Tuesday 31 December 2019

आरएसएस (शाखा) और मैं...

कुछ पंद्रह साल का था तब आरएसएस की शाखा जाना शुरू किया था। उस शहर में रहते कुछ आठ साल हो गए थे। दो से तीन किलोमीटर का शहर था वो, दोस्तों के साथ कभी पैदल-पैदल तो कभी साइकल पर ही पूरा नाप लेता था। सरकार निकम्मी थी तो सबका जीवन तरह तरह के सामाजिक और आर्थिक अभाव में बीतता था। अब परेशानी सबकी थी तो किसी को ज़्यादा खलती नहीं थी। लाइट नहीं आयी दो महीने तक, तो सबकी ही नहीं आयी। प्रशासन की हालत इतनी ख़राब कि हर छोटी-बड़ी कम्यूनिटी के अपने गुंडे होते थे। हिंसा में मरी लाश किसी चौक पर रखकर हो रहे प्रदर्शन कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। इसी बीच एक तबका वह भी था जो एनजीओ बना कर शहर की बेहतरी के लिए काम कर रहा था। और वहीं कहीं ना कहीं मेरी उम्र के बच्चे तलाश रहे थे एक बेहतर दिशा। उसके सबके अपने अपने रास्ते थे। मैं और मेरे दो दोस्त उस वक्त बाकी पत्र पत्रिकाओं के साथ विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस पढ़ रहे थे।समाज कैसा हो?’ इस पर भी उस वक़्त के हिसाब से कुछ दोस्तों से लगातार ईमानदार बहस होती। उन्हीं में से एक दोस्त ने मेरा परिचय पहले गायत्री परिवार से और फिर आरएसएस से कराया था।

शहर के बीच में एक टाउन हाईस्कूल था, जहाँ उस वक्त शाखा लगती थी। एक तरफ़ कुछ आठ-नौ लोग एकध्वजलगाकरनमस्ते सदा वत्सले...’ गाते, खेल होते, थोड़ा कराटे की ट्रेनिंग होती और बहुत सारी राष्ट्र निर्माण की बातें होतीं। मुझे अलग-अलग धर्मों के बारे में बहुत सी ऐसी बातें पता चलीं जो पहले पता नहीं थी। उसी मैदान में एक क्रिकेट की पिच थी। वहाँ कुछ बच्चे उसी वक्त क्रिकेट खेलने आते थे जिसमें ज़्यादा संख्या मुसलमान बच्चों की थी। (यह लिखते हुए मुझे कुछ के सफ़ेद कुर्ते और टोपी याद रहे हैं।)


मैं लगातार शाखा जाता रहा। मुझे धीरे-धीरेअखंड भारतके बारे में पता चला। मुग़लों के हमले के बारे में पता चला, पता चला कि कैसे हिंदुओं को हमेशा एक युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए। 'अरे आप हिंदू हैं, आपके घर में लाठी नहीं है? साँप निकल आया तो कैसे मारेंगे? दुश्मन तो दुश्मन ही होता है।'


ये सब कुछ एक बेहतर भारत का वादा था। नमस्ते और प्रणाम जैसे शब्दों की जगहजय हिंदने ले ली। एक बार आरएसएस के किसी बड़े कार्यक्रम में भी जाना हुआ था। स्थानीय स्तर के बहुत से बड़े लोग आए थे। मैं पंद्रह साल का लड़का, देश के गौरव में अपना योगदान दे रहा था। खून में पहली बार गर्मी का एहसास हुआ था। इसी बीच एनजीओ वाले भी बुलाने लगे कविता पाठ के लिए तो वहाँ भी व्यस्त रहने लगा। सब अच्छा लग रहा था पर कुछ बदल रहा था जो शायद मेरे जीवन की पूरी दिशा निर्धारित करने वाला था।


आरएसएस की शाखा में कभी यह नहीं बोला जाता कि उन्हें मुसलमानों से कोई परेशानी है, पर हर बार इशारा ऐसा होता कि मुझे लगभग तीन महीने में ऐसा लगने लगा कि वो लड़के जो उसी ग्राउंड की पिच पर क्रिकेट खेल रहे हैं, हमारे देश की सारी समस्या उनकी वजह से है। वो हमारे दुश्मन हैं। मैं महसूस करने लगा था उस नफ़रत को अपने शरीर में। पेट में एक नफ़रत का गोला तैरने लगा था और ज़बान परजय हिंदहोता था। पर जैसे-जैसे वक़्त बीता, उस नफ़रत के साथ रहना मुश्किल हो गया, और ठीक-ठीक याद नहीं पर परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि मैंने शाखा जाना बंद कर दिया। 


उसके अगले साल दिल्ली गया था, चाचा के साथ रहने। वहाँ रहते हुए अगले तीन साल तक ओशो को पढ़ा। दिल्ली और ओशो ने मुझे बचा लिया। उस नफ़रत से बचाकर एकदम नया नज़रिया दिया। नहीं तो बहुत आसान था उस ज़हर में घुलकर ज़हर फैलाना और बाक़ी उन दोस्तों की तरह हो जाना जो बेचारे इस व्यवस्था से ये कभी नहीं पूछ पाए कि उनके हिस्से की नौकरी कहाँ है। बाक़ी सवाल तो हिंदू-मुस्लिम मुद्दे के नीचे कब का दम तोड़ चुके होंगे। मुझे दुःख होता है ये देखकर कि कैसे व्हाट्सएप्प आने से सालों पहले ही उस नफ़रत ने मेरे दोस्तों को बर्बाद कर दिया। मैं भी उनमें से एक हो सकता था, बहुत आसान था वह होना, पर शायद मेरी ख़ुशक़िस्मती थी कि मैं वो नहीं हुआ।


इसलिए अब जब आसपास उसी ज़हर को फैलता देखता हूँ तो दुःख होता है। उसी आरएसएस की शाखा फिर से अपने आसपास देखता हूँ तो लगता है कि बिना बताए एक पूरी पीढ़ी को एक अंधे कुएँ में धकेला जा रहा है। आज जो इस्लामोफ़ोबिक लॉजिक मेन्स्ट्रीम में गए हैं, मैंने वो पहली बार शाखा में सुने थे। वही लॉजिक जब पढ़े-लिखे लोग देते हैं तो लगता है इनको इतनी सी बात क्यूँ नहीं समझ रही या ये समझना नहीं चाहते। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदू समुदाय का एक बड़ा तबका चुपचाप आरएसएस को सपोर्ट करता है। कई बार ये भी सोचता हूँ कि क्या होता अगर हमारे घर के आसपास मुसलमान लड़कों का एक समूह तिरंगे के अलावा कोई और झंडा लगा कर सुबह शाम वही करता जो आरएसएस करता है। हमारा सहनशील समाज उसे कैसे देखता? यह सवाल हम सबको ख़ुद से पूछना चाहिए।


और जिन्हें भी आरएसएस का इतिहास और महत्त्वाकांक्षा पता है उन्हें ये भी पता होगा कि हमारी सत्ता देश को किस तरफ़ ले जा रही है। ये सब जानते हुए भी हमारी चुप्पी और तटस्थता इस बात के गवाह हैं कि इस ज़हर का एक अंश हम तक भी पहुँचा है। क्योंकि शाखा में किश्तों में डंडा पकड़ाया जाता है और दिमाग़ रख लिया जाता है। हम फिर उस डंडे से सबसे पहले अपनी इंसानियत को खदेड़ कर बाहर भगाते हैं।