तुम चटाई हो
कुश की
जिसे अपने साथ लिए
दिन भर भटकता हूँ
किसी जोगी की तरह
गाता हुआ एक राग
विरह का...
हर शाम बिछाकर
लेटता हूँ जिसे
थक कर चकनाचूर होने पर
तो नाप लेता हूँ
तुम्हारा हर कोना
बंद आँखों से ही
सुबह...
तुम्हारे कुछ निशान
जब छपे मिलते हैं
मेरे शरीर पर
काफी देर तक उन्हें
छूता, सहलाता हुआ
खुद में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूँ।
- नीरज पाण्डेय
कुश की
जिसे अपने साथ लिए
दिन भर भटकता हूँ
किसी जोगी की तरह
गाता हुआ एक राग
विरह का...
हर शाम बिछाकर
लेटता हूँ जिसे
थक कर चकनाचूर होने पर
तो नाप लेता हूँ
तुम्हारा हर कोना
बंद आँखों से ही
सुबह...
तुम्हारे कुछ निशान
जब छपे मिलते हैं
मेरे शरीर पर
काफी देर तक उन्हें
छूता, सहलाता हुआ
खुद में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूँ।
- नीरज पाण्डेय
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