ये ब्लॉग घर ही तो है,
जिसमें गूंजती हैं किलकारियाँ
कविताओं की,
और पाँव पसार कर बैठे
होते है कुछ पद्द।
…अपने अपने कमरों में ।
कभी कोई गुज़रता हुआ पास से
छोड़ जाता है
कोई कमेंट,
जैसे किसी की चिट्ठी आई हो ।
तो कभी कोई पडोसी आकर टोकता भी है
कि, कविताएँ बिगड़ने लगी हैं अब,
ज़रा ध्यान दो इनपर, माँझो इनको ।
मैं उन्हें सामने रख घंटों बैठता हूँ, पूछता हूँ
उनकी परेशानी
अपने बच्चे की तरह
और कभी
बस मेरे ठीक होने से
उनके चेहरे भी चमक उठते हैं ।
कई बार तारीफ सुनकर
सीना फूलता तो है ही
पर खुद के बच्चों पर मुग्ध होना भी
उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं ।
मेरे रिश्तों के आधार भी मैंने
इसी की बालकनी में शुरू होते देखे हैं,
वो लोग
जो आज अजीज़ हैं
वो कविता की ऊँगली पकडे
ही तो आये थे मेरी तरफ
… अच्छे लोग हैं ।
उम्मीद है एक उम्र ढलने पर
ये मुझे रास्ता दिखाएंगी
और चाहत ये कि
मैं जाना जाऊं
इन्हीं के नाम से…
मैं विरासत में घर नहीं एक ब्लॉग छोड़ना चाहता हूँ ।