Tuesday 20 April 2021

एक ख़ुश आधा दिन

 कल मैं ख़ुश था। काफ़ी हल्का महसूस कर रहा था शाम में। यह ख़ुशी एक लहर की तरह पसरी हुई थी और बीच में आकर हिट करती। मुझे रुक रुक कर एहसास होता कि मैं ख़ुश था। मैं दिन से ख़ुश नहीं था। दिन में तो सब आदत सा चला जा रहा था। थोड़ा जीता और उस जीने से ढेर सारा बचा हुआ पड़ा रहता। ऐसी हालत कुछ दिनों से थी। अभी कुछ दिनों पहले ही कहीं लिखा था कि "या तो इच्छाएँ कम देते या दिन में अड़तालीस घंटे देते।" मुझे पता है मैं किसी ईश्वर से बात नहीं कर रहा था पर यह ऐसे ही आया तो इसे ऐसे ही लिख दिया। एक दिन का ना जी पाना दूसरे दिन में प्रवेश करता है और उसपर अपना भार बढ़ा देता है। मैं दिन को कई हिस्सों में बाँट कर रखता हूँ कि अब ये और तब वो। पर "ये" और वो "भी" "अब" और "तब" से सरककर कहीं और चले जाते हैं। मैंने पाया है मेरे अंदर एक तरह की क्रूरता है जिसका शिकार मैं ख़ुद हूँ। जल्दी सोने और जल्दी उठने के क्रम में मैंने सब बाँध रखा है। पर या बाँधा हुआ दिन आँखों के सामने सड़ने लगता है जैसे किसी खलिहान में किसी फ़सल का बोझा बाँध कर छोड़ दिया गया है। हर गुज़रता दिन यह बताता है कि मैं क्या नहीं जी पाया। नहीं जिए हुए की छाया में सारा अच्छा जिया हुआ भी निरर्थक लगने लगता है। ऐसे में किसी भी ख़ुशी के क्षणों की प्रतीक्षा होती है। और कल कुछ ऐसा ही हुआ था। 

दिनभर एक ही जगह बैठे बैठे कुछ पढ़ता रहा। लिखने से थोड़ी दूरी बना ली थी कि मेरी एक कहानी अटकी हुई है। उसके पास थोड़ी देर बाद जाऊँगा तो शायद उसे बेहतर समझ पाउँगा। बड़े दिनों से किसी भी तरह की exercise नहीं करी थी। शरीर भी एक तरह के ढेर में बदलता जा रहा था। अब दौड़ने जा नहीं पाता हूँ कि एक तो फिर से lockdown लग गया है, और दूसरी तरफ़ जिस सड़क पर दौड़ता था वो सड़क भी BMC वालों ने खोद दी है। पर कल मैंने शाम में थोड़ी देर योगा किया और मुझे शुरू करते हुए यह बिल्कुल पता नहीं था की उसका असर ये होगा। मेरे शरीर का मलबा उससे साफ़ हो गया था। मैं सच में ख़ुश था। अचानक से सब हल्का हो गया था। मैंने इस ख़ुशी के बारे में अपनी बहन को कई बार बताया। वो मेरी ख़ुशी देखकर ख़ुश थी। 

इसीबीच मुझे एक बात समझ आयी। मैंने अपनी बहन को बुलाया और उससे पूछा कि क्या उसे भी ऐसा ही लगता है। दरअसल, मैं अति वाला आदमी हूँ। जो करना है वो अति में करना है। अगर सुबह छः बजे उठना है और अगर मैं छः बजकर दस मिनट पर भी उठा तो ख़ुद को कोसने लगता हूँ। अलग रात दस बजे के बाद मुझे काम नहीं करना तो मैं किसी दरबान की तरह दस बजे पर खड़ा होकर सबकुछ दस बजे से पहले ही रोक दूँगा।  अब बेचारे बचे हुए ख़याल भी वहीं कहीं कोने में खड़े सुबह होने का इंतज़ार करते रहते हैं। फिर जब कभी नींद देर से आती है तो एक ख़याल ये भी चलता रहता है कि कल सुबह देर से होगी और अगर नहीं हुई तो एक ना सो पाने की थकान पूरे दिन शरीर से चिपकी रहेगी। फिर आता है अगला दिन। सही वक़्त से शुरू हो गया तो ठीक और ना हुआ तो समझो ऐसा लगता है किसी ने जेब काट ली। कटी जेब का मलाल पूरे दिन साथ चलता है।

अब इतने सारे समीकरणों में मैं इन समीकरणों की वजह भूल जाता हूँ। यह नियम इस वजह से बने थे कि मैं अपने अंदर फूटने वाली सम्भावनाओं को बेहतर जी सकूँ, पर होता इसका उल्टा है। मैं प्रवाह में बने रहने की बजाय उसे साधने की कोशिश में लगा हूँ और यह थका देने वाला काम है। कल जब योगा किया और थोड़ा आराम मिला और एक ख़ुशी का फूल रह रहकर खिलता रहा और उसकी ख़ुशबू मुझतक आती रही। मैंने अपनी इस क्रूरता की बात अपनी बहन से की। और उसने मेरी बात में हामी भरी। मैं जीवन को जीने की बजाय उसे सम्भालने और उसकी दिशा तय करने की कोशिश में लगातार लगा हुआ था। अभी भी मैं यही कोशिश करता हूँ। ख़ुद के लिए रह रहकर एक नया किरदार गढ़ता हूँ और उसे के अंदर क़ैद हो जाता हूँ, यह जानते हुए कि किरदार हो जाना मेरा होना नहीं है। 

कल से बड़ी इच्छा थी कि इस अद्भुत पल और इस ऊहापोह को लिख लूँ। यहाँ भी बहुत दिनों से नहीं लिखा क्योंकि यह भी एक काम लगने लगा था जो कभी काम की तरह शुरू नहीं हुआ था। कोशिश रहेगी उन सारे किरदारों को तोड़ने की जो मैंने ख़ुद अपने मन में ख़ुद के लिए बना लिए हैं और मैं जिनमें गाहे बगाहे क़ैद होता जाता हूँ। 

वैसे कल की ख़ुशी आज के दिन में छलक कर हल्की सी गिर पड़ी है। और मैं तबियत नासाज़ होने के बावजूद काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा हूँ। 

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