Saturday 18 August 2018

अटल जी के जाने पर...

साल ठीक ठीक याद नहीं पर शुरुआती 2002 या 2003 के आस पास की बात रही होगी। कविता लिखते हुए कुछ साल तो हो गए थे। कुछ 25 से 30 कविताएँ लिखीं थी और बाल पत्रिकाओं में उन्हें छपने के लिए कई बार डाक से भेजा करता था। एक कविता छप भी गई थी एक पत्रिका में... उसी दौरान पापा की अलमारी में एक किताब मिली, किताब का नाम था 'मेरी इक्यावन कविताएँ'। मैंने वो किताब पढ़नी शुरू की और उसे पढ़ते पढ़ते मेरे मन में भी अपनी कविताओं की किताब छपवाने की इच्छा जन्म लेने लगी। तो मैंने पापा की दी हुई डायरी में अपने हाथ से अपनी किताब का प्रारूप बनाना शुरू किया। मैंने सोचा इक्यावन ना सही मैं इक्कीस कविताएँ तो डाल ही सकता हूँ। और मैं अपनी किताब का नाम रखूँगा 'मेरी इक्कीस कविताएँ'... वैसे भी बाल कवि के लिए इतनी कविताएँ काफी हैं। ये सब मेरे मन में चल रहा था।
उसी किताब की देखा देखी मैंने पहले पन्ने पर 'बड़े भाई आशु के लिए' लिखकर वो किताब शुरू की...(ये बात उसे आज तक पता नहीं)। दूसरे पन्ने पर अपना 'जीवन परिचय' लिखा और फिर किताब की भूमिका... आखिरकार किताब ऐसी ही तो होती है... फिर बाकी के पन्नों पर अपनी कविताएँ अपनी सबसे ख़ूबसूरत राइटिंग में लिखने की कोशिश करने लगा। यह सब करते हुए मेरी कोशिश यह थी कि 'मेरी इक्यावन कविताएं' जैसी अपनी भी एक किताब आये जिसके मेन पेज पर अपनी वैसी ही फ़ोटो हो जैसी 'अटल जी' की उस किताब पर थी। शहर में एक साइबर कैफ़े वाला था। उसने बताया कि ऐसी फ़ोटो 40 रुपये में खिंच जायेगी और फ्लॉपी में डालकर वो दे देगा। फिर जब भी मेरी किताब आएगी मैं फ्लॉपी से वो फ़ोटो लेकर कवर के लिए प्रिंट करा सकता हूँ। फ़ोटो खिंचवा ली गयी। शहर में दो प्रिंटिंग प्रेस थे जहाँ मैं अपनी किताब के लिए बात करने वाला था। पापा भी तैयार थे क्योंकि प्रिंटिंग प्रेस वाले उन्हें जानते थे। मेरे पास किताब को बुक स्टॉल और बुक स्टॉल से पाठकों तक कैसे पहुंचानी है का पूरा प्लान था। मेरे दिमाग में एक किताब की कीमत सात रूपये थी, जिसमें से 5 रुपये दुकानदार के और दो रुपये मेरे हिस्से में आने थे। मैं खुश था कि मेरी किताब भी आ सकती है, लोग उसे पढ़ेंगे और मेरी कविताओं के बारे में स्कूल के बाहर भी लोग जानेंगे।
एक दोस्त भी था जिसके घर पर कंप्यूटर था उसको कुछ पेपर भी दिए मैंने टेस्ट प्रिंटिंग के लिए... पर देवनागरी में टाइप ना कर पाने की वजह से वो कविताएँ मैं देख नहीं पाया। साल 2004 में मैं वो शहर हमेशा के लिए छोड़ कर दिल्ली आ गया था। वो डायरी वहीं छूट गयी। वो फ्लॉपी पता नहीं कहाँ है। पर लिखकर अपना नाम बनाने का सपना कहीं ना कहीं अटक गया था। इसमें उस किताब का इतना तो योगदान था ही।
मैं कई जगहों पर अटल जी से राजनीतिक मतभेद रखता हूँ। उनकी कुछ बातों के तो मैं सरासर ख़िलाफ़ हूँ पर आज शायद वो दिन नहीं है कि उन बातों पर बात की जाए। आज अपने हिस्से की कहानी में मैं उन्हें इस तरह से याद कर पाता हूँ। आज भी अपने लिए कविताएँ लिख रहा हूँ पर अब कोई कवितओं की किताब छपवाने की इच्छा नहीं है। अब किताब का आना या ना आना बहुत मायने नहीं रखता। वो लड़कपन का खेल था जिसमें मैं पूरी तरह से लगा हुआ था और मैंने उस प्रक्रिया को एक बार जी लिया है।
अगर कभी किताब आएगी तो उसका महत्व सिर्फ व्यावसायिक होगा।
पर ये सब लिखते हुए एहसास हुआ कि उस सपने में कितना भरोसा था अपना... जैसे इस जीवन में मुझे अभी है। दोनों को ही एक दिन खत्म होना है और बात इतनी सी है कि जब सब घट रहा था तो हम उस वक़्त कितने ज़िन्दा थे।

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