Wednesday 20 August 2014

अधूरी नज़्म...

वो आयीं और लौट कर चली गयीं
पर मैं ही उस वक़्त कहीं और था.
अभी भी कहीं हैं मेरे अंदर ही
कुछ नज़मेँ जो अपना आकार नहीं ले पाईं हैं.

जब भी थोड़ा इतमीनान से बैठता हूँ

हिचक़ियों से उनके होने का एहसास होता है
जैसे मेरे अंदर ही कहीं पलने लगी हैं ये
पर ढंग से बाहर नहीं आतीं.

जी में आता है बस मार ही दूँ,

परेशान जो इतना करती हैं
पर अपने गर्भ के बच्चे का कत्ल भी करूँ तो कैसे?
सोचता हूँ किसी दिन फुरसत के कुछ पल निकाल
बैठ कर दो एहसासों के घूँट लगाऊं
और एक मुस्त उतार दूँ पन्ने पर.
पूरी रात उधेड़ दूँ इनके लिए
और देखूँ ज़िंदा करके इन्हें
की इनकी शक्ल कैसी है

© Neeraj Pandey