Tuesday 9 January 2018

आजकल: नौकरी छोड़ने के बाद एक महीना

साल की पहली किताब पढ़कर ख़त्म कीकुछ एक हफ़्ता और पाँच या छः सिटिंग्स मेंमेरी स्पीड के हिसाब से ये किताब जल्दी ख़त्म हो गईसमझ में भी आई और कई दोस्तों को मैंने रेकमेंड भी कर दीफिर कल दूसरी किताब पढ़ना शुरू किया और ऐसा लगा जैसे इस किताब के पन्नों पर स्पीड ब्रेकर लगे हों। ऐसा होता है ना जैसे क़रीब क़रीब पूरा पन्ना पढ़ गए और समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है, कुछ वैसा। दो तीन बार उसी पन्ने को ठीक से समझ समझ कर पढ़ने की कोशिश करी। पर...पर...पर। पर कुछ मेरे अंदर ही था जो लगातार अपनी धुन पकड़े हुआ था, वो अपनी ही स्पीड में चल रहा था। मैं उसे कुछ देर अपने साथ लेकर चलता पर वो कुछ देर के बाद अपनी स्पीड में भाग जाता...निकल जाता हाथ से। बीच बीच में यह ख़याल भी आता कि ‘रात के एक बज गए हैं अब सो जाना चाहिए क्योंकि सुबह नौ बजे अंधेरी पहुँचना है। उसके लिए सुबह सात बजे तो उठना पड़ेगा। नींद भी पूरी होनी चाहिए नहीं तो पूरे दिन चीडचीडे रहोगे...’

नौकरी छोड़े एक महीने से थोड़ा ज़्यादा हुआ है। पुराने  ऑफ़िस की कुछ ज़्यादा याद नहीं आ रही क्योंकि अभी उसका ज़्यादा स्कोप है नहीं। मेडिटेशन भी वैसा ही चल रहा है, रोज़ सुबह चालीस मिनट...जैसा पहले चल रहा था। बाहर की दुनिया भी वैसी ही है जैसी थी और अगर सच बोल दूँ तो शायद पहले से बेहतर ही है...पर अंदर कुछ है जो थोड़ा बदला बदला सा लगता है। जल्दी में रहता है। यह लाइन लिखते हुए भी उसने जल्दी दिखाई। ऊपर देखा तो लगा बस इतना ही लिखा। कहाँ की जल्दी है ये...? कहाँ जाना है मुझे...? और सबसे बड़ा सवाल क्यूँ है ये?

शायद इसका जवाब मेरे नौकरी छोड़ने में ही है। शायद... पर अभी ठीक ठीक तो नहीं कह सकता। मुंबई के शुरुआती दिनों जैसे अब पैसों और काम की क़िल्लत थी वैसी अब नहीं है (इस बात का शुक्रिया है)। अक्सर व्यस्त ही रहता हूँ। सपने भी काम के ही आते हैं पर शायद अब मैं सब समेटने में लगा रहता हूँ। जो भी आस पास दिखता है सबकुछ। लोग, जगहें, बातें, काम... पूरा दिन। एक साथ कई काम कर रहा हूँ और दिमाग़ एक से दूसरे काम पर स्विच होता रहता है। दिन के जैसे तीन या चार साँचे हों कि ये इसका, ये इसका और इस वाले में में ये करूँगा...

ब्रश करते हुए नहाने के बारे में सोचता हूँ...नहाते हुए मेडिटेशन के बारे में... और मेडिटेट करते हुए दुनिया भर के ख़याल (जिनका ज़्यादातर हिस्सा काम से जुड़ा होता है) आता रहता है। यह शायद दिन को अच्छे से इस्तेमाल करने की होड़ है या बस एक लालच कि सब समेट लूँ। एक दिन में कितना जिया जा सकता है? एक दिन हमें कितना कुछ दे सकता है? इन सवालों के कोई पुख़्ता जवाब नहीं है। यह जानते हुए कि सब ठीक है और आगे भी ठीक ही होगा मैं ‘आज’ पर ऐसे झपटता हूँ जैसे इसे कल के लिए बचा कर रख लूँ। मैंने ख़ुद को बैठे बैठे कई बात पैर हिलते हुए पकड़ है और फिर ख़ुद से पूछा है ‘किस बात की जल्दी है?’ फिर ख़ुद को ही खींच कर वहाँ वापस ले कर आता हूँ। जैसा अभी किया, बिल्कुल अभी अभी।

ख़ैर, नौकरी छोड़ कर फ़्रीलान्स करने से जीने का तरीक़ा और इसके समीकरण बदले तो हैं। यह घर बदलने जैसा है। पुराने घर का कोना कोना पता था। अंधेरे में भी चल कर जाओ तो फ़र्श कहाँ ऊँचा है कहाँ नीचा है, कहाँ मोड़ है सब दिमाग़ में छपा था। अब घर बदल कर नए घर में आए हैं। सालों से किराए के घर में रहने की ऐसी आदत पड़ी है कि इसके दरवाज़े पर अपनी नेम प्लेट लगाते हुए भी डर रहे हैं। इस नए घर में जगह ज़्यादा है तो ज़रा भटक जाने की संभावना भी उतनी ही है। नए घर और परिवेश में आदमी को ख़ुद से ख़ुद को पालना होता है... यह बात भी इसी उम्र में समझ में आ रही है। वाह! यह एक नयी शुरुआत की घबराहट हो सकती है या फिर ख़ुद के कल को सुरक्षित करने के लिए दिमाग़ द्वारा दिए जाने वाले संकेत... पता नहीं। पर अभी इसी के साथ रहना है और इंतज़ार करना है कि कब इस नए घर से थोड़ी जान पहचान हो जाए। इसके फ़र्श का उतार चढ़ाव, मोड़ समझ में आ जाएँ। तब जाकर ख़ुद के दिमाग़ में चलने वाली रेस को थोड़ा आराम मिलेगा शायद और अगली किताब को उसी स्पीड में पढ़ पाउँगा जिस स्पीड में वो मेरे सामने ख़ुद को खोलना चाहती है।

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