Thursday 5 November 2020

जल्दी-जल्दी

किस बात का कितना असर हमपर किस तरह होता है क्या हम कभी थोड़ी देर रुक कर सोच पाते हैं? दुनिया रोज़ चली जा रही है, हम भी उसके साथ चल रहे हैं। इसी रास्ते में कई लोग मिले उन्होंने बताया कि "ये ठीक है" तो वो ठीक लगने लगता है, फिर वही बोलते हैं कि "ये ठीक नहीं है।" और हम उस चीज़ से दूर होते जाते हैं। दुनिया में लगने वाला बाज़ार जो कभी बंद नहीं होता इस बात को जानता है और लगातार अपनी माया गढ़ता रहता है। हमें लगता है हम choose कर रहे हैं। Free Choice, पर वह कितनी free है. क्या हम सच में वही चुन रहे हैं जो हम चाहते हैं

मैंने इसपर कुछ प्रयोग करने शुरू किया हैं, अपने जीवन में ही, इसकी निरार्थकता को जानते हुए। हमारे आस पास कितनी सारी documentaries हैं यह बताने के लिए कि हमें किस तरह से manipulate किया जा रहा है। हम क्या खाएँ, क्या पहने या फिर किससे प्यार करें। उसपर बात करूँगा तो कोई नहीं बात नहीं होगी। जैसे एक डर हुआ या किसी तरह से vulnerable व्यक्ति किसी अंधविश्वास की तरफ़ मुड़ जाता है एक सहारा ढूँढते हुए। वैसे ही हम सारे लोग एक दूसरे से मिलने वाले validation की तरफ़ मुड़ चुके हैं और बाज़ार को यह बात पता है। दरअसल हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम कोई "Whatsapp Group" भी छोड़ने से पहले कई बार सोचते हैं और उसमें हमेशा के लिए फँस कर रह जाते हैं।

इसी बाज़ार ने हमारे viewing experience को भी एक competition में बदल दिया है। जिसे हमारा entertainment होना था वह भी अब एक दौड़ की तरह हो गया है। मैं इसको emotional laboured का नाम दूँगा। हर हफ़्ते और लगातार अलग अलग OTT platforms पर shows और films आती जाती हैं और हमारे friend circle की वजह से भी हमें इसे देखने का pressure बढ़ता जाता है, हमारी बातों का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर बात करने में जाता है कि किसने क्या देखा और क्या नहीं। इंसान थक जाता है। 

इसी बीच अपनी सेहत की वजह से मुझे थोड़ा वक़्त मिला। मुझे लगा कि जिस तरह आजकल हमारे क्रिटिक्स और influencers किस फ़िल्म या शो के बारे में बात करते हैं वो एक तरह का perception हमारे ऊपर ज़रूर बनाने लगा है। लोगों को कोई चीज़ अच्छी भी लगी हो और अगर उनके दोस्तों को नहीं लगी हो तो वो उसके बारे में बात करने से कतराते हैं। इसका साफ़ साफ़ उदाहरण मैंने अपने साथ देखा। मुझे मीरा नायर का काम बहुत पसंद है तो मैंने Netflix पर "A Suitable Boy" देखना शुरू किया। और इस बार सोचा था कि binge watch नहीं करूँगा। एक एपिसोड रोज़। पहला एपिसोड देखा, पसंद आया। मैंने उसकी तारीफ़ अंकिता से बात करते हुए की। अंकिता के हालाँकि शो देखा नहीं था पर उसने कहा कि उसने सुना है शो अच्छा नहीं बना। मैंने कहा कि मुझे तो पसंद आया पहला एपिसोड अब आगे देखेंगे कैसा है। अंकिता से बात होने के बाद मैंने कुछ एक रिव्यूज़ पढ़ने की कोशिश की, पर जल्द ही यह बात समझ गयी कि शो पूरा देखने के पहले किसी और के opinion का चश्मा लगा लूँगा तो शो को वैसे नहीं देख पाउँगा जैसे मुझे देखना चाहिए। मैंने रिव्यू पढ़ना बंद कर दिया। रोज़ एक एपिसोड देख रहा था और अगले दिन नया एपिसोड देखने की उत्सुकता लगातार बनी रही। पाँचवे एपिसोड तक पहुँचा तो सौरभ को भी यह बात बताई और फिर लगा कि शायद आख़िरी एपिसोड उतना अच्छा ना हो और शायद यही वजह रही हो कि critics ने उतनी अच्छी बातें नहीं लिखी शो के बारे में। 

अगले दिन आख़िर एपिसोड शुरू हुआ। थोड़ी देर बाद कई scenes पर मैंने ख़ुद को रोता हुआ पाया। कभी ख़ुश होता, कभी दुःखी , कभी ऐसा लगता कि भर गया और कभी कोई कसक सी उठ जाती। जब एपिसोड ख़त्म हुआ तो मैं शो के बारे में और उससे जुड़े पूर्वाग्रह के बारे में सोचने लगा कि कितना आसान था रिव्यू पढ़कर यह शो नहीं देखना। जबकि मुझे तो यह शो बहुत पसंद आया। उसके dialogues मूलतः English में थे पर मैंने तो हर किरदार के एहसास से जुदा महसूस कर रहा था और बाक़ी चीज़ें बहुत secondary हो गयी थीं। मुझे इस बात से फ़र्क़ नहीं पद रहा था कि कौन क्या और कैसे बोल रहा है मुझे इस बात से फ़र्क़ पड़ रहा था कि उस किरदार का दुःख क्या है और वो क्या पाना चाहता है। और शायद यहीं "A Suitable Boy" मेरे लिए काम कर जाती है। 

अगले दिन शाहरुख़ का B'Day था। मैंने Instagram इंस्टॉल किया और उनको wish किया। साथ ही  "A Suitable Boy"को लेकर भी एक स्टोरी डाली कि "ये शो बहुत पसंद आया, क्रिटिक्स तो कुछ भी बोलते हैं।...Binge watch मत करना फ़ास्ट फ़ूड नहीं है।" शायद मुझे थोड़ा बेहतर जीने के लिए भी entertainment को entertainment की तरह जीने की ज़रूरत है competition की तरह नहीं।