Monday 13 January 2014

काँच

कभी कभी किसी छोटी सी ही बात पर कुछ ऐसा महसूस हुआ
जैसे अंदर दिल के रखा काँच चटक सा गया हो.

ना जाने कितनी ऐसी चटकने आई हैं इस पर,
हर बार लगता है बस अब ये चकनाचूर हुआ.

पर ढीठ है ये भी मेरी तरह,
मेरी हर उदासी को उसकी उम्र तक संभाल कर रखता है.

और मेरी उदासी भी पानी का उस बुलबुले की तरह ही तो है,
जो पल में बनता और पल में बिखरता रहता है.


इस काँच के चटकेने में किसी का अपराध नहीं है,
इस अजीब सी घुटन में ना ही किसी की हिस्सेदारी है.

खुद के मन में रखी किताबे पढ़ता हूँ, फिर कहानिया गढ़ता हूँ,
कोई और कहाँ वजह है इसकी, ये तो मेरी अपनी बिमारी है.

इस काँच में मुझे आज कोई उदासी तो नहीं दिखती,
पर आज भी सारी चटकने इसके जिस्म पर ज़िंदा हैं.

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