Friday 7 April 2017

बिखरे पन्नों से भाग-३

बड़े दिनों से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा. वजह यह नहीं थी कि लिखने को कुछ था नहीं, बल्कि  मैं इतना कुछ जिए जा रहा था कि ढंग से बैठ कर उन सारे अनुभवों को लिख पाना मुमकिन नहीं हो पाया.
पिछले कुछ महीनों से जीवन उलझा हुआ था. अब वहां से निकल इसने अपनी रफ़्तार फिर से पकड़ी है. जीवन के उलझे वक़्त ने हमेशा एक गहरे एहसास को किसी अखबार की तरह खोल कर मेरे सामने रख दिया है. इस बार यह एहसास है भीड़ से डर का. भीड़ डरा देती है मुझे. क्योंकि भीड़ सारी एक जैसी होती है चाहे वो गली चौराहे की हो, किसी एक कमरे की हो या फिर सोशल मीडिया की हो. मेरे लिए भीड़ अब बस भीड़ है. भीड़ मेरे कान में अपना मुंह डाले खड़ी है.

मेरे कई दोस्तों ने जीवन के अलग अलग पड़ावों पर मुझे मेरी वैचारिकता की पहचान बताई है, जिसके बारे में मुझे खुद नहीं पता था. 'नीरज देखो तुम ऐसा सोचते हो तो इसका मतलब है तुम ये होऔर मैंने भी अक्सर हाँ में सर हिला दिया. मेरे पास उस वक़्त उनकी बात ना मानने की कोई वजह नहीं थी और उसे अपनी पहचान का हिस्सा मान हमेशा ही संजोने की कोशिश की. मैं जब भी किसी समूह का हिस्सा बना हूँ बड़े प्यार से उसने मुझे अपनाया है. पर वक़्त के कुछ गुजरने के बाद मुझे एहसास होता है कि यहाँ जिस वैचारिकता का वादा था वो तो ये है ही नहीं. शायद मैं वो नहीं हूँ जो मेरे सामने घटता हुआ मुझे दीखता है. धीरे धीरे, परत दर परत जब वही बातें बार बार होने लगती हैं , घिस कर वो मुझे वो शोर लगती हैं. अपने मायने खो बस किसी रिकॉर्ड की तरह बजती हुई.

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि उन बातों का कोई मतलब नहीं है या वो व्यर्थ हैं, यह बस इतना है कि वो मेरी बात नहीं है. मैं या तो उसे पूरी तरह से समझ नहीं पाता या कुछ और है जो मैं समझता हूँ. यह समूहों का तालाब जिसे मैं गहरा मान कर उतरता हूँ वो बस मेरे पाँव ही भिगा पाता है. मेरे शरीर का एक बड़ा हिस्सा अभी भी वैसा ही सूखा है. "मैं यह तो नहीं" का एक मुरझाया सा विचार मुझतक आता है और असहज कर जाता है. मैं सहज होने की कोशिश करता हुआ और असहज होता जाता हूँ. मैं ऐसी जगह बहूत देर तक नहीं रह पाता. मुझे डर लगता है कि मैं बस अगले ही क्षण कुछ ऐसा बोल दूंगा कि सामने वाले लोग बिदक जाएंगे. क्योंकि उनको मुझसे कुछ उम्मीदें हैं कि इसे ऐसी नहीं ऐसी बात करनी चाहिए. पर शायद नहीं... मैं वो हूँ ही नहीं जो वो मुझे अब तक समझ रहे थे या जो मैं खुद को समझ रहा था. मुझे खुद नहीं पता मैं क्या हूँ.


हाँ, इतना जनता हूँ कि मैं अपने संबंधों में बहुत डरपोक आदमी हूँ. मैं जब भी किसी कनफ्लिक्ट में पड़ता हूँ, बहस करता हूँ तो एक लड़ाई मेरे अन्दर भी तन जाती है, जो सामने सबकुछ ख़त्म होने के बाद भी बहुत देर तक चलती रहती है. मुझमें जिरह या बहस करने की ऊर्जा नहीं है. मुझे यह ख्याल ही अब किसी जोंक के खून चूसने सा लगता है. मैं अपनी ऊर्जा किसी कंस्ट्रक्टिव चीज़ के लिए बचा कर रखना चाहता हूँ. यह बस अपनी जगह बचने जैसा है. जिसके लिए ज़रूरी है एक समूह का हिस्सा बनकर उसमें रहते हुए भी ना रहना. अब अगर सामने वाला जब पूरी बात सुने या समझे कुछ भी बोलता है तो बस हंस कर रह जाता हूँ. मेरी हंसी बस एक अल्पविराम है जिसे लगा कर मैं उस कहानी को आगे बढ़ा देता हूँ.क्योंकि अभी मैं अपने जीवन को किसी क्रांति की तरह नहीं बल्कि किसी गीत की तरह जीना चाहता हूँ.