Thursday 25 April 2019

वो संसार कैसा होगा? बिक्सू के बारे में।




जब कम पता था, दुनिया छोटी थी तो बाहर की दुनिया एक कल्पना होती है। उस कल्पना का अपना विस्तार था, उसके रंग ज़्यादा थे. इससे बाहर का संसार कैसा होगा? लोग कैसे होंगे? उनसे मिलना कैसा होगा? में कई सारी खुद के मन की कहानियाँ शामिल थीं। बाहर का संसार हमारी कल्पना का संसार था, anticipation और सम्भावनाओं से भरा हुआ। पर अब वो बीच चुका है या बीतता जा रहा है।

अब हमें सब पता है और जो नहीं पता वो बस एक गूगल सर्च की दूरी पर है। कल्पना की जगह रोज कम होती जा रही है। हमें तो अब यहाँ तक पता है कि ब्लैक होल कैसा दीखता है और पड़ोस वाली गैलिक्सी में क्या चल रहा है। पर ताजुब्ब यह है कि अब हरी मुलायम घास पर सुकून से बैठने वाले एहसास का एहसास नहीं होता। लगातार कहीं पहुँच पाने के क्रम में सिर्फ़ चलते जाने का सुख खोता जाता है।
किसी की याद आयी तो तुरंत ही बात कर ली। अब कोई इमेजिनेशन नहीं है कि वो अपने संसार में कैसा होगा? क्या कर रहा होगा? उसके जीवन में क्या घट रहा होगा? वो एक कल्पना की खिड़की हमारी ज़िन्दगियों में लगातार बंद होती जा रही है.
दो चिट्ठियों के बीच का इंतज़ार में एक संसार था. फ़ोटो की रील धुलने जाती थी उसके इंतज़ार का संसार था, वो खत्म हो गया है. और बिक्सू वो खोता हुआ संसार हमारे सामने दुबारा खोल कर रख देता है. हमें याद दिलाता है कि हम पीछे क्या छोड़ आए हैं और वो छोटी छोटी दिखने वाली बातों ने हमारे जीवन को कैसे एक तरह की दिशा दी है। इसको गोद में लेकर बैठना, अपने बचपन को गोद में लेकर बैठना है।
वैसे तो किताब पढ़ते हुए कई बार रोना भी आया पर एक जगह बिक्सू जाते हुए अपने लगाए हुए पेड़ से कहता है 'खूब बड़ा हो जाना रे पेड़, आकास छूना, हम जा रहे हैं हियाँ से'... आह! यह लाइन साथ रह गयी। बार बार पूरे दिन मन में आती रही। शायद ये मेरा कभी का जीया हुआ है। इसमें विहार है, प्रेम है, उम्मीद है, दोस्ती है और विस्थापन की टीस है. यह पढ़ कर मैं थोड़ा उखड़ा सा महसूस करा हूँ. समतल खेल की ज़मीन को जोत दिया हो जैसे। थोड़ी बारिश होगी तो थोड़ी देर में सब शांत हो जाएगा।