Thursday 21 February 2019

आदत ख़राब है।

आदत बदलनी है। धीरे धीरे ही सही पर बदलनी तो है। पिछले महीने भर से ब्रेक पर था। थोड़ा ट्रैवल किया थोड़ा काम। इससे पहले ऐसा लग रहा था जैसे कुछ नया नहीं सोच पा रहा, काम करने की भगम भाग में लगने लगा था कि बस काम ही हो रहा है, कुछ नया सीख नहीं रहा हूँ। Calendar बताता था अब ये कर लो, अब ये, अब यहाँ चले जाओ और अब तुम्हें इस चीज़ को वक़्त देना है। मुंबई का ट्रैफ़िक अलग, शोर अलग। तो मैंने सोचा ज़रा रुकते हैं, आराम से चलते हैं, वैसे भी सब तो हो ही रहा है जो मैं चाहता हूँ। तो लगभग चार शहर घूमने के बाद मैं वापस मुंबई में हूँ। एक फ़िल्म पर काम चल रहा है, जो ब्रेक लेने से पहले से चल रहा है उसके लिए गाने लिख रहा हूँ तो अपने वक़्त में यह काम कर सकता हूँ, रोज़ कहीं किसी के पास जाना नहीं होता। पर ब्रेक लेने के दौरान मैंने अपना सारा रूटीन बदल दिया। अब रूटीन ऐसा बदला है कि सही होने का नाम नहीं ले रहा। रात में दो बजे सोता हूँ, सुबह दस बजे उठता हूँ, कॉफ़ी बनता हूँ और लैप्टॉप और मोबाइल के सामने बैठ कर कुछ कुछ टाइम पास करता रहता हूँ। तीन किताबें एक साथ पढ़ तो रहा हूँ पर वो भी ज़्यादा पढ़ नहीं पा रहा और इस ब्लॉग का याद किया तो याद आया कि इधर भी कई महीनों से कुछ नहीं लिखा। हाँ सोचा कई बार कि ये वाली बात लिख लेनी चाहिए पर लिखा नहीं। और फ़ोन पर बिज़ी रहने के कई सारे बहाने तो हैं ही, बाक़ी सफ़िया (मेरी बिल्ली) बचीखुचि कसर पूरी कर देती है। ख़ुद को इतना बिगड़ा हुआ देख कर लगा कि आदत ठीक करनी पड़ेगी। 

पिछले एक हफ़्ते में एक बात जो ठीक हुई है वो ये कि स्टैंडअप फिर से शुरू हो गया है। कल अचानक ही आदित्या ने मेसिज कर के पूछा कि बांद्रा में ओपन माइक करना है तो आ जाओ। मैं चला गया। जाते हुए मन अजीब सा ही था, लग रहा था क्यूँ जा रहा हूँ,  तैयारी तो ओपन माइक की भी नहीं है। वहाँ जाऊँगा जोक्स चलेंगे नहीं तो और बुरा लगेगा। ‘प्रोडक्टिव क्या कर रहे हो पाण्डेय?' का सवाल मन में कई बार आया। पर फिर भी मैं बांद्रा चला ही गया, अच्छी बात ये थी कि ओपन माइक उम्मीद से बेहतर हुआ। कई सारे जोक्स तो वहीं स्टेज पर ही आए, लोग हँसे तो अच्छा भी लगा। पर आदत में धीरे धीरे सुधार करना है वाली बात अभी भी चल ही रही थी। तो घर आकर फ़ोन हॉल में ही रख दिया और आजकल मैं रोल ढाल की 'मटिल्डा' पढ़ रहा हूँ तो उसे लेकर अपने बेड रूम में चला गया। (डिस्ट्रैक्शन: अभी अभी यह लिखते हुए फ़ोन बजा, देखा तो एक काम का मेसिज था, उसे रिप्लाई करने गया तो चार और मेसिज दिख गए। सोचा उनका भी रिप्लाई कर दूँ। फिर पता नहीं कैसे, वट्सऐप से इंस्टा पर चला गया। और कुल दो-तीन मिनट डिस्ट्रैक्ट होने के बाद यहाँ आया हूँ। कितनी टफ़ है इस एज में एक राइटर की ज़िंदगी। बकवास) ख़ैर मैं अपनी बात पर वापस आता हूँ। फ़ोन हॉल में रखा क्योंकि अगर पास में फ़ोन होता तो मैं किताब कम पढ़ता और फ़ोन ज़्यादा देखता। मैंने सोचा कि क्या मैं घर में रहते हुए अपने मोबाइल का इस्तेमाल लैंडलाइन की तरह नहीं कर सकता? जीवन में हर चीज़ की तरह इसे भी कर के देखने में कोई नुक़सान नहीं था। तो पूरे टाइम फ़ोन रिंगर पर पड़ा हुआ हॉल में रखा रहा। मैंने मटिल्डा के कुछ तीस पेजेज़ पढ़ कर ख़त्म किए। अच्छा लगा कि कुछ तो किया। रात के बारह बज चुके थे और आज का दूसरा टारगेट था कि थोड़ा जल्दी सोना है। रात के दो बजे सो सो कर ऐसा लग रहा है जैसे शरीर फैलने लगा हो, कुछ दिनों से सुस्ती महसूस कर रहा हूँ। तो कमरे की लाइट बंद करी और पुराने वक़्त को याद करता हुआ आँखें बंद कर लीं, जब मुझे सुबह उठकर ऑफ़िस जाना होता था। नींद भी जल्दी आ गयी। आज सुबह दस बजे नहीं पर नौ बजकर तीस मिनट पर उठा। यह एक छोटी सी अचीव्मेंट है मेरे लिए।

दूसरी तरफ़ फ़ोन की अलग कहानी हैं। सौरव ने एक मोबाइल अडिक्शन ट्रैकिंग ऐप्प के बारे में बताया था कि वह डालने से पता चलता रहेगा कि मैं फ़ोन का इस्तेमाल कितना कर रहा हूँ। उसकी डिफ़ॉल्ट सेट्टिंग जोकि 50 बार फ़ोन unlock करने देती है और डेढ़ घंटे का टाइम फ़ोन के इस्तेमाल के लिए देती है, वो इतने वक़्त को अड्डिकटेड की श्रेणी में रखती है। मैंने परसों अपना फ़ोन 184 बार अन्लॉक किया था और कुल चार घंटे से ऊपर इस्तेमाल किया था। मतलब मैंने अडिक्शन के लेवल से भी दो तीन लेवल ऊपर हूँ। हद है। कल मैंने अपना फ़ोन 134 बार और साढ़े तीन घंटे इस्तेमाल किया। परसों के मुक़ाबले यह थोड़ा कम है पर accidentle है और कहीं से भी healthy नहीं है। काम के साथ distraction का तो आप पूछो ही ना।

मेरी बहन निधि को मैंने अपनी इस हालत के बारे में बताया तो वो आश्चर्य कर रही थी। कहने लगी ‘इतना फ़ोन कैसे इस्तेमाल करते हो भाई तुम?' मैंने उसके फ़ोन में भी वो ऐप्प डाला। पता चला का उसने अपने फ़ोन को 118 बार अन्लॉक किया था और पाँच घंटे से ज़्यादा इस्तेमाल किया था। यह देखकर मैंने तो उसे छेड़ा पर वो भी आश्चर्य में थी। कह रही थी 'यार पता ही नहीं चलता पाँच-पाँच मिनट कर के कैसे इतना टाइम हो जाता है। मैं ध्यान रखूँगी।' 

मेरे फ़ोन में भी वह ऐप्प चल रहा है और मैं वैसे भी ध्यान में रख रहा हूँ कि अगर चार काम हैं फ़ोन पर तो एक बार में निबटा लिया जाए। सुबह उठकर पहले कुछ लिख लिया जाए। अपनी कहानी, अपना ब्लॉग, कुछ पढ़ लिया जाए। नहीं तो आस पास डिस्ट्रैक्शन बहुत हैं। जैसे अभी यह लिखते हुए ही बार बार कॉफ़ी पीने का मन कर रहा है। पर घर में कॉफ़ी ख़त्म है। अब सोच रहा हूँ नीचे दुकान से लेकर आऊँ या अभी रहने दूँ। आज के वक़्त में हेमलेट होता तो इसी कशमकस में ‘To Be Or Not To Be’ पूछ रहा होता।

पर अभी आज अपनी कहानी पर काम करना बाक़ी ही  है। शाम पाँच बजे अंधेरी में म्यूज़िक डिरेक्टर से मीटिंग है। बुकोव्स्की का एक फ़ोटो भी कल फ़्रेम करने को दिया था वो भी लाना है, वो मैं मीटिंग से पहले जाते जाते ले लूँगा। उसके लिए अलग से जाऊँगा तो और टाइम ख़राब होगा।  मैं अपने दिमाग़ में दिन थोड़ा वैसे प्लान कर रहा हूँ। प्लान करना पड़ेगा नहीं तो समय से बड़ा जेबकतरा कोई भी नहीं। 

वैसे इसी बारे में लिखते लिखते आज कुछ लिख लिया। दिन की शुरुआत तो अच्छी हुई है। बाक़ी दिन भी अच्छा ही जाएगा।
पढ़ने के लिए शुक्रिया।




1 comment:

  1. हम सब आदतों के अधीन हैं. वक़्त मिले तो "Atomic Habits" नाम की किताब पढ़े. पढ़ना भी होगा, और इस एडिक्शन से मुक्ति की राह भी मिलेगी।

    ReplyDelete