अभी जहाँ बैठा हूँ उस कैफ़े का नाम है "लीपिंग विंडोज़"। यहाँ पहुँचने से बहुत पहले से इस जगह को जानता हूँ मैं। इसके बारे में पहली बार साल दो हज़ार चौदह में पता चला था। पता चला था कि मुंबई में फ़िल्मों में काम करने वाले तमाम लोगों का अड्डा है ये जगह। इसकी कुछ एक फ़ोटोज़ भी देखी थीं मैंने। कुछ एक फ़ोटोज़ देखकर ही इसके होने की पूरी कल्पना में लगातार करता। कैसा होगा उन सबका जीवन जो इस कैफ़े के अंदर बैठकर रचते होंगे? इसके आसपास रहने वाले लोगों का जीवन कैसा होगा? कितना मज़ा आता होगा ना आराम से बैठे बैठे कॉफ़ी पीते हुए अपना एक संसार रचना। जो लोग यहाँ आते होंगे वो कहाँ से आते होंगे और फिर कहाँ जाते होंगे? और जब एक साथ इतने सारे कलाकार एक ही छत के नीचे काम करते होंगे तो कैसा होगा माहौल? यह सारे सवाल और जाने क्या क्या मेरी कल्पना के हिस्सा थे।
मैं जब मुंबई आ गया तब भी इस कैफ़े के बाहर खड़े रहकर इसके अंदर बैठने की कल्पना करता रहता। बाहर से अंदर की तरफ़ झाँकता कि एक नज़र देख लूँ कि कौन सा कलाकार अंदर बैठा है। यह कैफ़े बस कैफ़े नहीं पर मेरी फ़ेबल का हिस्सा था जिसके अंदर कला का एक संसार बसता था। अब जब मैं इसके बाहर खड़े होकर इसे देखता तब मुझे यह ख़याल भी नहीं आता कि क्या मैं इसके अंदर जा सकता हूँ? शायद ख़याल आता होगा पर मेरे पास उतने पैसे थे नहीं कि यह ख़याल बहुत देर तक टीक पाए।
मेरी कल्पना में बहुत सारी कहानियाँ इस कैफ़े से निकली हैं। मैं चाहता था उस अंदर की दीवारों और इसके रंग को देखना जिसकी मैंने बस कल्पना मात्र ही की थी। मैं जब पहली बार अंदर आया तो थोड़ा असहज भी था। कोई दोस्त ही लेकर आया था मुझे यहाँ पहली बार या फिर मैं किसी से काम के सिलसिले में मिला था। मुझे याद नहीं। बात सिर्फ़ पैसों की नहीं थी। बात काम की भी थी। क्या मैं वैसा काम करने के क़ाबिल हूँ कि मैं इस कैफ़े में बैठकर बड़ी सहजता से अपना काम कर पाऊँ? क्या मेरे दिमाग़ के अंदर जो दुनिया है उसको इस जगह पर आकार मिलेगा कि कस्मक़स भी चलती रहती।
सिर्फ़ यह कैफ़े ही नहीं, इसके आसपास का पूरा यारी रोड और वर्सोवा का इलाक़ा ही मुझे मेरी किसी फ़ेबल से निकला हुआ लगता है। मैंने अपने पसंदीदा कलाकारों और लेखकों के क़िस्से इसी हिस्से से सुने हैं। एक एक मोड़ और एक एक मोड़ से मुड़कर निकलने वाली सम्भावनाएँ जादुई हैं। गली से गुज़रते हुए खेलती हुई बिल्लियाँ और आराम करते कुत्ते, ये पीपल का पेड़ जो मेरे सामने हवा में हिल रहा है, यहाँ साइकल पर चलते लोग, यह मंदिर-मस्जिद का मोड़ और कई सारे कैफ़ेज़, ये सब मेरी काल्पनिक कहानी का हिस्सा रहे हैं जिसे मैं अब जीने लगा हूँ। मैंने यहाँ के कई घरों में अपने कई फ़ेवरेट कलाकारों के होने की कल्पना तब की है जब वो मेरे दोस्त नहीं थे। अभी भी वो कल्पना कहीं ना कहीं झूलती रहती है।
मैं इस इलाक़े में नहीं रहता। यहाँ से सोलह सत्रह किलोमीटर दूर रहता हूँ। पर आजकल मेरा काम इधर ही है तो कुछ दिनों से एक दोस्त के घर पर इधर ही रह रहा हूँ। लीपिंग विंडोज़ तीन सौ मीटर की दूरी पर है जो इस पूरे इलाक़े को मेरे लिए एक सूत्र में बाँधता है। जब कभी पूरे दिन काम करके एकदम भर जाता हूँ तो यहीं की सड़कों पर ख़ुद को ख़ाली करने निकल पड़ता हूँ। दौड़ते हुए कई बार मैंने ख़ुद को ख़ुद से यह कहते हुए पाया है कि मैं एक फ़ेबल में जी रहा हूँ। वो सारे सुख कहें तो कहानी, जिसकी मैंने लगातार कल्पना करी थी, मैं उसका एक किरदार बन चुका हूँ।यहाँ कुछ लोग मुझे जानते हैं। मेरे काम को जानते हैं। मुझे लगता है वो मुझे पसंद भी करते हैं। कहीं से कहीं जाते हुए अक्सर मिल जाते हैं। सर हिला कर और पलकें झपकाकर हम लोग एक दूसरे को हेल्लो कहते हैं। मैं यहाँ नहीं रहता फिर भी यहाँ रहता हूँ। आजकल एक हफ़्ते से दीपक (डोबरीयाल) भाई रोज़ वॉक करते हुए मिल जाते हैं। हम एक बार एक दूसरे को दौड़ते हुए ही हेल्लो कहते हैं और अपने अपने संसार में चले जाते हैं। यहाँ जीते हुए, इस वाक्य को लिखते हुए जीवन बहुत ही सुंदर लग रहा है। कल रात मेरे writers room का आख़िरी दिन था और मैं उसके बाद आकाश के साथ दौड़ने गया। हम पाँच किलोमीटर दौड़े। पसीने ले लथपथ। मज़ा आया। हमने अपनी दौड़ लीपिंग विंडोज़ से शुरू करके लीपिंग विंडोज़ पर ही ख़त्म की थी। मैंने रात के अंधेरे में लीपिंग की फ़ोटो खिंची। यह फ़ोटो वर्सोवा इलाक़े की नहीं मेरी फ़ेबल की फ़ोटो थी। आज जब बड़े दिनों बाद यहाँ आने का मौक़ा मिला तो सोचा मुझे ये यहाँ दर्ज कर लेना चाहिए। जिस टेबल पर मैं बैठा हूँ मैंने उसकी फ़ोटो खिंची और Instagram पर डालकर लिखा "Writing a Fable. Writing about a Fable"।
हाँ मैं अपनी फ़ेबल ही जी रहा हूँ।
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