पसंद आयी फ़िल्मों की ख़ास बात यह होती है कि उनका एक टुकड़ा फ़िल्म के ख़त्म होने के बाद भी साथ चलता रहता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। वैसे तो जैसा कहते हैं कि ‘कलेजा मूँह में आ गया’
वैसी फ़ीलिंग तो राज़ी देखते हुए कई सीन में हुई पर एक सीन ऐसा था जो अभी तक साथ
चल रहा है। वह सीन जहाँ इक़बाल और सेहमत दोनों आमने सामने एक दूसरे का सच जानने के
बाद मिलते हैं। दोनों एक दूसरे से प्यार तो करते हैं पर दोनों की नज़र में ही वतन
पहले आता है। यहाँ विकी का किरदार इक़बाल सेहमत से पूछता है कि “क्या अब तक जो
हमारे बीच था उसमें कुछ भी सच था?” यह किसी भी इंसान के होने पर सवाल है। उसकी
मान्यताओं पर सवाल है। उसके जीए हुए पर सवाल है। हम जो जी लेते हैं हमारी पहचान का
हिस्सा होता जाता है। हमारी मान्यताएँ, हमारी बेवक़ूफ़ियाँ, हमारे प्रेम, हमारी
नफ़रतें... सबकुछ। फ़र्ज़ करें हमें एक दिन यह पता चले कि जो भी हमने जिया वह
सिर्फ़ इसलिए कि कोई ऐसा चाहता था कि हम वैसा ही जिए या महसूस करें जैसा वो चाहता
है। क्या वह हमारे होने पर सवाल नहीं है।
मैं एक भारतीय हूँ और देशभक्ति की थोड़ी समझ भी है। बचपन में देशभक्ति गाने
सुन कर रोयें खड़े होते आए हैं और स्कूल में बड़े ज़ोरों शोरों के साथ १५ अगस्त और
२६ जनवरी की तैयरियाँ करी हैं। पर अब तक जहाँ मुझे फ़िल्म देखते हुए बार बार सेहमत
की बेहतरी की चिंता थी कि इसे कुछ ना हो, वह उस सीन में आकर पलट गयी। यहाँ पर आकर मैंने
ख़ुद को इक़बाल के साथ खड़ा पाया। दोनों मुल्कों की लड़ाई में खिंची हुई लकीर
इक़बाल और सेहमत के बीच खिंच गयी थी। यह लक़ीर जितनी बाहर थी उतनी ही दोनों के
अंदर तक उतरती गई। इक़बाल के लिए ज़्यादा बुरा इसलिए भी लगा क्योंकि शायद वो इसके
लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। कम से कम सेहमत को अपना मोहरा होने का पता था। इक़बाल
ने तो बस भरोसा किया था सेहमत का अपने रिश्ते पर भरोसा कर के।
“क्या अब तक जो उनके बीच था उसमें कुछ भी सच था?” बार बार कानों में गूँजता
हुआ अंदर तक उतरता रहा। ऐसे सवाल तो हमने भी कई बार अपनी ज़िंदगी की कहानियों को
लेकर किए हैं ना...? एक दौर जी लेने के बाद पीछे पलट कर देखा है और यह सवाल गूंजा
है कि “जो जी लिया वो कितना सच था”। कितना मुश्किल होता है यह मान लेना या इस बात
का एहसास होना कि हम एक झूठ को सच मान रहे थे। शायद इसी वजह से हमारे पास अलग अलग
वक़्त पर हमारे जी जिए हुए सच के अलग अलग संस्करण होते हैं, जिसे हम यह सोचकर
तैयार करते हैं कि जो जिया गया वो जीने लायक था। यह हमारी ख़ुद से एक अरेंज्मेंट
है। पर इक़बाल को अपनी कहानी के और संस्करण तैयार करने का मौक़ा भी नहीं मिला।
प्यार सेहमत को भी था, यह हमें एक दर्शक के नज़रिए से पता है पर इक़बाल की
ज़िंदगी एक सच, झूठ और जाने क्या के बीच लटकती हुई ख़त्म हो जाती है। उसकी कहानी
ख़त्म होकर भी ख़त्म नहीं होती।
राज़ी दो मुल्कों की कहानी नहीं है। मेरे लिए यह कहानी एक दो ऐसे लोगों के क़रीबी
रिश्ते की कहानी है जिसमें राजनीति दख़ल देती है। एक हिंदुस्तानी होने के नाते यह
अच्छा लगता है कि पाकिस्तान की हमारे मुल्क पर हमले का मनसूबा कामयाब नहीं होता पर
एक इंसान के नाते मैं चाहता था कि काश, इक़बाल और सेहमत के रिश्ते में वो वक़्त ना
आया होता जहाँ इक़बाल को यह पूछना पड़ा कि ““क्या अब तक जो हमारे बीच था उसमें कुछ
भी सच था?”