Tuesday 6 June 2017

फिर से...

दो दिन पहले अचानक बैठे बैठे एक तस्वीर दिखाई दे गई. ये तस्वीर मेरे टुकड़ों में लिखे हुए, लिख कर छोड़े हुए और रह रह कर जिए हुए के नोट्स से बनी थी. एक एहसास सा था कि वो सब जो मैंने टुकड़ों में जिया है किसी बड़ी तस्वीर का हिस्सा है. यह सब मुझे नाटक लग रहा था. मेरा सारा लिखा हुआ जो किसी नाम या चेहरे के तहत अपनी पहचान नहीं पा सकता, उसे नाटक में अपना घर दिखना शुरू हुआ. मैंने नाटक लिखने का सोचा.

मैंने बंगलोर में रहते हुए भी कुछ नाटक लिखे थे. यह छोटे छोटे तिनके जोड़कर एक घोसला बनाने जैसा है. कहाँ कब कैसे क्या काम आ जाए कहा नहीं जा सकता. इस नाटक का आईडिया  मैं शानी को पिछले शुक्रवार एक बार में बताया था. उसे यह बहुत पसंद आया. उसने कहा कि यह तो पूरी फिल्म का आईडिया है और काफी अच्छा है, काम कर इसपर. इससे मेरी हिम्मत बढ़ी पर मैं इसे अभी फिल्म की तरह नहीं लिखूंगा. मैं इसे नाटक की तरह ही लिख रहा हूँ, इसमें मेरे पास एक ऐसा स्पेस है जहाँ मैं अपने एक्सपेरिमेंट कर सकता हूँ. मुझे इसे बनाने के लिए किसी प्रोडूसर के ऊपर आश्रित होने की ज़रुरत नहीं है.

किसी भी नए काम को करने और उसके होने के बीच की जो दूरी है वो कुछ ऐसी होती है जिसे शायद मैं ठीक से बयान ना कर पाऊं. खुद से इतने सारे सवाल और इतने सारे संदेह खुद पर कि लगता है जो मैंने कहना शुरू किया था क्या वह ठीक उसी इमानदारी से कह पाऊंगा?  क्या जो मैं कह रहा हूँ जब लोगों के सामने लेकर जाऊँगा तो उन्हें वही समझ आएगा जो मैं कहना चाहता था...? ऐसे ही बहुत सारे सवाल हर बार मेरे पास आते हैं. इस रास्ते में मैं अपने ही अन्दर बैठे हुए उन कई सारे व्यक्तियों से मिलता हूँ जो अक्सर मुझे ऐसे नहीं दीखते. इनको मैंने काम पर रखा है क्या? मैं कई बार इनसे बात करते हुए डरता भी हूँ कि पता नहीं क्या कैसा बोल दें... लिखने लगूं तो क्या लिखवा दें? इसलिए इनपर संदेह है पर मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इनसे मिलना भी एक रोमांचक अनुभव है. 

लगभग ढाई साल बाद फिर से किसी नाटक को लेकर बैठा हूँ. इन ढाई सालों में मैं एक इंसान और लेखक के तौर पर अपने अन्दर आये हुए बदलावों को देख पा रहा हूँ. एक एक परत उतार कर देखने जैसा है ये. हाँ, इसका एक  पहलू यह भी है कि इसे लिखते हुए कई बार मुझे ये लगा कि मैं इसे अपने पसंदीदा लेखकों के जूते पहन कर लिख रहा हूँ. ये जूते मेरे पैरों के आकार से थोड़े बड़े हैं. थोडा अपना है तो थोडा माँगा हुआ का एहसास है. किसी नए रिश्ते की शुरुवात सा एक अटपटापन भी है, जो वक़्त के साथ साथ अपना हिस्सा बन जाएगा. पर सब अपनी शुरुवात ऐसे ही करते हैं शायद और शायद यही एक रास्ता भी है कि जो रास्ता पता है उसपर चलते जाओ और जब चलना आ जाए तो अपने जूते पहनकर अपने रास्ते पर निकल पड़ो.

इस पोस्ट को लिखने का बस ये ही एक मकसद था कि अपने नाटक कि शुरुवात को चिन्हित कर सकूं. नाटक पूरा कर के फिर से मिलूंगा और बात करूंगा कि यह सफ़र कैसा रहा. 

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