Friday 29 December 2017

आश्चर्य का टुकड़ा

जीवन के आश्चर्य इतने सूक्ष्म है कि अगर रोज़मर्रा की जिंदगी में ज़रा सा रुका कर इनपर गौर ना करें तो वो गायब हो जाएँ। ये सारे आश्चर्य हमारे आसपास ही रह रह कर पनपते रहते हैं।

कल रात बांद्रा में शो था| अक्सर शो के बाद घर लौटते हुए लेट हो जाता हूँ| घर पहुँचते पहुँचते बारह बज जाना अब एक आम बात हो गई है| आज कल निधि (मेरी छोटी बहन) भी पूना गई हुई है तो वापस लौटने पर घर पर कोई नहीं था| दरवाज़ा भी ख़ुद ही खोल कर घुसना पड़ा| आज अपने कमरे में पहुँचते ही ट्यूबलाइट जलाई और फिर तीन सेकंड के अंदर झट कर के बंद कर दी| अभी कमरे में बाहर से आने वाली हल्की हल्की रोशनी मुझे ठीक लग रही थी| मेरे कमरे में एक बड़ी सी खिड़की है जो स्लाइड कर के खुलती है। अगर परदों को किनारे कर दिया जाए तो आस पास की बिल्डिंगों से इतनी रोशनी कमरे में जाती है कि किताब पढ़ना छोड़ कर बाकी  के काम किए जा सकते हैं। मैंने ट्यूबलाइट बंद कर दी।

थोड़ी देर में हाथ मुँह धोने के बाद मैं अपने बिस्तर पर पीठ को तकिये से टेक लगा कर बैठ गया...बाहर की तरफ़ झाँकता हुआ| मेरी खिड़की पर सफ़ेद पर्दा हल्का हल्का हिल रहा था| इसके हिलने के साथ ही थोड़ी और रोशनी कमरे के अन्दर आती हुई मेरे पैरों पर पड़ रही थी| आस पास सब शांत था। धीरे धीरे पूरे दिन की थकान को आराम मिलने लगा और जो ख़याल पूरे दिन इधर उधर  भागते रहते हैं अपनी जगह बनाने लगे।

ऐसे ही ख़यालों के जगह बनाने के क्षण में अचानक मुझे 'आश्चर्य' दिखा| हाँ आश्चर्य... मेरी खिड़की पर लटकता हुआ सफ़ेद पर्दा| हाँ वो आश्चर्य है। उसको देखकर मैं थोड़ी देर उसे ही देखता रहा और एक हल्की सी मुस्कान चेहरे पर फैल गई| यह आश्चर्य ही था| मैंने फिर नज़र घुमा कर पूरे कमरे को देखा... वाह! कमाल है'आश्चर्य पूरे कमरे में बिख़रा हुआ है...' मैंने ख़ुद से बात की और ख़ुद से ही स्वीकृति भी दे दी। 

यह आश्चर्य इसलिए था कि मुझे पता भी नहीं चला और मैं अपनी उस दुनिया के अन्दर था जिसकी मैंने कभी कल्पना मात्र की थी। दरअसल बात ऐसी है कि १०१३- २०१५ तक बैंगलोर में अपने एक दोस्त और बहन के साथ एक छोटे से घर में रहते हुए जब मैं एक बार नींद से उठा तो अचानक अपने सामने बड़े सामान का ढेर पाया| घर भरा हुआ था। दो (दरअसल डेढ़) छोटे छोटे कमरों में घर के तीन लोगों का कम सामान भी बहुत ज़्यादा लगता था। ऐसा लगता था कि मेरे ख़याल उन सामानों से टकराकर कमरे की फ़र्श पर गिर रहे हो। उनके लिए घर में जगह ही नहीं थी ऐसा लगता था। मुझे याद है, ऐसा ख़याल आने के बाद ही मैंने दो पन्नों पर इसके बारे में लिखा भी था और लिखते हुए सोचा था कि कभी शायद मेरा एक कमरा होगा जो एकदम ख़ाली होगा। उसमें मेरे ख़याल किसी चीज़ से टकराकर गिरेंगे नहीं। मैं उसकी दीवारें सफ़ेद रखूँगा, कमरे में सामान एकदम कम होगा, एक लम्बी खिड़की होगी दीवार के साइज़ की जिसको स्लाइड कर के खोला जा सकता होगा (मैं कभी रात में बैठ कर उसपर चाय पियूँगा), और खिड़की पर जो परदे होंगे वो भी सफ़ेद होंगे। गुलज़ार साब भी शायद इसीलिए हमेशा सफ़ेद पजामे-कुर्ते में दिखते हैं शायद। उन्हें भी ऐसा लगता होगा शायद... पर ये सब कब और कैसे होगा इसका मुझे बिल्कुल पता नहीं था। बस बैठे बैठे सोच लिया था और सोचने में कोई पैसे थोड़े ही लगते हैं। 

पर अभी इस क्षण में जब मैं अपने कमरे में बैठा हूँ मैं वही तो जी रहा हूँ। मैं उस ख़याल की हक़ीक़त में बैठा हुआ हूँ जो कभी यूँ ही सोच लिया था। वो मेरे जीवन में कब का घट  चुका था जिसे मैंने आज देखा है। यह आश्चर्य ही तो है। मैं ख़ुद ही ख़ुद में मुस्कुरा दिया। होंठों के विस्तार ने ख़ुशी का विस्तार किया और कमरे की रोशनी के साथ साथ अंदर भी एक रोशनी उतर गई और मन ही मन मैंने कहा कि 'यार 'आश्चर्य' होते तो हैं, पर बड़े सूक्ष्म। जिन्हें रुककर ना देखो तो घट कर निकल जाते हैं। यह सोचते हुए मैंने खिड़की का सफ़ेद पर्दा पूरी तरह से एक तरफ़ किया, खिड़की को स्लाइड किया, कमरे के अंदर हल्की ठंडी हवा और आने लगी... कुछ सेकेंड वहाँ खड़ा रहने के बाद मैं किचन की तरफ़ बढ़  गया, चाय बनाने। अपने आश्चर्य के दूसरे हिस्से को थोड़ा और जीने...

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