Sunday 7 November 2021

जीने की परिभाषा के बीच

बदलाव की आहट आनी शुरू हो गयी है। इसे मैं कई दिनों से महसूस कर रहा हूँ। एक लकीर को पकड़कर इतनी दूर निकल आया हूँ कि लकीर ख़त्म सी  होती दिखती है। जिन बातों के लिए मैंने लगातार ख़ुद के साथ एक निर्मम लड़ाई लड़ी, वो बातें ही अब कुछ और लगती हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि मैं वो ही आदमी हूँ। मैं तो वैसे भी लगतार बदल ही रहा था। शायद बदलते हुए भी मैं एक दिशा में जाना चाहता था। दिशाएँ भी सारी भ्रम थीं। रास्ते में इतने दर्पण मिले, हर दर्पण में अपनी शक्ल देखकर ठीक करने की कोशिश की कि सब ठीक हो। ठीक होना बेहतर इंसान होने का पर्याय बन गया था। लकीर पकड़े चलते रहे। जो भी किया ऐसे किया जैसे किसी और को हिसाब देना है। मेरे अकेलेपन में भी मैं अकेला नहीं रहा। हर बार लगा कोई देख रहा है या कोई बाद में देखेगा। मेरी भाषा में वर्तनी की त्रुटि की कोई गुंजाइश नहीं थी। ईश्वर की आँखों की जगह नैतिकता की आँखें गड़ी थीं मुझपर। मैं ख़ुद ही हर बार अपने ख़िलाफ़ गवाही दे रहा था। आख़िर मैं ऐसा क्यूँ कर रहा था? क्या मुझे पता था कि मैं ऐसा कर रहा हूँ? इसका जवाब हाँ और ना दोनों ही हैं। सही और ग़लत की तलाश में बीच का कोई रास्ता नहीं था। अपने पुरखों की ग़लतियों के लिए मैंने ख़ुद को कोड़े मारे। मैं अपना सर नीचे झुकाकर लगतार चलता रहा। लोगों की बातों में अपनी पश्चाताप की जगह ढूँढता रहा। मैं उस अपराध से आज़ाद होना चाहता था जो मैंने कभी किया ही नहीं। मैंने ख़ुद को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था। सब सही करने की इतनी ज़रूरत क्यूँ थी मुझे? मैं क्या कर लेना चाहता था सही होकर उस लकीर पर चलते हुए जो मुझे लगता था सही है। पर क्या वो लकीर सच में थी? शायद यह सवाल मैं आजकल लगतार ख़ुद से पूछ रहा हूँ इसलिए मेरे लिखे में भी यह बार बार आता है।

दुनिया बहुत तेज़ी से बदल गयी थी और मैं अपनी रट में चला जा रहा था। कई बदलाव ऐसे थे जिससे मैंने ख़ुद को लगातार दूर रखा था। वो मेरा रास्ता नहीं था। मेरा रास्ता वो लकीर थी जिसपर चलकर कुछ लोग आगे तक पहुँचें थे। मुझे नहीं पता था मैं क्या ठीक ठीक उस लकीर पर चल पाऊँगा या नहीं पर मैं लगातार कोशिश में लगा रहा। जो लोग उस रास्ते से गुज़रे थे उनके पदचिंहों को देखता, उसमें पैर रखता मैं धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। मैंने पैर उन पदचिंहों से छोटे थे पर मुझे इसकी परवाह नहीं थी। मुझे पता था मैं सही रास्ते पर चल रहा हूँ। दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही थी।

दुनिया ऐसे बदली की जीने की इतनी सारी परिभाषाएँ सामने आ गयीं। मेरा जमा जमाया खेल बिगड़ गया। बाहर सब बेहतर था पर अंदर ही अंदर कुछ काटने लगा। जिन परिभाषों को मैं अपना मान कर चल रहा था उन्हीं परिभाषाओं ने अपना रूप बदल लिया। जीवन का विस्तार हुआ जो कहता कि मुझे कुछ और हो जाने की ज़रूरत है या फिर कुछ भी नहीं। मेरे होने में किसी दिहाडी मज़दूर की सी मेहनत थी। शाम तक शरीर थककर चूर होता जाता। अपने जीने की परिभाषों को मैंने ख़ुद की परिभाषा से फिसलता देखा था। ठीक ठीक तो नहीं कह सकता पर ये कुछ ऐसा था जैसे हर बार हर जगह कुछ ना कुछ ढूँढ लेने की कोशिश। इस दुनिया के पीछे क्या राज़  छिपा था? मैं लगातार बातों के बीच की बातें ढूँढता रहा... लगातार।  इसके अपने फ़ायदे थे और हैं भी। दुनियावी बातों पर चलते हुए इस संसार ने मुझे एक जगह दी पर मेरे मन से वो जगह गायब थी। मुझे अभी भी लकीर दिखती थी। 

कई बार लोगों को कहते हुए सुना है "It's not the destination but the journey"। मैं यह बात समझता हूँ और ये मैंने जिया भी है। पर मैं इस बात पर अभी पूरी तरह से भरोसा नहीं कर सकता। क्या मैं कहीं भी नहीं पहुँचकर ख़ुश हो सकता हूँ? यह लिखते हुए भी मुझे ये ख़याल कई बार आया कि ये जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ इसे पूरा तो करना ही है। एक-एक वाक्य लिखने का अपना सुख है और एक पन्ना पूरा करने का अपना। हम क्यूँ ऐसे आलतू-फ़ालतू क्वोट्स बनाकर ख़ुद को छलते रहते हैं? क्या यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं? पर जब अगर मेरी अब तक की यात्रा नियमों के रास्ते चलकर बनी थी तो मुझे यह नियम भी मानना था। Journey को enjoy करना भी एक लक्ष्य बन गया। सुबह तय किए वक़्त पर उठना, दौड़ना, नापा-तुला खाना, पढ़ना-लिखना, सोना सब नियम के तहत हो रहा था। जिसमें मैं ख़ुद से ही ख़ुद का हिसाब माँगता और अक्सर उसमें हारा हुआ महसूस करता। मेरे लिए ग़लत होने की कोई ज़मीन नहीं थी। हर हार एक ऊब दे जाती और हर ऊब के साथ में ख़ुद पर एक और सिकंजा कसता जाता। जिन लोगों की लकीर और जीने की परिभाषा पर मैं चला जा रहा था जो ख़ुद उन नियमों से कहीं परे जा चुके थे। मैं मन ही मन उनसे लड़ने लगा। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं छला गया हूँ। 

पर अब जो यह बदलाव की आहट आ रही है यह उसी परिभाषा के बदलने से और लकीर के ग़ायब होने से आ रही है। इस लगातार बदलती दुनिया में मैं भी लगातार बदल रहा था। ये बस मेरा डर था मैं जिसमें क़ैद था। मेरा डर जो मुझे ये देखने नहीं देता था कि मेरा अस्तित्व मेरी परिभाषाओं से परे था। जैसे-जैसे मुझे ये बात ज़्यादा दिखने लगी मेरा उस लकीर से भरोसा कम होता गया। वो धीरे धीरे ग़ायब होती गयी। मुझे शायद अब उसकी ज़रूरत नहीं थी। यह बदलाव की आहट बता रही है कि मैं अपनी जीत-हार, प्रेम-दोस्ती, जीवन-मरण की अपनी परिभाषाएँ बना सकता हूँ। 

मेरे होने से पहले, होने की परिभाषा तय करना ऐसा ही था जैसे कुछ थोड़ा सा लिखकर अपनी आवाज़ ढूँढना। मुझे तो बस लगातार लिखते चले जाना था। ठीक वैसे जैसे मुझे लगातार जिए जाना था। लिखने की और जीने की परिभाषा मेरे किए से निकलती और फिर मुझे ख़ुद को किसी और के पदचिन्हों में डालकर ख़ुद से ख़ुद की गवाही के लिए मौजूद होने की ज़रूरत नहीं  होती।