Monday 29 January 2018

अगला स्टेशन...

'अगला स्टेशन ख़ार रोड...next station Khar Road' की आवाज़ उसके कानों में पड़ी और उसका ध्यान फ़ोन से हट कर भटकता हुआ बीते सालों में जा पड़ा।वो काम के सिलसिले में अक्सर अकेला ही भागता था तो लोकल में भी अकेला ही बैठा था। कुछ करने को था नहीं तो फ़ोन की देखी जा चुकी चीज़ों में ही बार बार कुछ नया देखने की कोशिश कर रहा था। 'अगला स्टेशन ख़ार रोड...next station is Khar Road' ख़ार स्टेशन से जुड़ा हुआ एक क़िस्सा उसके मुंबई के शुरुआती दिनों के क़िस्से से जुड़ा हुआ था। दरसल ख़ार में एक जगह हुआ करती थी 'HIVE'। यह मुंबई के आर्ट को सपोर्ट करने वाले वेन्यूज़ में से एक था। यहाँ शाम में शहर के आर्टिस्ट टाइप लोग इकट्ठा होते, चाय-कॉफ़ी पीते, सुट्टा फूँकते, बतकही करते और पर्फ़ॉर्म कर के अपने अपने रास्ते वापस निकल जाते। ऐसी ही कुछ शामों में एक शाम उसकी मुलाक़ात उस लड़की से हुए थी जो किसी आँधी की तरह तेज़ी से आकर उससे भी ज़्यादा तेज़ी से उसकी ज़िंदगी से जा चुकी थी। वो यह सब एक साथ फिर से बटोरने की कोशिश कर रहा था कि ख़ार स्टेशन आ गया। उसने खिड़की से झाँक कर बाहर देखा। सब कुछ पहले जैसा ही था... बदलता भी क्या? ट्रेन थोड़ी देर रुकी और फिर चल पड़ी स्टेशन छोड़ते हुए उसे कई लोग प्लैट्फ़ॉर्म पर दिखे पर उसकी नज़र साथ चलते, बैठे कपल्स पर पड़ी। कैसे बदलती है ज़िंदगी...नहीं? सबकुछ वैसा ही रहतहुए भी बहुत कुछ बदल जाता है। क्या इसकी भी बदल जाएगी जो साथ चल रहे हैं...?

ख़ार स्टेशन इसलिए भी ख़ास था कि कुछ साल पहले इसी स्टेशन से अलगे तीन स्टेशनों तक उसने पहली बार उस लड़की के साथ सफ़र किया था और यही वो वक़्त था जब उनके होने वाले संबंध की हल्की परछाईं उनके साथ हो ली थी। उस दिन वो आख़िरी स्टेशन पर उसे छोड़ने के बाद ऐसे चली गई थी जैसे फिर कभी मिलना नहीं होगा। पर मिलना हुआ... कई बार। ऐसा होगा उसने ऐसा सोचा भी कहाँ था और और भी बहुत कुछ जिसका उसे अनुमान भी कहाँ था। वो वह सब सोच ही रहा था कि अगला स्टेशन आ गया, सैंटाक्रूज़। जैसे प्लाट्फ़ोर्म पर ट्रेन रुकी थी वैसे ही उसके ख़याल भी थोड़ी देर के लिए रुक से गए। वो जो अभी महसूस कर रहा था वो क्या था? उसे ऐसा क्यूँ लग रहा था कि वो किसी और की चल रही कहानी का दर्शक हो बस। सोचा तो उसने कभी ऐसा भी नहीं था पर ये भी हो रहा था। ट्रेन फिर से चल पड़ी थी, खिड़की से हवा उसके चेहरे पर लग रही थी। उसने वो सब याद करने की कोशिश की जो उस शाम इन तीन स्टेशनों के बीच घटा था पर उसे कुछ साफ़ साफ़ याद नहीं आया। एक हल्की सी जान पहचान उस लड़की से और बहुत कुछ कहने को जो पता नहीं कहाँ से आ रहा था...बस इतना ही याद रह गया था उसे। ताज़्ज़ुब इस बात का कि जब यह सबकुछ घट रहा था उस पल में कितनी सच्चाई थी...और अब वही हथेली में आयी हवा जैसे फुर्र... अपने दिमाग़ के रची हुई दुनिया के चिथड़े होते उसने सामने देखे थे। किसी के साथ होकर ख़ुद को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि जब साथ छोड़कर कोई जाता है तो ख़ुद को ढूँढना और फिर ख़ुद तक लौटना कैसे होगा का छोर नहीं मिलता। वो अपने ही सपनों से डरने लगेगा उसने कभी नहीं सोचा था। उसके टूटते सम्बंध के साथ अपने अंदर एक शहर को डूबता हुआ महसूस किया था, टूकड़ों में। जगहें जहाँ वो अपने सम्बंध के साथ घूमता था वहाँ एक जगह ख़ाली सी काफ़ी वक़्त तक दिखती रही थी।

विलेपार्ले स्टेशन। यहाँ ट्रेन जितनी देर रुकी वह भी उतनी देर रुका रहा। ऐसा लगा जैसे ट्रेन का रुकना और चल देना किसी दो लोगों के सम्बंध जैसा ही है। ट्रेन चली जाती है और स्टेशन वहीं खड़ा कुछ नहीं कर सकता, स्टेशन हर बार छूटा रह जाता है। तारीं कितनी देर रुकेगी और कब आएगी यह तो ट्रेन ही निर्धारित करती है।स्टेशन तो बस खड़ा है। वो चुपचाप अपने आस पास देखता हुआ ये सोचने लगा कि  कितना अजीब है सबकुछ। ख़ुद के बारे में उसे भी कहाँ इतना पता था। ख़ुद के टूटे हुए एक-एक टूकड़ों को उठा कर वक़्त ने उसे ऐसा कर दिया था कि वो कुछ और ही था। किसी 'शिप ऑफ़ थिसियस' की तरह। जिस सम्बंध के बिना उसे जिस शहर का कोई अस्तित्व नहीं लगता था वो उसके ना होने में कितना सहज हो गया था। शहर वापस आ गया था। एक पल वो उसे यह सब चमत्कार ही लगा... या फिर यह सब शायद ऐसा हो होता है और होता रहा है हरदम। वैसे ये बात सच थी कि  ये कहानी उसकी होते हुए भी उसकी नहीं थी। वो, वो नहीं था। 

थोड़ी देर में ट्रेन में अनाउन्स्मेंट हुई 'अगला स्टेशन अंधेरी...'। उसकी बीती कहानी में वो तीसरा स्टेशन अंधेरी ही था जहाँ ख़ार से साथ आते हुए वो उतर गयी थी। पर वो वापस आयी उसी ट्रेन की तरह जिसके आने से किसी स्टेशन का अस्तित्व पूरा होता हो। अंधेरी स्टेशन पर वहाँ से आगे जाने वाले कुछ लोग चढ़े, उनको देखकर वो उनकी जी हुई कहानियों की कल्पना करने लगा फिर कुछ सोच कर वहीं उतर गया। पीछे पलट कर देखा, सब वैसा ही था। एक जाना पहचाना बुक स्टॉल कुछ दूरी पर खड़ा था। जहाँ वो अक्सर उस लड़की का इंतज़ार किया करता था और वहाँ से दोनों शहर में साथ निकलते थे। उसके पीछे कुछ दूरी पर सीढ़ियाँ थीं जो ईस्ट और वेस्ट में निकलने वाले ब्रिज से जुड़ती थीं। वो उस सफ़र वाले दिन उन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ कर गयी थी। दूसरी तरफ़ एक बड़ा ब्रिज था जो मेट्रो को जोड़ रहा था। वहाँ उसने अपने सम्बंध को डूबते हुए महसूस किया था। सब वैसा ही था पर बदला हुआ। वो वहाँ खड़ा होकर कुछ दोहराने की कोशिश करने लगा पर सब धुँधला। बस यादों की हल्की हल्की रेखाएँ थीं, ख़ुद का जिया हुआ भी ख़ुद का नहीं रहा था और उसे इस बात की ख़ुशी थी। वो बस इस वक़्त पर खड़ा होकर उस तकलीफ़ में पड़े लड़के को गले लगाकर बस ये कहना चाहता था कि 'सब ठीक है और जो ठीक नहीं है वो हो जाएगा'

Monday 15 January 2018

क्या ऐसी वर्कशॉप का कोई फ़ायदा होता है?

पिछले तीन दिन मुंबई के जाने माने पटकथा लेखक और मेंटॉर "अंजुम राजाबलि (सर)" की वर्कशॉप में गुज़री। आदतन इंस्टाग्राम पर उससे जुड़ी हुई कुछ एक स्टोरीज़ भी डालीं तो कई लोगों ने पूछा कि ‘क्या ऐसी वर्कशॉप का कोई फ़ायदा होता है?’ इस बात का इस वक़्त ठीक ठीक जवाब दे पाना वक़्त से बेमानी होगी। क्योंकि कोई भी कला धीरे धीरे अपना आकर लेती है जिसपर हम एक नज़र रख सकते हैं बस। तो ‘क्या इससे फ़ायदा होता है…?' का जवाब मेरे पास अभी तो नहीं है पर मैं इससे जुड़े अनुभव के बारे में तो बात कर सकता हूँ।

मुंबई में साथी लेखकों को अक्सर कहते सुना है कि 'अपनी ईमानदारी बचा कर रखनी है यार…’ । मेरी भी कोशिश यही रहती है कि अंदर वो लड़का ज़िंदा रहे जिसे ख़ूब सारा लिखने का शौक़ था, जहाँ से लिखने की शुरुआत हुई थी… जहाँ से बात शुरू हुई थी वैसा ही बन कर रहा जाए। ऊपर से चाहे कितने भी 'हो-शा’ हो जाए, कैसे भी रंग बिरंगे जूते पहन लूँ या कैसी भी हेयरस्टाइल रख लूँ पर अंदर बैठा लड़का वैसा ही रहे। बाज़ार में बाज़ार के हिसाब से खेले पर जब लिखने बैठे तो वही लड़का हो जाया जाए।

यह मुंबई के लगभग हर राइटर की कोशिश है कि अपनी कला के साथ ईमानदार रहे क्योंकि यहाँ भटक जाने के सारे बहाने मौजूद हैं । पर वक़्त परिस्थितियों के बहाने हमें बदलता ही है। एक बड़ा बदलाव जो एक राइटर के तौर पर मैंने ख़ुद के अंदर देखा है वो राइटिंग का क्राफ़्ट सीखते हुए आया है। धीरे धीरे अपने अंदर से आ रहे आर्ट को कैसे क्राफ़्ट में बाँध कर पेश किया जाए कि वो और सुंदर लगे उसकी कोशिश… कई किताबें पढ़ीं हैं, ऑनलाइन भी बहुत से रीसॉर्सेज़ हैं, दोस्तों से सीखा है, ख़ुद ग़लतियाँ कर के सीख रहा हूँ... एकदम किसी बढ़ई की तरह नाप तौल के लिखने की कोशिश भी करी है। इससे काम ज़रूर सुंदर होता है पर डर यह लगता है कि इसे सजाने के चक्कर में ये कहीं अपनी ईमानदारी ना खो दूँ। वो ईमानदारी जहाँ से बात शुरू हुई थी। ये ईमानदारी मेरी नहीं उस लड़के की है जो चुपचाप अपनी डायरी में लिखता था अपनी ख़ुशी के लिए...कई बार स्क्रीनराइटिंग सीखने की कोशिश करते हुए बात इस हद तक मकैनिकल हो जाती है कि फ़िल्म में चौबीसवें मिनट पर यह आना चाहिए और पैतालिसवें पेज पर वो, फिर साठवें पेज पर एक ऐसा सीन होना ही चाहिए…अरे बाप रे…

इस प्रक्रिया में मुझे हमेशा यह डर लगता था कि कहीं क्राफ़्ट सीखने के चक्कर में मैं आर्ट को तो नहीं खो दूँगा? कहीं बहुत मकैनिकल तो नहीं हो जाऊँगा? पर क्राफ़्ट सीखना भी ज़रूरी है पर कहाँ तक और किस दिशा में? अंजुम सर की वर्कशॉप यही बैलेन्स सीखती है। इस दौरान इस बात का यक़ीन तो होता है कि कला के बीज को बचाते ॰ हुए उसे एक ख़ूबसूरत साँचे में डाला जा सकता है। जिस तरह से वो किसी कहानी को समझते हैं, देखते हैं या देखने की सलाह देते हैं वो मेरे अंदर के लड़के को बचाता है। उस लड़के को जो उतना गणित नहीं जानता और पेट से लिखता है, दिमाग़ से नहीं। उसे एक साहस और विश्वास मिलता है। सबसे ज़्यादा ज़ोर वो कहानी और किरदारों को महसूस करने पर देते हैं। उनका तरीक़ा विश्वास दिलाता है कि डरो मत जो महसूस करते हो उसे लिखना शुरू करो और अगर ईमानदारी से लिखते हो तो सब अपने आप सही होने लगेगा, वो सुर पकड़ में आ जाएगा। वो कहते हैं कि ‘ये सब जो मैं बता रहा हूँ इनमें से कोई भी पत्थर की लक़ीर नहीं है, सुन लो समझ लो और अपनी कहानी के हिसाब से इसका इस्तेमाल करो।’ यही बात कहानी में कहानी के भरोसे को बचा कर रखती है क्योंकि हर कहानी अलग है। हर कहने वाला अलग है और हर कहने वाले के अंदर का लड़का/लड़की अलग हैं और अगर उसे बचा लिया गया तो उम्मीद हैं हम उतने ही सहज बने रह पाएँगे जहाँ से बात शुरू हुई थी और जो फ़ायदा है वो वहीं से निकल कर आएगा।

Tuesday 9 January 2018

आजकल: नौकरी छोड़ने के बाद एक महीना

साल की पहली किताब पढ़कर ख़त्म कीकुछ एक हफ़्ता और पाँच या छः सिटिंग्स मेंमेरी स्पीड के हिसाब से ये किताब जल्दी ख़त्म हो गईसमझ में भी आई और कई दोस्तों को मैंने रेकमेंड भी कर दीफिर कल दूसरी किताब पढ़ना शुरू किया और ऐसा लगा जैसे इस किताब के पन्नों पर स्पीड ब्रेकर लगे हों। ऐसा होता है ना जैसे क़रीब क़रीब पूरा पन्ना पढ़ गए और समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है, कुछ वैसा। दो तीन बार उसी पन्ने को ठीक से समझ समझ कर पढ़ने की कोशिश करी। पर...पर...पर। पर कुछ मेरे अंदर ही था जो लगातार अपनी धुन पकड़े हुआ था, वो अपनी ही स्पीड में चल रहा था। मैं उसे कुछ देर अपने साथ लेकर चलता पर वो कुछ देर के बाद अपनी स्पीड में भाग जाता...निकल जाता हाथ से। बीच बीच में यह ख़याल भी आता कि ‘रात के एक बज गए हैं अब सो जाना चाहिए क्योंकि सुबह नौ बजे अंधेरी पहुँचना है। उसके लिए सुबह सात बजे तो उठना पड़ेगा। नींद भी पूरी होनी चाहिए नहीं तो पूरे दिन चीडचीडे रहोगे...’

नौकरी छोड़े एक महीने से थोड़ा ज़्यादा हुआ है। पुराने  ऑफ़िस की कुछ ज़्यादा याद नहीं आ रही क्योंकि अभी उसका ज़्यादा स्कोप है नहीं। मेडिटेशन भी वैसा ही चल रहा है, रोज़ सुबह चालीस मिनट...जैसा पहले चल रहा था। बाहर की दुनिया भी वैसी ही है जैसी थी और अगर सच बोल दूँ तो शायद पहले से बेहतर ही है...पर अंदर कुछ है जो थोड़ा बदला बदला सा लगता है। जल्दी में रहता है। यह लाइन लिखते हुए भी उसने जल्दी दिखाई। ऊपर देखा तो लगा बस इतना ही लिखा। कहाँ की जल्दी है ये...? कहाँ जाना है मुझे...? और सबसे बड़ा सवाल क्यूँ है ये?

शायद इसका जवाब मेरे नौकरी छोड़ने में ही है। शायद... पर अभी ठीक ठीक तो नहीं कह सकता। मुंबई के शुरुआती दिनों जैसे अब पैसों और काम की क़िल्लत थी वैसी अब नहीं है (इस बात का शुक्रिया है)। अक्सर व्यस्त ही रहता हूँ। सपने भी काम के ही आते हैं पर शायद अब मैं सब समेटने में लगा रहता हूँ। जो भी आस पास दिखता है सबकुछ। लोग, जगहें, बातें, काम... पूरा दिन। एक साथ कई काम कर रहा हूँ और दिमाग़ एक से दूसरे काम पर स्विच होता रहता है। दिन के जैसे तीन या चार साँचे हों कि ये इसका, ये इसका और इस वाले में में ये करूँगा...

ब्रश करते हुए नहाने के बारे में सोचता हूँ...नहाते हुए मेडिटेशन के बारे में... और मेडिटेट करते हुए दुनिया भर के ख़याल (जिनका ज़्यादातर हिस्सा काम से जुड़ा होता है) आता रहता है। यह शायद दिन को अच्छे से इस्तेमाल करने की होड़ है या बस एक लालच कि सब समेट लूँ। एक दिन में कितना जिया जा सकता है? एक दिन हमें कितना कुछ दे सकता है? इन सवालों के कोई पुख़्ता जवाब नहीं है। यह जानते हुए कि सब ठीक है और आगे भी ठीक ही होगा मैं ‘आज’ पर ऐसे झपटता हूँ जैसे इसे कल के लिए बचा कर रख लूँ। मैंने ख़ुद को बैठे बैठे कई बात पैर हिलते हुए पकड़ है और फिर ख़ुद से पूछा है ‘किस बात की जल्दी है?’ फिर ख़ुद को ही खींच कर वहाँ वापस ले कर आता हूँ। जैसा अभी किया, बिल्कुल अभी अभी।

ख़ैर, नौकरी छोड़ कर फ़्रीलान्स करने से जीने का तरीक़ा और इसके समीकरण बदले तो हैं। यह घर बदलने जैसा है। पुराने घर का कोना कोना पता था। अंधेरे में भी चल कर जाओ तो फ़र्श कहाँ ऊँचा है कहाँ नीचा है, कहाँ मोड़ है सब दिमाग़ में छपा था। अब घर बदल कर नए घर में आए हैं। सालों से किराए के घर में रहने की ऐसी आदत पड़ी है कि इसके दरवाज़े पर अपनी नेम प्लेट लगाते हुए भी डर रहे हैं। इस नए घर में जगह ज़्यादा है तो ज़रा भटक जाने की संभावना भी उतनी ही है। नए घर और परिवेश में आदमी को ख़ुद से ख़ुद को पालना होता है... यह बात भी इसी उम्र में समझ में आ रही है। वाह! यह एक नयी शुरुआत की घबराहट हो सकती है या फिर ख़ुद के कल को सुरक्षित करने के लिए दिमाग़ द्वारा दिए जाने वाले संकेत... पता नहीं। पर अभी इसी के साथ रहना है और इंतज़ार करना है कि कब इस नए घर से थोड़ी जान पहचान हो जाए। इसके फ़र्श का उतार चढ़ाव, मोड़ समझ में आ जाएँ। तब जाकर ख़ुद के दिमाग़ में चलने वाली रेस को थोड़ा आराम मिलेगा शायद और अगली किताब को उसी स्पीड में पढ़ पाउँगा जिस स्पीड में वो मेरे सामने ख़ुद को खोलना चाहती है।