Tuesday 17 April 2018

उम्मीद की ख़ुशबू और शिऊली के फूल: October

पसंद आई फिल्मों के बारे में लिखना भूल जाने का दुःख वैसा ही है जैसे किसी जरूरी बात को वक्त रहते ना कह पाने का दुःख. कई बार ऐसा कर चुका हूं और उसका दुःख हर बार कुछ अच्छा देख लेने पर और बढ़ जाता है. इसलिए आज मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. अभी-अभी जूही चतुर्वेदी की लिखी फ़िल्म ‘अक्टूबर’ देख कर आया हूं. फ़ैमिली के साथ गया था पर फिल्म ख़त्म होने के बाद तुरंत किसी से बात करने का मन नहीं किया. ऐसा लगता है जैसे कहानी एक अंदर की यात्रा थी, जिस पर होता हुआ मैं कहीं भीतर बैठ गया हूं. लग रहा है मुंह खोलने से आवाज़ के साथ यह यात्रा ख़त्म हो जाएगी. ऐसा कुछ भी तो नहीं था, जो फिल्म के किरदारों की ज़िंदगी और मेरी ज़िंदगी में एक जैसा हो, फिर भी कहीं ना कहीं मैं उनकी कहानी महसूस कर सकता हूं. एक राइटिंग वर्कशॉप के दौरान अंजुम (रजबअली) सर ने यह बताया था कि अगर कहानी पूरी ईमानदारी से कही जाए तो देखने वाले के दिल तक पहुंचती है, फिर राइटिंग के सारे नियम बैकफुट पर चले जाते हैं. यह बात ‘अक्टूबर’ देखने के बाद और पुख़्ता होती है


शुरू होने के कुछ ही देर बाद फिल्म ने गला पकड़ कर बैठा लिया. गला पकड़ कर इसलिए क्योंकि मैं भी उन किरदारों के दुःख में वहीं कहीं उस अस्पताल में उनके साथ था. बीच-बीच में यह भी ख्याल आता कि अगर अपनी ज़िंदगी में कोई ऐसी दुर्घटना घट जाए तो मैं क्या करूंगा? पता नहीं क्यों पर हर उस बात से जिससे मुझे डर लगता है, मैं उसे कल्पना में तो एक बार जी ही लेता हूं. कुछ मामलों में मैं बहुत ही डरपोक क़िस्म का आदमी हूं. खुद को या किसी करीबी को अस्पताल के बेड पर ऐसे नहीं देख पाऊंगा. पर फ़िल्म की कहानी कुछ देर बाद ही संघर्ष की कहानी से ज़्यादा उम्मीद की कहानी में बदल जाती है. उम्मीद, जो डैन के किरदार में अंदर तक उतरी हुई है.
शिउली (नायिका) की ज़िंदगी में कोई उम्मीद नहीं देख पाने पर उसका चाचा वेंटिलेटर का प्लग बंद करने की बात करते हुए कहता है- ‘क्या उसे पूरी ज़िंदगी ऐसे ही रखना है, बच भी गई, तो किसी को पहचान नहीं पाएगी’. उस पर डैन जवाब देता है ‘वो आप लोगों को नहीं पहचानेगी तो क्या, आप तो उसे पहचानते हैं ना.’ वाह! ऐसा तो कोई वही इंसान बोल सकता है जो उम्मीद में सराबोर हो.


थिएटर से निकलते हुए यह सोचता रहा कि फिल्म की कहानी खत्म होने के बाद डैन ने अपनी कहानी में क्या किया होगा? वो घर जाकर शिउली के पेड़ को लगाएगा क्या? क्या उसे देखकर वो सब याद किया करेगा जिससे होकर वो गुज़रा है या जो उसपर बीती है? हम भी तो शहर में, अपने आस-पास, जान पहचान के लोगों में हो रही बातों में अपनी बीती हुई कहानियों के अंश ढूंढते रहते हैं.
आज सुबह ही पढ़ा था ‘तू ज़िंदा है, तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर…’ डैन वही किरदार है. उसे ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन है. सारा वक़्त उम्मीद को दे दिया उसने. पगला है वो… लापरवाह है… पर उसे फर्क क्या पड़ता है. वैसे वो लापरवाह भी कहां है, बस उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं. वो जिनसे चिढ़ता है, उनसे चिढ़ता है. पर जिनकी परवाह करता है, उनके लिए खुद को भी भूल जाता है.
हमें भी प्रतिकूल परिस्थितियों में जीए जाने के लिए एक उम्मीद की जरूरत तो हमेशा ही रहती है. यह अलग बात है कि हर उम्मीद पूरी नहीं होती और बिलकुल भी जरूरी नहीं कि हमारी हर उम्मीद पूरी हो. कुछ उम्मीदें बस इसलिए भी होनी चाहिए ताकि हमें यह पता लग सके कि हम ज़िंदगी को किस नज़रिए से देखते हैं. उम्मीद, शिउली के फूलों की खुशबू की तरह है जिसे सूंघते हुए ज़िंदगी को थोड़ा और जी लेने का मन करता है. एक कोमा में पड़े किरदार की नाक में एक हरकत हो सकती है. और वही खुशबू उसके आसपास के किरदारों के अंदर ज़िंदा हो उठती है. किसी उम्मीद की तरह. अगली बार कहीं भी शिउली के फूल दिखें तो उन्हें पास से सूंघ लूंगा और सीना उम्मीदों से भर जाएगा. हम सबको एक शिउली का पेड़ अपने आसपास लगा लेना चाहिए…है ना!




Update: This article was also published by thelallantop.com. 

Tuesday 10 April 2018

सपने जगह हैं।

आज सुबह आँख खुली तो रात के सपने का भार सर पर महसूस हुआ। अपना क़द थोड़ा कम लगा और चेहरे के सामने एक दीवार सी थी का एहसास हुआ। उठते ही पहला काम मोबाइल में सर्च किया 'killing Dream Interpretation '। कुछ ऑप्शन आए, पढ़ने की कोशिश की पर तभी घड़ी पर नज़र गयी। मेरे पास आधे घाटे का वक़्त था घर से निकलने के लिए। मैं बाथरूम की तरफ़ भागा। तैयार हुआ और फटाफट  नाश्ता कर घर से निकल पड़ा। सर का भार अभी भी वैसा ही था। 'कोई ऑटो वाला ना ना करे बस' मुझे किसी से ज़्यादा बात करने का मन नहीं है... बहस तो बिल्कुल नहीं। शहर में गर्मी भी बढ़ती जा रही है।

ऑटो में बैठे बैठे Dream Interpretation पढ़ते हुए बार बार मुझे बीती रात का सपना याद आ रहा था। कुछ छः से सात लोगों ने मिलकर एक आदमी का गला रेत कर मार डाला था। यह लोग चालीस से पचास साल के बीच की उम्र के थे, सबने सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे । वो एक साथ आए और एक आदमी जो उनके जैसा सा ही था को उठा कर एक दीवार के पीछे ले गए, उनमें से कुछ उसका गला रेतने में लग गए और कुछ उनको घेर कर ज़ोर ज़ोर से गाना गाने लगे ताकि जिसका गला काटा जा रहा है की आवाज़ दब जाए और सड़क पर चलते लोगों का ध्यान उसपर ना जाए। आह्ह्ह... सपने में थोड़ी देर बाद मुझे समझ आया कि उस आदमी को मेरे बिस्तर पर ही मारा गया है। हालाँकि उसकी लाश वहाँ नहीं है मेरे बिस्तर के गद्दे के नीचे अभी भी उसका ख़ून लगा हुआ है...टपक रहा है। मुझे वो साफ़ करना था। पता नहीं क्यूँ पर बार बार यह डर भी मन में कहीं था कि अगर पुलिस को पता चला तो मुझे जेल में जाना होगा।

इसी बीच उस दोस्त की शक्ल भी बार बार याद आती रही जो यह सब होने के बाद सपने में आया था। वह मुझसे काफ़ी वक़्त से नाराज़ है। उससे ढंग से बात किए हुए भी एक साल से ज़्यादा हो गया। कई बार मैंने ख़ुद से भी कहा है कि  ये ठीक है, पर सोच और एहसास में तो फ़र्क़ होता है ना। कहीं ना कहीं यह बात मुझे खलती भी है पर इस बारे में अब कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ चीज़ें बस होती हैं। Dream Interpretation वाले पेज ने बताया कि जिस तरह का सपना मैंने देखा उसका मतलब यह भी हो सकता है कि अंदर ही अंदर मैं किसी से बहुत ग़ुस्सा हूँ। तो क्या मैं उस दोस्त से ही ग़ुस्सा हूँ जो मेरे सपने में आया था? हाँ शायद, थोड़ा सा। यह  अपनी बात ना कह पाने का और उसकी ना सुन पाने का  ग़ुस्सा है। नज़रों के सामने आकर भी मूँह पर टेप मार दी हो वैसा सा कुछ है। Dream Interpretation वैसे भी कितना सही है और उसपर कितना भरोसा किया जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। यह तो मन को बहलाने की कई आदतों में से एक है।

शहर की गर्मी, ट्रैफ़िक और उसके साथ होती सुबह की भागदौड़ आज थोड़ी ज़्यादा ही लग रही है। दूसरी तरफ़ दिमाग़ में घड़ी उल्टी चल रही है कि नौ बजे तक अंधेरी पहुँचना है।आज का दिन ऐसा ही शुरू हुआ है अब इसका कुछ किया नहीं जा सकता। की जा सकती है तो बस एक उम्मीद कि अपने ख़राब दिन का असर किसी और पर ना हो। ऐसे में मैं बस अपने रीऐक्शन को delay कर सकता हूँ।

अंधेरी पहुँच का कुछ देर कार्तिक के साथ काम किया। UKC आज CBI के ऑफ़िस गया हुआ है। चंदा कोचर वाले केस के सिलसिले में। यहाँ आकर तो मन थोड़ा बदला तो ज़रूर है। बारह बजे तक वहाँ से काम निबटाकर मैं सात बंगला कॉलिन के पास गया। यहाँ भी हम दोनों ने थोड़ी देर काम किया पर आज मेरी एनर्जी थोड़ी डाउन ही है। सर के भार ने सर में अपनी जगह बना ली है और दर्द  बन गया था। मैंने कॉलिन को कहा कि 'आज का सेशन छोटा ही रखते हैं, I am not feeling well'। उसने पूछा तो मैंने अपने बीती रात के सपने के बारे में बताया। वो हँस रहा था और फिर उसने मुझसे अपने बीती रात के सपने के बारे में बताया।उसका सपना इतना रियल था कि उठने के बाद उसे यही लग रहा था कि जो उसने सपने में देखा है वो सच में हुआ है। हम दोनों को यह लगता है कि सपने सिर्फ़ सपने नहीं बल्कि कोई जगह होते हैं, जहाँ जाकर वहाँ से लौटते हुए उसका असर हम पर रह जाता है।

चार बज चुके हैं। मैं वहाँ से निकलकर आज जल्दी घर आ गया हूँ। थोड़ा आराम किया है सर का दर्द अब नहीं है। थोड़ी दोस्तों से फ़ोन पर बात हुई और अब मूड ठीक है। एक 'not so good day' ख़त्म हुआ है। अब कल से एक नए दिन में क़दम रखना है जैसे हम हर रात सपनों में क़दम रखते हैं।