Monday 28 September 2020

सुबह, सुबह जैसी

दो तीन हफ़्ते पहले मन थोड़ा थका थका सा लग रहा था। मुझे इसकी वजह बीस-बीस घंटे की intermittent fasting लगी। हो सकता है lockdown के दौरान बॉडी को proper nutrition ना मिल रहा हो। मैंने एक हफ़्ते का इंतज़ार किया और फिर कोकिलबेन हॉस्पिटल जाकर डॉक्टर से consult किया। Full body check-up कराया तो पता चला कि विटामिन B-12 और D हिले पड़े हैं। डॉक्टर ने कुछ supplements दिए, अब हालत में सुधार है। 


पर इस lockdown में इतनी सारी चीज़ें एक साथ चल रही थीं कि कुछ भी ठहरता हुआ नहीं लग रहा था। रोज़ एक जैसा ही दिन होता था, थका हुआ, और कुछ समझ में आए उससे पहले थोड़ा और ख़ाली करता हुआ निकल जाता। इसमें कोई उदासी नहीं पर एक थकान थी। नींद से जागने के वक़्त की थकान जैसी। कुछ दिनों के लिए मैंने रात के साढ़े दस बजे फ़ोन बंद करना भी शुरू कर दिया था और एक हफ़्ता जल्दी सोया भी फिर भी सुबह जल्दी उठना possible नहीं हो पा रहा था। आँख खुलती, आधा दिन ग़ायब होता और लगता जैसे मेरे हिस्सा का दिन मेरी ग़ैरहाज़िरी में कोई और उठा ले गया। हाँ मेरी पढ़ायी-लिखायी, ख़ुद से बातचीत, नयी फ़िल्में देखना, मेरे ख़ुद के ideas क्या हैं? यह सब बहुत सही दिशा में जा रहा था, वो अच्छी बात थी। पर जब दिन पर दिन हर एक दिन ऐसे ही निकलता जाता है जब लगने लगे कि कुछ ना कुछ छूट ही रहा है तो वो एहसास बहुत अच्छा नहीं होता। कई बार सोचा कि ब्लॉग पर कुछ लिख लूँ जो जीवन में चल रहा है, पर मैं किन्हीं कारणों से नहीं कर पाया। अब वो सब कुछ जो मैं दर्ज नहीं कर पाया मेरी faded memory में कैसे पड़े होंगे मुझे भी नहीं पता। जो गुज़र गया है मैं उसे नहीं संभाल पाया। मुझे हमेशा यह लगा है कि मुझे अपने जीवन को ज़रा और व्यवस्थित करना चाहिए और शायद वही एक रास्ता है कि मैं अपने जीवन और लेखन को जिस दिशा में ले जाना चाहता हूँ उधर लेकर जा सकूँ। सोशल मीडिया से मन बहुत भर गया है, इतना कि फ़ेस्बुक अकाउंट तो पूरी तरह से delete ही कर दिया और Instagram पर बस काम के लिए जाता हूँ। 


मैं सुबह सच में जल्दी उठकर सुबह का वक़्त ख़ुद को देना चाहता हूँ। नहीं चाहता कि मैं इस्तेमाल कर लिया जाऊँ अपने फ़ोन के द्वारा। एक बात और, इस lockdown के दौरान अलग अलग अनुभवों से एक बात और समझ आयी है कि अगर मुझे अपने लेखक को ज़िंदा रखना है तो मुझे उस लेखक की पहचान के पार जाना पड़ेगा। कुछ और... कुछ और बनना पड़ेगा ताकि मेरे होने का पूरा भार मेरे लेखक होने पर ना आए। इस वजह से मैं और भी कई चीज़ें जीवन के अनुभव के तौर पर तैयार करने की कोशिश में जुटा हूँ, जिसका पहला क़दम है अपने जीए जाने वाले अनुभवों को विस्तार देना। इस पर मैं कभी कोई लम्बी पोस्ट आराम से लिखूँगा।


ख़ैर, अब आता हूँ मुद्दे पर। कल हमारी फ़िल्म "आनी-मानी" से जुड़ी एक मीटिंग थी। उस सिलसिले में फ़ारूख से मिलना हुआ जो उस फ़िल्म में लीड भी है। उसके बाद एक दोस्त से मिला कुछ देर बातें हुईं। "आनी-मानी" की मीटिंग में जाने से पहले मेरे मैनेजर का फ़ोन गया एक jingle लिखने के सिलसिले में जिसकी deadline आज सुबह की थी। टाइम इतना कम था कि मैंने मीटिंग ऑटो में बैठे बैठे ही फ़ोन पर attend की। मैंने composer को कहा था कि रात के दस बजे तक मैंने उसे कुछ ना कुछ लिखकर भेज दूँगा। jingle की scratch tune मुझे मेल कर दी गयी थी। मुझे फ़ारूख से मिलने अंधेरी में इन्फ़िनिटी मॉल के पास  "Park Up Cafe" जाना था, जहाँ हमें एक और आदमी से मिलना था। 


मैं आदतन वक़्त से थोड़ा पहले ही पहुँच गया था। फ़ारूख का इंतज़ार करते हुए मैं tune सुन रहा था और brief और music के हिसाब से कुछ keywords मोबाइल में लिख लिए थे।  हमारी मीटिंग हुई, मैं एक और दोस्त से मिला और क़रीब आठ बजे तक फ़्री हो गया था। मैंने घर के लिए ऑटो लिया। अंधेरी से वापस लौटते हुए tune बार बार सुनी और घर पहुँचने तक jingle का एक ड्राफ़्ट लिख लिया था। घर पर आकर मैंने लिखा हुआ निधि (मेरी बहन) को सुनाया, उसे अच्छा लगा और फिर मैंने वो अपने composer को भेज दिया। कुछ देर बार उनका feedback आया। Feedback में शब्दों को थोड़ा सरल और conversational  बनाने की बात थी। मैंने एक ड्राफ़्ट और किया और jingle approve हो गया। रात में दस बजकर तीस मिनट हो रहे थे। मुझे काफ़ी अच्छा लग रहा था। दरअसल मुझे डर था कि कहीं यह काम करते हुए फिर से कहीं रात के दो या तीन ना बज जाएँ और फिर अगला दिन एक थकान के साथ शुरू हो। पर मुझे इस बात कि ख़ुशी थी कि मेरा लिखा उनके लिए काम कर गया। मन ख़ुश था, मैं उस ख़ुशी में अकेले कमरा बंद करके थोड़ी देर तक बैठा। सोचने लगा उस वक़्त के बारे में जब दुनिया  normal थी, मैं दिन में चार काम एक साथ करता था और फिर भी सुबह अच्छी होती थी। मैं बड़े दिनों बाद यह ख़ुशी जी रहा था, यह एक गति कि ख़ुशी थी। जीवन के जागते हुए अनुभवों की ख़ुशी, एक प्रवाह के निरंतर चलने की ख़ुशी। दोस्तों से मिलना, काम करना, कुछ पूरा हो जाता एक पूर्णता का एहसास... यह सब कुछ बस पीछले छः से सात घंटों के बीच हुआ था। मैंने ज़मीन पर अपना बिस्तर यह सोच कर लगाया कि कल सुबह जल्दी उठूँगा और दौड़ने जाऊँगा। पिछली बार मई में दौड़ा था, दो किलोमीटर, वो भी डरते हुए। मैं फिर से दस किलोमीटर भागना चाहता हूँ। पर अभी के लिए सुबह जल्दी उठ जाना ही एक बड़ी बात लगने लगी थी। 


ख़ैर मैंने सुबह पाँच बजकर चालीस मिनट का अलार्म लगाया और सो गया। रात में तीन बार नींद इस लालच में खुली कि कहीं सुबह तो नहीं हो गयी। तीसरी बार नींद पाँच बजे से दस मिनट पहले खुली थी।अब क्या ही सो पाउँगा मैंमैंने ख़ुद को कहा। पर थोड़ी देर आँखें बंद करके मैं बस लेटा रहा, फिर फ़ोन देखा तो पाँच बजकर बीस मिनट हो गए थे। मैं उठा, फ़्रेश हुआ, running gear पहने और छः बजे से पहले पहले मैं आज सड़क पर दौड़ रहा था। दस किलोमीटर तो नहीं पर हाँ मैं तीन ही भागा पर भागा। मुझे इस बात कि ख़ुशी है कि मैं ये कर पाया। 


दौड़ना, काम करते रहना और नए अनुभव तलाशना सब एक गति के सूचक हैं। गति जो जीवन है, जीवन जिसमें जीते जाने की चाह है। उम्मीद है धीरे धीरे मैं शायद वो व्यक्ति बन पाऊँ जो सुबह पाँच बजे उठ जाता है और जो अपने फ़ोन के द्वारा इस्तेमाल नहीं होता। वैसे मेरी एक्स रनिंग पार्ट्नर लाक्डाउन की वजह से अपने hometown नाशिक चली गयी है। उसके ऑफ़िस का एक Running contest शुरू हो रहा है जो 1st October से 31st December तक चलेगा। उसने मुझे उस group में हिस्सा बनवा दिया है। थोड़ी देर पहले ही उस contest की details आयीं हैं। मैं excited हूँ। इसी बहाने शायद में फिर से routine में वापस जाऊँ। देखते हैं ये सफ़र कैसा रहता है। ब्लॉग पर लिखता रहूँगा, ऐसी उम्मीद है और उम्मीद पर दुनिया क़ायम है।


मैं ख़ुश हूँ।