Monday 29 September 2014

सिगरेट सा वीकएंड...

इतने सारे दिनों के बीच
कुछ सिगरेट सा मिलता है ये वीकएंड,
होठों से लगा, थोड़ी देर कश लेकर
अपने सीने के अंदर उतार लेता हूँ|

घुलकर बहता है जब धुंवा इसका
मेरे जिस्म की नाड़ीयों में
मीटा देता है थकान पूरे हफ्ते की,
थोड़ा सुरूर आ जाता है,
थोड़ा सुकून आ जाता है|

कई बार आधी पी कर बचा लेता हूँ
इसका दूसरा हिस्सा,
कि, कभी तलब के वक़्त काम आएगी|

कई बार कम पड़ जाती है
ये दो दिनों की सिगरेट भी,
शायद अब इसकी लत पड़ती जा रही है,
ये अब आदत बनती जा रही है|

कई बार ना चाहते हुए भी
बूझा देना पड़ता है, उसे गरदन से मरोड़ कर
पास की रखी ऐश ट्रे में,
कि मंडे का बुलावा आ गया
अब सब छोड़कर, काम पर लगना होगा
अगली सिगरेट के इंतज़ार में|

सिगरेट सा, बिल्कुल सिगरेट सा
मिलता है ये वीकेंड|

© Neeraj Pandey

Tuesday 23 September 2014

एहसासों की पतंग.

बहोत देर से पड़ी थी कोने में ये चरखड़ी,
उठा कर बार, बार रख देता था.
अभी नहीं, अभी नहीं...

पतंग जो फट गई थी उड़ते उड़ते
रख दिया था उसे कोने में सहेज कर,
कुछ काग़ज़ों से चिपकाकर
कि कोई साथी आए,
कन्नी बाँधे और छत की दूसरी छोर तक ले जाकर
छोड़ दे हवा में इसे.

पर बेसबर सा मैं भी,
कहाँ चैन से बैठता
उड़ा दी अपनी पतंग,
तुम्हें दूर से ही देखकर.
खुली हवा में साँस लेने की कोशिश कर रही है अब ये,

अब थोड़ी ढील मैं छोड़ रहा हूँ.
थोड़ी हवा तुम उछालो,
कि एहसासों की इस पतंग को
नई उड़ान मुनासिब हो.

©Neeraj Pandey

Tuesday 2 September 2014

बांझ सोच

कुछ स्वमैथुन के मारे बेचारों को लगता है,
कि सूरज उनके लिंग के चक्कर काटता है,
क्योंकि वो किसी एक विशेष योनि की पैदाइश हैं.
ईश्वर से सीधा नाता है इनका,
और स्वर्ग में सीटें आरक्षित हैं इनकी.
जिस ईश्वर को इन्होनें कभी जाना ही नहीं
और ना ही जानने की कोशिश की
बस सच से आँखें मुन्दे हुए
अपनी ही दुनिया मे खुश हैं साले.

बांझ ज़मीन से दिखते है और उतने ही अनुपयोगी भी,
कि इनपर कोई नया ख़याल नहीं पनप सकता.
बस हर बात पर तान कर बैठ जाते हैं, उतावले,
अपने लिंग का आकार बताने को
जिसमें खुद इनका कोई योगदान नहीं.

ये कुछ सदियों पहले हुई
किसी दुर्घटना का परिणाम हैं,
पर हँसी आती है मुझको
इनको खुद पर इतना क्यों अभिमान है?

© Neeraj Pandey