पसंद आई फिल्मों के बारे में लिखना भूल जाने का दुःख वैसा ही है जैसे किसी जरूरी बात को वक्त रहते ना कह पाने का दुःख. कई बार ऐसा कर चुका हूं और उसका दुःख हर बार कुछ अच्छा देख लेने पर और बढ़ जाता है. इसलिए आज मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. अभी-अभी जूही चतुर्वेदी की लिखी फ़िल्म ‘अक्टूबर’ देख कर आया हूं. फ़ैमिली के साथ गया था पर फिल्म ख़त्म होने के बाद तुरंत किसी से बात करने का मन नहीं किया. ऐसा लगता है जैसे कहानी एक अंदर की यात्रा थी, जिस पर होता हुआ मैं कहीं भीतर बैठ गया हूं. लग रहा है मुंह खोलने से आवाज़ के साथ यह यात्रा ख़त्म हो जाएगी. ऐसा कुछ भी तो नहीं था, जो फिल्म के किरदारों की ज़िंदगी और मेरी ज़िंदगी में एक जैसा हो, फिर भी कहीं ना कहीं मैं उनकी कहानी महसूस कर सकता हूं. एक राइटिंग वर्कशॉप के दौरान अंजुम (रजबअली) सर ने यह बताया था कि अगर कहानी पूरी ईमानदारी से कही जाए तो देखने वाले के दिल तक पहुंचती है, फिर राइटिंग के सारे नियम बैकफुट पर चले जाते हैं. यह बात ‘अक्टूबर’ देखने के बाद और पुख़्ता होती है
शुरू होने के कुछ ही देर बाद फिल्म ने गला पकड़ कर बैठा लिया. गला पकड़ कर इसलिए क्योंकि मैं भी उन किरदारों के दुःख में वहीं कहीं उस अस्पताल में उनके साथ था. बीच-बीच में यह भी ख्याल आता कि अगर अपनी ज़िंदगी में कोई ऐसी दुर्घटना घट जाए तो मैं क्या करूंगा? पता नहीं क्यों पर हर उस बात से जिससे मुझे डर लगता है, मैं उसे कल्पना में तो एक बार जी ही लेता हूं. कुछ मामलों में मैं बहुत ही डरपोक क़िस्म का आदमी हूं. खुद को या किसी करीबी को अस्पताल के बेड पर ऐसे नहीं देख पाऊंगा. पर फ़िल्म की कहानी कुछ देर बाद ही संघर्ष की कहानी से ज़्यादा उम्मीद की कहानी में बदल जाती है. उम्मीद, जो डैन के किरदार में अंदर तक उतरी हुई है.
शिउली (नायिका) की ज़िंदगी में कोई उम्मीद नहीं देख पाने पर उसका चाचा वेंटिलेटर का प्लग बंद करने की बात करते हुए कहता है- ‘क्या उसे पूरी ज़िंदगी ऐसे ही रखना है, बच भी गई, तो किसी को पहचान नहीं पाएगी’. उस पर डैन जवाब देता है ‘वो आप लोगों को नहीं पहचानेगी तो क्या, आप तो उसे पहचानते हैं ना.’ वाह! ऐसा तो कोई वही इंसान बोल सकता है जो उम्मीद में सराबोर हो.
थिएटर से निकलते हुए यह सोचता रहा कि फिल्म की कहानी खत्म होने के बाद डैन ने अपनी कहानी में क्या किया होगा? वो घर जाकर शिउली के पेड़ को लगाएगा क्या? क्या उसे देखकर वो सब याद किया करेगा जिससे होकर वो गुज़रा है या जो उसपर बीती है? हम भी तो शहर में, अपने आस-पास, जान पहचान के लोगों में हो रही बातों में अपनी बीती हुई कहानियों के अंश ढूंढते रहते हैं.
आज सुबह ही पढ़ा था ‘तू ज़िंदा है, तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर…’ डैन वही किरदार है. उसे ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन है. सारा वक़्त उम्मीद को दे दिया उसने. पगला है वो… लापरवाह है… पर उसे फर्क क्या पड़ता है. वैसे वो लापरवाह भी कहां है, बस उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं. वो जिनसे चिढ़ता है, उनसे चिढ़ता है. पर जिनकी परवाह करता है, उनके लिए खुद को भी भूल जाता है.
हमें भी प्रतिकूल परिस्थितियों में जीए जाने के लिए एक उम्मीद की जरूरत तो हमेशा ही रहती है. यह अलग बात है कि हर उम्मीद पूरी नहीं होती और बिलकुल भी जरूरी नहीं कि हमारी हर उम्मीद पूरी हो. कुछ उम्मीदें बस इसलिए भी होनी चाहिए ताकि हमें यह पता लग सके कि हम ज़िंदगी को किस नज़रिए से देखते हैं. उम्मीद, शिउली के फूलों की खुशबू की तरह है जिसे सूंघते हुए ज़िंदगी को थोड़ा और जी लेने का मन करता है. एक कोमा में पड़े किरदार की नाक में एक हरकत हो सकती है. और वही खुशबू उसके आसपास के किरदारों के अंदर ज़िंदा हो उठती है. किसी उम्मीद की तरह. अगली बार कहीं भी शिउली के फूल दिखें तो उन्हें पास से सूंघ लूंगा और सीना उम्मीदों से भर जाएगा. हम सबको एक शिउली का पेड़ अपने आसपास लगा लेना चाहिए…है ना!
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