मेरी कब्र के उपर लगे उसे पेंड के फल में फलेगी,शायद मेरी कब्र के मिट्टी की खुश्बू ले जाती उस हवा में बहेगी , या फिर शायद उस मिट्टी में जो बरसात का पानी एक जगह से दूसरी जगह बहा कर ले जाएगा उसके साथ भटकेगी| कभी वो ही बारिश का पानी नदी से मिल आएगा तो कभी वही नदी समंदर से |मेरी बेचैनी और भी व्यापक होगी, बेचैन तो मैं रहूँगा |
© Neeraj Pandey