Thursday 25 February 2016

कुश की चटाई

तुम चटाई हो
कुश की
जिसे अपने साथ लिए
दिन भर भटकता हूँ
किसी जोगी की तरह
गाता हुआ एक राग
विरह का...

हर शाम बिछाकर
लेटता हूँ जिसे
थक कर चकनाचूर होने पर
तो नाप लेता हूँ
तुम्हारा हर कोना
बंद आँखों से ही

सुबह...
तुम्हारे कुछ निशान
जब छपे मिलते हैं
मेरे शरीर पर
काफी देर तक उन्हें
छूता, सहलाता हुआ
खुद में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूँ।

- नीरज पाण्डेय 

Wednesday 24 February 2016

इस शोर की 'आवाज़' कहाँ है?

बातें इतनी सारी हैं कि कहाँ से शुरू की जाए समझ नहीं आ रहा। बहुत सारी बातों के बहुत से अनजाने पहलू, जिनको समझना मेरे लिए अभी बाकी है। चारो तरफ शोर इतना मचा हुआ है कि इसके बीच इस छोटी सी बात के खो जाने का डर भी है। यह क्या सही और क्या गलत वाली बात नहीं है और ना ही किसी पर उंगली उठाने की कोई कोशिश। यह लिखना अब एक मजबूरी है। 

हर रोज़ सुबह उठते ही ट्विटर पर ख़बरों का संक्षेपण ऐसे मिलता है जैसे रोज़ सुबह हमें एक विवाद (बहस नहीं) का टॉपिक दे दिया गया हो। जिसपर या तो हमें उसके पक्ष में बोलना है या इसके 
विरोध में। यह संक्षेपण ट्विटर से फेसबुक तक आते आते उन्हीं विषयों पर लम्बा चौड़ा लेख बन जाता है। लेख के हर तरफ भर भर के कमेंट्स दिखते हैं। जिसके जरिए हम दूसरे की बात को गलत साबित करने की कोशिश करते नज़र आते हैं... बिना सुने-बिना समझे। हम सब एक दुसरे से विवाद कर रहे होते हैं पर बात कोई नहीं करता। बिल्कुल वैसे ही जैसे स्कूल के दिनों में ग्रुप डिस्कशन में होता था। उसमें भी कोई किसी की सुनता कहाँ था। हमारे बोलने के बीच इतना भी अंतराल नहीं होता था, जिसमें रुक कर हम यही सुन लें कि हम कह क्या रहे हैं। और इसी वजह से क्लास टीचर को वो ग्रुप डिस्कशन के नाम पर हो रहा मच्छी बाज़ार बर्खास्त करना पड़ता था। पर अब कोई क्लास टीचर नहीं है। शायद इसीलिए एक विवाद तब तक चलता है जब तक हम किसी नए विवाद की पूँछ नहीं पकड़ लेते। ऐसा नहीं है कि मैं कभी ऐसे किसी ऑनलाइन विवाद या बहस का हिस्सा नहीं बना हूँ, ये मैंने भी किया है और शायद इसी वजह से अब 'बहस करने' और 'बात करने' के बीच के फर्क को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। 

पिछले कुछ दिनों से ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो चिंताजनक है। मेरे कम न्यूज़ देखते हुए भी यह 'बहुत कुछ' कहीं ना कहीं से दिख ही जाता है। पहले भी हमारे देश में समाज में ऐसा काफी कुछ होता आया है जो व्यवस्था और खासकर हमारे एक समाज के रूप में सवाल उठाने के लिए काफी है। और अब तक हमने खूब सारे सवाल उठाए भी हैं। पर क्या हमारे सवाल किसी जवाब की तरफ बढ़ भी रहे हैं? हमारे सवाल का जवाब भी एक नया और पुराने से ज़्यादा नुकीला एक सवाल ही है। देश कबड्डी का मैदान हो गया है जहाँ दो विचारधाराओं के बीच एक लकीर खींच दी गई है और फेसबुक उसका स्कोरबोर्ड बना पड़ा है। किसी भी विचारधारा का जीतना या हारना लाइक्स और कमेंट्स से निर्धारित होने लगा है।  इसीबीच अगर कोई चुप रह जाए या किसी बात का जवाब ना दे तो उसे हारा हुआ मान लिया जाता है। हम एक विचारधारा को लेकर दूसरी विचारधारा रखनेवालों को पछाड़ने लिए पहले से रटी रटाई लाइन रटते हुए टूट पड़ते हैं। जो हमारे कुछ नया सोचने या समझने की गुंजाइश को खत्म कर रहा है। ... और यहीं पर बात बहस और बहस से विवाद बन जाती है। मुद्दा चाहे जो भी हो सवाल आने से पहले हमारे जवाब तैयार रहते हैं।


दो दिन पहले मेरी एक दोस्त से बातचीत के दौरान मुझे हरियाणा वाली घटना के बारे में पता चला था और आज इसी वजह से एक दूसरे दोस्त की मुंबई से दिल्ली जाने वाली ट्रेन रद्द हुई तो इस मुद्दे के बारे में थोड़ा और जानने की उत्सुकता हुई|  मैं ऑनलाइन ये सब पढ़ ही रहा था कि इसी बीच एक दोस्त ने इनबॉक्स में JNU से रिलेटेड एक लिंक भेजा। इसी वीडियो भेजने के साथ साथ उसने यह भी बताया कि वह इस वीडियो में बात करने वाला फलाना व्यक्ति उसे दूसरे फलाना व्यक्ति से ज़्यादा समझदार लगता है। अगर इस बात की तह में जाया जाए तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि अब हम (हम मतलब हम सब ,मेरा दोस्त तो बस एक उदाहरण है।) बस ऐसे व्यक्ति या चेहरे तलाशने लग गए हैं जो हमारे पूर्वाग्रहों को और मजबूत कर सकें। क्योंकि बातें हमें वही करनी हैं जो हम पहले से सोच कर बैठे हैं। हमारी तथाकथित समझदारी और बेवकूफ़ी दोनों एक ही जुलूस का हिस्सा हो गए हैं, एक ही जैसे कपड़ों में... हम समझदार बनते बनते इतनी बेवकूफ हो गए हैं कि किसी एक चेहरे को देश से बड़ा समझ कर पार्टीबाज़ी करने से बाज़ नहीं आ रहे। तिरंगे की बात करते करते हम अलग अलग रंगों की बात करने लगे हैं। 
...या तो गलती सत्ताधारी दल की है या विपक्ष की... हर चीज़ को या तो सफ़ेद पेंट किया जा रहा है या काला, या तो तुम देशद्रोही हो या देशभक्त...

पिछले महीने मेरे साथ भी हुई पीवीआर वाली घटना में मेरा सबसे बड़ा रोना यही था कि आखिर दोनों दल के लोग जो भले ही मेरी तरफ से बोल रहे थे या मेरे विरोध में... आपस में बात क्यों नहीं कर रहे। क्यों उस शाम वो सिनेमाघर भी एक छोटा सा फेसबुक बन गया था, जहाँ पांच - सात लोगों का अलग अलग समूह एक दूसरे को गलत साबित करने में कुछ भी बोले जा रहा था। सच बताऊँ तो जितनी ख़ुशी मुझे इस बात की थी कि चलो कुछ लोग हैं जो मेरी तरफ से   बोलने के लिए आगे आये हैं उतना ही दुःख इस बात का भी था कि सब बस बोलना ही चाहते हैं। सुनना और समझना कोई नहीं। हमें बोलने की इतनी जल्दी है कि क्या हम जो खुद कह रहे हैं वही समझ पा रहे हैं।  

लगता है हमारे पास वक़्त की कमी हो गई है कि थोड़ी देर रुक कर साँस ले ले, थोड़ा सोच लें कि आखिर हम किस बात के लिए इतना उत्पात मचायें पड़े हैं। ...और आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। हम सबका देश के प्रति इतना प्यार उमड़ रहा है कि देश को बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा है। बुद्धिजीवी और देशभक्त होने के नाम पर हम लोग ऐसी ऐसी हरकतें करने पर उतारू हैं जो हमें उस व्यक्ति के बराबर में लाकर खड़ा कर रही हैं जिसे हम बेवकूफ कहते रहे हैं। 

एक बात और... किसी के कुछ भी अलग बोलने पर हम उसे एक विशेष प्रकार का तमगा दे देते हैं और फिर खुश होते हैं कि इस तमगे का काट तो है हमारे पास, हम फिर से जीत गए। क्या हमारी सारी वैचारिक लड़ाई बस सामने वाले को गलत साबित करने की है? या इसका कुछ बड़ा मतलब भी है? हम खुद को सही दूसरे को गलत साबित करने में इतने आगे चले आए हैं कि हमने ये भी टटोलना बंद कर दिया है कि आखिर ये बात शुरू क्यों हुई थी। कहीं हम एक विशेष चीज़   समुदाय या वर्ग से नफरत करते करते वैसे ही तो नहीं बनते जा रहे? और ये सवाल हम दोनों पालों में बटें लोगों को खुद से पूछना होगा कि क्या हम बीच में खींची लकीर को नज़रअंदाज़ कर एक दूसरे के पक्ष को थोड़ा समझने और सुनने को तैयार हैं? 

आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है