कई दिनों का सोया वो फिर
से जाग गया जैसे अधकची नींद में था. झट कर के ऐसे उसने अपनी उपस्थिति दर्ज की जैसे
वो कभी सोया था ही नहीं. वो एक घाव सा था, जिसे फिर से छेड़ दिया गया हो... बहता
हुआ घाव, बज्ज कर के फूटता हुआ...
जैसे एक लकीर सा खून फूटता हुआ बह पड़ता है, बिल्कुल वैसे. उसने उसे छूकर देखने की कोशिश की पर छू नहीं
सका, वो उसकी नज़रों से गायब हो
चुका था पर उसकी टीस अभी भी वैसे ही मौजूद थी.
उसने उसके आसपास दीवारें
बांध रखीं हैं... उन्हीं का एक ईंट निकल आया हो जैसे और कोई शीतलहर अन्दर तक अपने
पूरे दबाव के साथ घुस रही हो, सायं सायं करते
और शरीर छेद कर हड्डियों तक पहुँच रही हो. उसमे कट-कटाते दांत जोर से भींच लिए थे.
वो खड़ा था वहीँ और इंतज़ार कर रहा था इसके गुज़र जाने का... पर कब तक.
हैरानी की बात यह थी कि
इसे हुए, घटे, गुज़रे एक वक़्त होने को है, पर अभी अभी यह अचानक ऐसे कौंध गया जैसे अभी भी
वहीँ कहीं छिपा हो. इस कौंधने वाली टीस से उसे हिला कर रख दिया था. उसने टीस के
चेहरे पर गौर से देखा जैसे उसका सच देखने की कोशिश करता हो... वह सोचने लगा “मुझे
सच्चाई कुछ और दिखती है. जानता हूँ वो वैसा नहीं जैसा दिखता है, या फिर वो वैसा ही है जैसा दिखता है...पर मैं
ही उसे वैसा नहीं देख पाता? मैं अपनी कल्पना में ही रहता हूँ क्या? क्या मैं हमेशा अपनी कल्पना में ही था? क्या कल्पना और सच में भेद नहीं कर पाता?
क्या हम सच और कल्पना को किसी सूप में फटककर
अलग अलग नहीं कर सकते? कि ये रही कल्पना
और ये रहा सच. जीवन कितना सरल हो जाता...पर शायद नहीं, पता नहीं ”
अब हर बार उसे देखते हुए
जब सच दिखता है तो वो अपनी कल्पना की एक लकड़ी तोड़कर व्यावहारिकता की आग में डाल
देता है, हर बार... बार बार... वो
धूं धूं कर के जल उठती हैं. ये वो लकड़ियाँ हैं जिनसे वो अपना घर बना सकता था. जिन्हें
उसने एक सुखद भविष्य की कल्पना करते हुए इक्कठा किया था. अब जलते हुए इनके पोरों
के जलने पर चट्ट चट्ट की आवाज़ आती है. उनकी जलने की चट्ट की आवाज़ उसके अन्दर भी
टूटती है. उस लकड़ी के जल जाने के बाद भी देर तक इनका धुँआ दूर ऊँचाई तक उठता दिखता
है. उसके धुएँ में गुज़रे वक़्त की ख़ुशबू है, जो इसे बार बार जगाती है. वो कब ख़त्म होगा? शायद आखिरी लकड़ी के टूटकर पूरी तरह जलने तक. उस
आखिरी लकड़ी के जलने में भी जाने कितनी चट्ट चट्ट की आवाज़ें और जाने कितना धुँआ
शामिल होगा, वो सब उसे वहीँ खड़े रहकर
सुनना होगा, देखना होगा और जीना होगा. पर अभी...
उसे भी पता नहीं ऐसी कितनी लकड़ियाँ अभी भी उसके पास जिंदा बाकी पड़ी हैं...
No comments:
Post a Comment