Monday 31 July 2017

मेरे प्रिय लेखक.

तुम मेरे प्रिय लेखक हो। मुझे लगता था मैं ये तुमसे कभी नहीं कहूँगा क्योंकि हमारे यहाँ ज़िंदा लोगों को सम्मान देने की परंपरा थोड़ी कम है। यहाँ एक लेखक को सम्मान पाने के लिए सबसे पहले मरना पड़ता है या ग़रीब होना पड़ता है...तुम इन दोनों में कहीं खड़े नहीं दिखते। खैर मैं उस तरफ ना जाते हुए बात को तुम तक ही रखता हूँ। जब से तुम्हे पढ़ना शुरू किया मेरे लिए साहित्य का एक नया दरवाज़ा खुला...दरवाज़ा नहीं एक खिड़की, मेरे अंदर की खिड़की। तुम्हारा लिखा पढ़कर ऐसा लगता जैसे ये मेरी ही बात है। मैं हर रोज़ किसी रिचुअल की तरह तुम्हे पढ़ने लगा...इतना पढ़ा कि मेरी लिखावट में तुम दिखने लगे। लोगों ने कहा कि मेरा लेखन बेहतर हुआ है। कुछ वक्त तक यह बात अच्छी लगती पर धीरे धीरे मैं इससे बोर हो गया। लोग मेरे लिखे कि तारीफ़ करते तो मुझे लगता कि ये तो तुम्हारी तारीफ़ हो रही है। हाँ मुझे तारीफ़ पसंद है।
फिर बीच में एक वक्त ऐसा भी आया कि मैं तुम्हारी सोशल मीडिया प्रोफाइल को देखकर तुम्हे जज करने लगा। इसकी वजह यह रही होगी कि वो आदमी मुझे उस आदमी से बिल्कुल अलग लगा जिसका लिखा पढ़कर मुझे यह समझ नहीं आता था कि मैं भर गया हूँ या ख़ाली हो गया। मैंने तुम्हे अनफॉलो कर दिया।
इस बीच मैंने काफी कुछ नया पढ़ा, देखा,सीखा और लिखा। मेरी ज़िंदगी भी एक दौर से गुज़रते हुए एक दूसरे पड़ाव की तरफ़ बढ़ रही थी। तुम भी मेरे लिए अलग आदमी थे। तुम तक ना लौटने की सारी वजहें मेरे पास थीं। मैं अपनी सोच के दायरे से तुम्हे अभी भी जज कर रहा था...भयंकर।
पर एक दिन जब ठीक ठीक पता नहीं कि मैं खाली पड़ा था या बहुत भरा हुआ था, मेरे अंदर तुम्हारे लेखन तक पहुँचने की तलब उठी। मैंने तुम्हे फिर से पढ़ा और इसबार... इसबार भी तुमने मुझे चमत्कृत किया। मैंने इसबार तुम्हे कुछ और करीब से समझा। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे खुद से बात हो गई हो...
जानते हो अब जब भी तुम्हारी कोई तस्वीर देखता हूँ या तुम्हारा लिखा हुआ पड़ता हूँ...उसके पीछे झांक कर देख पाता हूँ। जिस बात के लिए ये सोचता था कि 'भक, ये ऐसे कैसे?' अब लगता है कि 'हाँ ये बिल्कुल हो सकता है...यही तो है।' मैं खुश हूँ... तुम्हारे ज़रिए मैं शायद अपने होने वाले कल से मिलता हूँ। मैं किसी घर की तरह तुम्हारे लिखे तक वापस आता हूँ।
लगता है अब तुम्हे थोड़ा समझने लगा हूँ। क्योंकि मेरी ज़िंदगी भी थोड़ी आगे तो बढ़ी ही है।
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