Thursday 23 January 2014

आज के हालात

कई बार जद्दोजहद में , दिमाग़ ये पथ्हर हुआ.
ये जो हो रहा है क्या इसे ऐसे ही होना था...

अब तक थे सब हैप्पी हैप्पी करते हुए गुलामी.
किसी नें इनकी बात करी तो इनको रोना था.

क्यों पुरखों नें खून बहाया,क्यूँ इतने बलिदान करे,
जब उनके बच्चो को मंजूर गुलाम ही होना था.

ये जो हो रहा है क्या इसे ऐसे ही होना था...

लूट रही थी अस्मत माँ की, जाने क्या क्या हो रहा था.
सवाल पूछने वाला अपना छोटा टॉमी सो रहा था.

राम नाम की रटन लगा के, चन्द सिक्को की हड्डी चबा के
जीभ तले अफ़ीम दबा के, इसको तो बस सोना था...

ये जो हो रहा है क्या इसे ऐसे ही होना था...

देख आज फिर हस्तिनापुर में इतिहास दूहराया
फिर से आज खड़ा दुर्योधन, धर्मयुध्य गरमाया..

कर चीर हरण भारत का, तुझे दुःसासन होना था.
ये जो हो रहा है क्या इसे ऐसे ही होना था...

एक संजय फिर से दिखा आज है, मीडीया नाम बताए.
रन्छेत्र की घटना भी सटीक ना ये बतलाए

सेवक वेवेक कुछ ना इसे, व्यापारी होना था.
ये जो हो रहा है क्या इसे ऐसे ही होना था...

Monday 13 January 2014

मुक्कम्मल है ये नींद तेरे ख़्वाबों से

मुक्कम्मल है ये नींद तेरे ख़्वाबों से
तुझसे मिलने की उम्मीद मे सो लेता हूँ.
एक मासूम सी तस्वीर तुम्हारी ,जैसे नदी का कल कल करता हुआ पानी...
जैसे सुबह के पाँच बजे मेरे ख्याबो में सूरज की रोशनी...
जैसे एक मंदिर की घंटी किसी ने हौले से बजा दी हो...
और उसकी आवाज़ कानों से होते हुए मेरी आत्मा तक आ रही हो..
और फिर मैं भी उस भंवरे की तरह हूँ
जो फूल पर बैठा हुआ बस उसे देख रहा है...
तो कभी उस बच्चे की तरह जो तितली के पीछे दौड़ कर ही खुश है.
और कभी उस कबीर की तरह जिसने अपने खुदा को अपना सब कुछ दे दिया हो.
तभी अलार्म बजता है, पर तुम्हारा हॅंगओवर कायम है.
ज़िंदगी की रेस मे मुझे आज फिर से दौड़ना होगा,
थोड़ी देर के लिए तुमसे फिर से बिछड़ना होगा.
ताकि जब दिन भर मैं थक हार कर आउँ
तो तुमसे मुलाकात हो सके.
फिर से वो पानी कल कल करता बह सके,
फिर से वो भँवरा उस फूल को देख सके.
फिर से वो बच्चा तितली के पीछे दौड़ सके
और फिर कोई कबीर किसी का पूरी तरह से हो सके.

काँच

कभी कभी किसी छोटी सी ही बात पर कुछ ऐसा महसूस हुआ
जैसे अंदर दिल के रखा काँच चटक सा गया हो.

ना जाने कितनी ऐसी चटकने आई हैं इस पर,
हर बार लगता है बस अब ये चकनाचूर हुआ.

पर ढीठ है ये भी मेरी तरह,
मेरी हर उदासी को उसकी उम्र तक संभाल कर रखता है.

और मेरी उदासी भी पानी का उस बुलबुले की तरह ही तो है,
जो पल में बनता और पल में बिखरता रहता है.


इस काँच के चटकेने में किसी का अपराध नहीं है,
इस अजीब सी घुटन में ना ही किसी की हिस्सेदारी है.

खुद के मन में रखी किताबे पढ़ता हूँ, फिर कहानिया गढ़ता हूँ,
कोई और कहाँ वजह है इसकी, ये तो मेरी अपनी बिमारी है.

इस काँच में मुझे आज कोई उदासी तो नहीं दिखती,
पर आज भी सारी चटकने इसके जिस्म पर ज़िंदा हैं.