Sunday 7 November 2021

जीने की परिभाषा के बीच

बदलाव की आहट आनी शुरू हो गयी है। इसे मैं कई दिनों से महसूस कर रहा हूँ। एक लकीर को पकड़कर इतनी दूर निकल आया हूँ कि लकीर ख़त्म सी  होती दिखती है। जिन बातों के लिए मैंने लगातार ख़ुद के साथ एक निर्मम लड़ाई लड़ी, वो बातें ही अब कुछ और लगती हैं। ऐसा लगता ही नहीं कि मैं वो ही आदमी हूँ। मैं तो वैसे भी लगतार बदल ही रहा था। शायद बदलते हुए भी मैं एक दिशा में जाना चाहता था। दिशाएँ भी सारी भ्रम थीं। रास्ते में इतने दर्पण मिले, हर दर्पण में अपनी शक्ल देखकर ठीक करने की कोशिश की कि सब ठीक हो। ठीक होना बेहतर इंसान होने का पर्याय बन गया था। लकीर पकड़े चलते रहे। जो भी किया ऐसे किया जैसे किसी और को हिसाब देना है। मेरे अकेलेपन में भी मैं अकेला नहीं रहा। हर बार लगा कोई देख रहा है या कोई बाद में देखेगा। मेरी भाषा में वर्तनी की त्रुटि की कोई गुंजाइश नहीं थी। ईश्वर की आँखों की जगह नैतिकता की आँखें गड़ी थीं मुझपर। मैं ख़ुद ही हर बार अपने ख़िलाफ़ गवाही दे रहा था। आख़िर मैं ऐसा क्यूँ कर रहा था? क्या मुझे पता था कि मैं ऐसा कर रहा हूँ? इसका जवाब हाँ और ना दोनों ही हैं। सही और ग़लत की तलाश में बीच का कोई रास्ता नहीं था। अपने पुरखों की ग़लतियों के लिए मैंने ख़ुद को कोड़े मारे। मैं अपना सर नीचे झुकाकर लगतार चलता रहा। लोगों की बातों में अपनी पश्चाताप की जगह ढूँढता रहा। मैं उस अपराध से आज़ाद होना चाहता था जो मैंने कभी किया ही नहीं। मैंने ख़ुद को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया था। सब सही करने की इतनी ज़रूरत क्यूँ थी मुझे? मैं क्या कर लेना चाहता था सही होकर उस लकीर पर चलते हुए जो मुझे लगता था सही है। पर क्या वो लकीर सच में थी? शायद यह सवाल मैं आजकल लगतार ख़ुद से पूछ रहा हूँ इसलिए मेरे लिखे में भी यह बार बार आता है।

दुनिया बहुत तेज़ी से बदल गयी थी और मैं अपनी रट में चला जा रहा था। कई बदलाव ऐसे थे जिससे मैंने ख़ुद को लगातार दूर रखा था। वो मेरा रास्ता नहीं था। मेरा रास्ता वो लकीर थी जिसपर चलकर कुछ लोग आगे तक पहुँचें थे। मुझे नहीं पता था मैं क्या ठीक ठीक उस लकीर पर चल पाऊँगा या नहीं पर मैं लगातार कोशिश में लगा रहा। जो लोग उस रास्ते से गुज़रे थे उनके पदचिंहों को देखता, उसमें पैर रखता मैं धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। मैंने पैर उन पदचिंहों से छोटे थे पर मुझे इसकी परवाह नहीं थी। मुझे पता था मैं सही रास्ते पर चल रहा हूँ। दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही थी।

दुनिया ऐसे बदली की जीने की इतनी सारी परिभाषाएँ सामने आ गयीं। मेरा जमा जमाया खेल बिगड़ गया। बाहर सब बेहतर था पर अंदर ही अंदर कुछ काटने लगा। जिन परिभाषों को मैं अपना मान कर चल रहा था उन्हीं परिभाषाओं ने अपना रूप बदल लिया। जीवन का विस्तार हुआ जो कहता कि मुझे कुछ और हो जाने की ज़रूरत है या फिर कुछ भी नहीं। मेरे होने में किसी दिहाडी मज़दूर की सी मेहनत थी। शाम तक शरीर थककर चूर होता जाता। अपने जीने की परिभाषों को मैंने ख़ुद की परिभाषा से फिसलता देखा था। ठीक ठीक तो नहीं कह सकता पर ये कुछ ऐसा था जैसे हर बार हर जगह कुछ ना कुछ ढूँढ लेने की कोशिश। इस दुनिया के पीछे क्या राज़  छिपा था? मैं लगातार बातों के बीच की बातें ढूँढता रहा... लगातार।  इसके अपने फ़ायदे थे और हैं भी। दुनियावी बातों पर चलते हुए इस संसार ने मुझे एक जगह दी पर मेरे मन से वो जगह गायब थी। मुझे अभी भी लकीर दिखती थी। 

कई बार लोगों को कहते हुए सुना है "It's not the destination but the journey"। मैं यह बात समझता हूँ और ये मैंने जिया भी है। पर मैं इस बात पर अभी पूरी तरह से भरोसा नहीं कर सकता। क्या मैं कहीं भी नहीं पहुँचकर ख़ुश हो सकता हूँ? यह लिखते हुए भी मुझे ये ख़याल कई बार आया कि ये जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ इसे पूरा तो करना ही है। एक-एक वाक्य लिखने का अपना सुख है और एक पन्ना पूरा करने का अपना। हम क्यूँ ऐसे आलतू-फ़ालतू क्वोट्स बनाकर ख़ुद को छलते रहते हैं? क्या यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं? पर जब अगर मेरी अब तक की यात्रा नियमों के रास्ते चलकर बनी थी तो मुझे यह नियम भी मानना था। Journey को enjoy करना भी एक लक्ष्य बन गया। सुबह तय किए वक़्त पर उठना, दौड़ना, नापा-तुला खाना, पढ़ना-लिखना, सोना सब नियम के तहत हो रहा था। जिसमें मैं ख़ुद से ही ख़ुद का हिसाब माँगता और अक्सर उसमें हारा हुआ महसूस करता। मेरे लिए ग़लत होने की कोई ज़मीन नहीं थी। हर हार एक ऊब दे जाती और हर ऊब के साथ में ख़ुद पर एक और सिकंजा कसता जाता। जिन लोगों की लकीर और जीने की परिभाषा पर मैं चला जा रहा था जो ख़ुद उन नियमों से कहीं परे जा चुके थे। मैं मन ही मन उनसे लड़ने लगा। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं छला गया हूँ। 

पर अब जो यह बदलाव की आहट आ रही है यह उसी परिभाषा के बदलने से और लकीर के ग़ायब होने से आ रही है। इस लगातार बदलती दुनिया में मैं भी लगातार बदल रहा था। ये बस मेरा डर था मैं जिसमें क़ैद था। मेरा डर जो मुझे ये देखने नहीं देता था कि मेरा अस्तित्व मेरी परिभाषाओं से परे था। जैसे-जैसे मुझे ये बात ज़्यादा दिखने लगी मेरा उस लकीर से भरोसा कम होता गया। वो धीरे धीरे ग़ायब होती गयी। मुझे शायद अब उसकी ज़रूरत नहीं थी। यह बदलाव की आहट बता रही है कि मैं अपनी जीत-हार, प्रेम-दोस्ती, जीवन-मरण की अपनी परिभाषाएँ बना सकता हूँ। 

मेरे होने से पहले, होने की परिभाषा तय करना ऐसा ही था जैसे कुछ थोड़ा सा लिखकर अपनी आवाज़ ढूँढना। मुझे तो बस लगातार लिखते चले जाना था। ठीक वैसे जैसे मुझे लगातार जिए जाना था। लिखने की और जीने की परिभाषा मेरे किए से निकलती और फिर मुझे ख़ुद को किसी और के पदचिन्हों में डालकर ख़ुद से ख़ुद की गवाही के लिए मौजूद होने की ज़रूरत नहीं  होती।




Thursday 2 September 2021

"Writing a Fable. Writing about a Fable"


अभी जहाँ बैठा हूँ उस  कैफ़े का नाम है "लीपिंग विंडोज़"। यहाँ  पहुँचने से बहुत पहले से इस जगह को जानता हूँ मैं। इसके बारे में पहली बार साल दो हज़ार चौदह में पता चला था। पता चला था कि मुंबई में फ़िल्मों में काम करने वाले तमाम लोगों का अड्डा है ये जगह। इसकी कुछ एक फ़ोटोज़ भी देखी थीं मैंने। कुछ एक फ़ोटोज़ देखकर ही इसके होने की पूरी कल्पना में लगातार करता। कैसा होगा उन सबका जीवन जो इस कैफ़े के अंदर बैठकर रचते होंगे? इसके आसपास रहने वाले लोगों का जीवन कैसा होगा? कितना मज़ा आता होगा ना आराम से बैठे बैठे कॉफ़ी पीते हुए अपना एक संसार रचना। जो लोग यहाँ आते होंगे वो कहाँ से आते होंगे और फिर कहाँ जाते होंगे? और जब एक साथ इतने सारे कलाकार एक ही छत के नीचे काम करते होंगे तो कैसा होगा माहौल? यह सारे सवाल और जाने क्या क्या मेरी कल्पना के हिस्सा थे।

मैं जब मुंबई आ गया तब भी इस कैफ़े के बाहर खड़े रहकर इसके अंदर बैठने की कल्पना करता रहता। बाहर से अंदर की तरफ़ झाँकता कि एक नज़र देख लूँ कि कौन सा कलाकार अंदर बैठा है। यह कैफ़े बस कैफ़े नहीं पर मेरी फ़ेबल का हिस्सा था जिसके अंदर कला का एक संसार बसता था। अब जब मैं इसके बाहर खड़े होकर इसे देखता तब मुझे यह ख़याल भी नहीं आता कि क्या मैं इसके अंदर जा सकता हूँ? शायद ख़याल आता होगा पर मेरे पास उतने पैसे थे नहीं कि यह ख़याल बहुत देर तक टीक पाए। 

मेरी कल्पना में बहुत सारी कहानियाँ इस कैफ़े से निकली हैं। मैं चाहता था उस अंदर की दीवारों और इसके रंग को देखना जिसकी मैंने बस कल्पना मात्र ही की थी। मैं जब पहली बार अंदर आया तो थोड़ा असहज भी था। कोई दोस्त ही लेकर आया था मुझे यहाँ पहली बार या फिर मैं किसी से काम के सिलसिले में मिला था। मुझे याद नहीं। बात सिर्फ़ पैसों की नहीं थी। बात काम की भी थी। क्या मैं वैसा काम करने के क़ाबिल हूँ कि मैं इस कैफ़े में बैठकर बड़ी सहजता से अपना काम कर पाऊँ? क्या मेरे दिमाग़ के अंदर जो दुनिया है उसको इस जगह पर आकार मिलेगा कि कस्मक़स भी चलती रहती। 

सिर्फ़ यह कैफ़े ही नहीं, इसके आसपास का पूरा यारी रोड और वर्सोवा का इलाक़ा ही मुझे मेरी किसी फ़ेबल से निकला हुआ लगता है। मैंने अपने पसंदीदा कलाकारों और लेखकों के क़िस्से इसी हिस्से से सुने हैं। एक एक मोड़ और एक एक मोड़ से मुड़कर निकलने वाली सम्भावनाएँ जादुई हैं। गली से गुज़रते हुए खेलती हुई बिल्लियाँ और आराम करते कुत्ते, ये पीपल का पेड़ जो मेरे सामने हवा में हिल रहा है, यहाँ साइकल पर चलते लोग, यह मंदिर-मस्जिद का मोड़ और कई सारे कैफ़ेज़, ये सब मेरी काल्पनिक कहानी का हिस्सा रहे हैं जिसे मैं अब जीने लगा हूँ। मैंने यहाँ के कई घरों में अपने कई फ़ेवरेट कलाकारों के होने की कल्पना तब की है जब वो मेरे दोस्त नहीं थे। अभी भी वो कल्पना कहीं ना कहीं झूलती रहती है।

मैं इस इलाक़े में नहीं रहता। यहाँ से सोलह सत्रह किलोमीटर दूर रहता हूँ। पर आजकल मेरा काम इधर ही है तो कुछ दिनों से एक दोस्त के घर पर इधर ही रह रहा हूँ। लीपिंग विंडोज़ तीन सौ मीटर की दूरी पर है जो इस पूरे इलाक़े को मेरे लिए एक सूत्र में बाँधता है। जब कभी पूरे दिन काम करके एकदम भर जाता हूँ तो यहीं की सड़कों पर ख़ुद को ख़ाली करने निकल पड़ता हूँ। दौड़ते हुए कई बार मैंने ख़ुद को ख़ुद से यह कहते हुए पाया है कि मैं एक फ़ेबल में जी रहा हूँ। वो सारे सुख कहें तो कहानी, जिसकी मैंने लगातार कल्पना करी थी, मैं उसका एक किरदार बन चुका हूँ।

यहाँ कुछ लोग मुझे जानते हैं। मेरे काम को जानते हैं। मुझे लगता है वो मुझे पसंद भी करते हैं। कहीं से कहीं जाते हुए अक्सर मिल जाते हैं। सर हिला कर और पलकें झपकाकर हम लोग एक दूसरे को हेल्लो कहते हैं। मैं यहाँ नहीं रहता फिर भी यहाँ रहता हूँ। आजकल एक हफ़्ते से दीपक (डोबरीयाल) भाई रोज़ वॉक करते हुए मिल जाते हैं। हम एक बार एक दूसरे को दौड़ते हुए ही हेल्लो कहते हैं और अपने अपने संसार में चले जाते हैं। यहाँ जीते हुए, इस वाक्य को लिखते हुए जीवन बहुत ही सुंदर लग रहा है। कल रात मेरे writers room का आख़िरी दिन था और मैं उसके बाद आकाश के साथ दौड़ने गया। हम पाँच किलोमीटर दौड़े। पसीने ले लथपथ। मज़ा आया। हमने अपनी दौड़ लीपिंग विंडोज़ से शुरू करके लीपिंग विंडोज़ पर ही ख़त्म की थी। मैंने रात के अंधेरे में लीपिंग की फ़ोटो खिंची। यह फ़ोटो वर्सोवा इलाक़े की नहीं मेरी फ़ेबल की फ़ोटो थी। आज जब बड़े दिनों बाद यहाँ आने का मौक़ा मिला तो सोचा मुझे ये यहाँ दर्ज कर लेना चाहिए। जिस टेबल पर मैं बैठा हूँ मैंने उसकी फ़ोटो खिंची और Instagram पर डालकर लिखा "Writing a Fable. Writing about a Fable"। 

 हाँ मैं अपनी फ़ेबल ही जी रहा हूँ।

Wednesday 18 August 2021

डायरी से...

 

16th March: 2020

 

मैं बंद मुट्ठी मेंतुम्हारी-मेरीकहानी जैसा कुछ लेकर घूमता रहता था। एक दिन तुम्हारे पास आकर मुट्ठी खोली और तीखे बताया किदेखो ये शायद हमारी कहानी है।तुमने मेरी हथेली पर रखी उस कहानी को देखा और मुझसे कहा कि उसमें तुम्हारी कहानी नहीं थी। तब मुझे समझ आया कि मैं अपनी कहानी लिए तुम्हारे हिस्से की ज़मीन भी नाप रहा था। मैं चला जा रहा था। मैंने अकेले हीहमारे साथकी इतनी यात्रा कर ली थी कि मुझे लगने लगा मैं इस धरती से ज़रा सा ऊपर चल रहा हूँ। धरती से ऊपर चलनातुम्हारी-मेरीकहानी में सामान्य बात थी। और इस बात का एहसास उस कहानी ने ही कराया मुझे। पर जब तुमने कहा कि उसमें तुम्हारी कहानी नहीं है मैं ज़मीन पर गया। सामान्य लोगों की तरह चलने लगा। फिर बड़े दिनों के बाद एहसास हुआ हुआ कि जब मेरे पैर ज़मीन पर पड़े थे तो एक काँटा मेरे पाँव में चुभ गया था। वो तब पता नहीं चला था... पर अब जब जब मैं चलता हूँ वहाँ एक टीस सी उठती है। उस टीस मेंतुम्हारी-मेरीकहानी अभी भी शामिल है। 


8th April: 2020

 

कल रात हल्की नींद में मौत आने वाली थी। बस लगा ही था कि ये मैं आख़िरी बार लेट रहा हूँ अब उठ नहीं पाउँगा। पर मैं उठ गया सुबह। पर एक दिन ऐसा ही तो होगा एक दिन हम सोने जाएँगे, पलकें आख़िरी बार बंद होंगी और फिर हमारी सुबह कभी नहीं होगी। हम जब भी विदा होने वो हमारी रात होगी। तो मैंने जब आँखें बंद करी तो कुछ देर तक अपनी ही ज़िंदगी का एक सफ़र सा ग्राफ़ बन गया। लगा जैसे एक कहानी चल रही हो। यह ना तो अधूरी थी और ना ही पूरी वो बस थी जैसे बाइस्कोप में चलती हुई फ़िल्म। जो कहीं से भी शुरू होकर कहीं ख़त्म हो जाती है।

 

इस बीच मुझे अपनी मृत्यु के ख़याल लगातार आ रहे हैं। क्या अगर यही था जीवन जो जी लिया? ऐसे सोचने लगूँ तो जीवन बहुत छोटा सा लगता है। जैसे एक बड़े केक से एक छोटा सा हिस्सा निकाल कर किसी ने दिया कि ये तुम्हारा हिस्सा है। मैं बाक़ी उस केक को भी देख रहा हूँ जो खाया जा सकता था। क्या मैं लालची हूँ? या मुझे ज़िंदगी से मोहब्बत है?

 

एक एक दिन करता हुआ यहाँ तक जो आएँ हैं, जो बनाया है वो कहानी है पर इसके आगे क्या होगा? क्या हम यह जान सकते हैं कि आगे क्या होगा? नहीं, मुझे नहीं जानना कि आगे क्या होगा। मुझे बस कामना करनी है “आगे क्या हो सकता है” की, क्योंकि अब तक जो हुआ है वो जानकर नहीं किया जा सकता था। और ये सब ख़ूबसूरत है। मैं बस कामना कर सकता हूँ। कामना ये कि जब आज बिस्तर पर सोने जाऊँ तो कल सुबह उठकर एक नयी कामना कर सकूँ।

 

 

11th April: 2020

 

किसी से एक बार मिलकर हम उससे कितना मिल पाते होंगे? जो हमें उनमें उस वक्त दिखता है वो सारा तो नहीं हो सकता। वह तो उसका एक हिस्सा था जो बस हमारे पास छूट गया। पर हमारे वहाँ से गुज़र जाने के बाद भी कुछ बहुत सारा वहीं बचा हुआ रह जाता होगा, जहाँ हम उनसे मिले थे। किसी से कितनी बार मिलने के बाद यह बात ठीक ठीक कही जा सकती है कि “हम उन्हें जानते हैं?” मैंने जब भी कोई किताब पढ़कर पूरी की तो मैंने ख़ुद से सवाल किया है कि मुझे उसमें क्या पसंद आया है? इसका ठीक ठीक जवाब मैं ख़ुद को कभी नहीं दे पाया, ठीक वैसे ही जैसे तुमसे एक बार मिलकर ठीक ठीक यह नहीं बात सकता कि मुझे तुममें क्या पसंद आया? मैं अपनी ऊँगली रखकर यह कभी नहीं बता पाउँगा कि उस क्षण में क्या जादू सिमटा हुआ था। पर एक इच्छा है जो लगातार चलती रहती है... थोड़ा और जानने की। एक बार फिर से मैं हर वो किताब पढ़ना चाहता हूँ जो मुझे पसंद है, जैसे एक बार तुमसे और मिलने की इच्छा। मैं दोनों से गुज़र कर हर बार ख़ुद को कहीं और खड़ा पाया है। हर एक किताब ख़त्म करने के बाद मैं वो नहीं रहा जिसने वो किताब पढ़ना शुरू किया था ठीक वैसे ही जैसे तुमसे फिर एक बार मिलकर मैं कुछ और हो जाऊँगा।

 

 

 

17th May: 2020

 

शरीर नींद में था और हल्का टूट रहा था। बीती रात ठीक से सो नहीं पाया था मैं। इसलिए दिन में थोड़ी देर सो गया। अलग अलग तरह के सपने आने शुरू हुए, एक बहुत पुराना स्कूल का दोस्त फिर से मिला सपने में, पर मुझसे ज़्यादा बात नहीं की उसने। मुझे भी बहुत वक़्त लगा उसका नाम याद करने में। अभी फिर उसका नाम याद कर रहा हूँ पर ठीक ठीक याद नहीं कर पा रहा। फिर थोड़ी देर बाद मैं कहीं और था, एक घर में, बाल्कनी में खड़ा हुआ, तुम भी वहीं थी। तुम पास आयीं और मेरी हथेलियों में अपनी हथेली रखकर मेरे पास खड़ी हो गयी जैसे किसी बड़ी कटोरी के अंदर एक छोटी कटोरी रख दी जाती है। मुझे यह छुवन पता थी, शायद इसलिए कि मेरी कल्पना में मैं इसे कई बार जी चुका हूँ। एक पल के लिए मैंने तुम्हारी तरफ़ देखा और तुमने सर हिला कर एक स्वीकृति दी। इस पल पर तुम्हारी मुहर थी जैसे कोई अर्ज़ी किसी ने पूरी कर दी हो। अचानक वो पल इतना ख़ूबसूरत हो गया कि मुझे इस बात का यक़ीन हो गया कि यह सच नहीं है। सारी कल्पनाएँ जिसमें साथ घूमने से लेकर तुम्हारा हाथ थामना और तुम्हें हल्के से चूम लेना है उस वक़्त में पूरी होती दिखीं। टूटते हुए शरीर को समझ आ गया कि यह सच नहीं है, सपना है। अब सपना टूटने का डर था। पर मैं नहीं चाहता था कि ऐसा हो, तुम्हारे साथ होना ख़ूबसूरत था। अगले ही क्षण मैंने ख़ुद को बड़बड़ाता पाया कि “नहीं, आँख मत खोलना, आँख मत खोलना” और मैंने आँख नहीं खोली और थोड़ी देर वो जिया जो सुंदर था। उस सपने के संसार में और भी अलग संसार शामिल हुए और कुछ का कुछ बन गया। पर तुम्हारे साथ होने का सुख अभी भी टूटते हुए शरीर के किसी हिस्से में छिपा पड़ा है, कभी और लौटकर आने के लिए।

 

सोचा तुम्हें बताता हूँ तुम्हें कि ऐसा हुआ पर नहीं किया। फिर सोचा पहले लिख लेता हूँ उसे, क्योंकि लिखते हुए मैं शायद उसे एक बार और जी लूँ। तुम्हें इसे बताने का ख़तरा है यह है कि कहीं वो इसे महसूस करने का आख़िरी बिंदु ना हो जाए। तब तक मैं उसे एक बार और ऐसे महसूस कर लूँ जैसे सुबह पीला सूरज फैलता है तुम्हारे चेहरे के एक हिस्से पर, तुम्हें छू कर हल्का सा बिखरा हुआ।

 

18th May: 2020

 

एक बहुत सुन्दर सपना देखते हुए अचानक नींद खुल जाती है और मैं सोचने लगता हूँ जो मैं नींद में जी रहा था। वो बहुत सुन्दर सपना था। वो अभी भी सामने हल्का हल्का तैर रहा है पर थोड़ी देर में धुँवा बनकर उड़ जाता है। अपनी खिड़की पर बैठा, उसे जाते हुए मैं चुपचाप देखता रहता हूँ। सपने का सुख जब अपनी जगह छोड़ता है तो उसकी जगह एक हल्की सी टीस लौट आती है। सोचता हूँ अब ये जो टीस उठी है इसे लिख लूँ या जी लूँ? इस ख़याल को लेकर मैं थोड़ी देर उसी कमरे में टहलता हूँ और ख़ुद पर हँसी आ जाती है। मैं समझ नहीं पता कौन सी टीस जीने के लिए है और कौन सी लिखने के लिए। यह सब सोचते हुए मैं अपने कम्प्यूटर पर एक गाना चलाता हूँ “फिर वहीं रात है, फिर वही रात है ख़्वाबों की”

 

16th August: 2020

तुम नहीं थे एक रुपए में एक अठन्नी कम थी। मैंने पूरे मन से वो अठन्नी अपनी जेब में रख ली। बाक़ी की अठन्नी मन ढूँढ रहा था... जानता था नहीं है फिर भी ढूँढता रहा... बहता रहा। एक उदासी भरी नाराज़गी फिर से जीभ के नीचे चिपक गयी। मैं वहीं खड़ा चुपचाप खुद को तुमसे गुज़रते हुए देख रहा हूँ। चिट्ठियों का ज़माना नहीं है पर मैंने वैसे कई बहाने भेजें हैं तुम्हें... यही सोचता हुआ मैं घर आ गया। घर में ऐसे दाख़िल हुआ जैसे रोज़ होता हूँ। अकेला कमरे की बत्ती बंद करी और सलमा अग़ा की प्लेलिस्ट चला ली। वो गा रहीं हैं...उनकी आवाज़ वो मेरे अंदर चलते एक शांत पर सुन्न रास्ते से कितनी मिल रही है। मैं उस अठन्नी को लेकर उलट पलट कर देखता हूँ... सलमा हर एक पल को ढूँढता, हर एक पल चला गया गाती हैं।