Thursday 25 June 2015

एक पन्ना : रात की चाय

कभी गौर किया है तुमने ? रात के कुछ ढलने के बाद कई बार एक तलब चढ़ती है… चाय या कॉफ़ी पीने की । ये वो तलब होती है जब चाय या कॉफ़ी में से कुछ भी मिल जाये तो काम हो जाता है । तुम्हारे पास ऑप्शन ढूंढने के कोई हालात बचते ही नहीं । जो भी सामने आता है वो तुम स्वीकार करते हो, या कहो कि उसमें घुल लेते हो । अक्सर रात के बारह बजने के आस पास या उसके बाद मेरी भी यह इच्छा तीव्र हो जाती है । कई बार दोस्तों के साथ या अकेले एक प्याली चाय या कॉफ़ी ढूंढने निकल पड़ता हूँ । बैंगलोर के कई चौराहों, नुक्कड़ और गलियों में कुछ दूकानदार स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी के नीचे अपनी साइकिल पर चाय के थरमस के साथ सिगरेट और चकली लिए अक्सर खड़े होते हैं । और उनके आस पास होती है, दस से पंद्रह लोगों की भीड़, चाय या सिगरेट पीते हुए । सब अपनी बाइक और गाड़ियों को रोक कर चाय का लुत्फ़ ले रहे होते हैं । मैं उन्हीं में से किसी एक नुक्कड़ पर चाय पीने निकल जाता हूँ … जहाँ भी मिल जाए । बैंगलोर की हल्की ठंढी रातों में किसी बंद दूकान की सीढ़ियों या किसी फूटपाथ पर बैठ कर समय को गुज़रते हुए देखना मुझे पसंद है । 


खैर बात हो रही थी चाय की... दरअसल रात की चाय को बस 'चाय' कहना अपराध होगा...लेखन की भाषा में कहूँ तो बड़ा ही फ्लैट होगा । रात की चाय एक टोकन है कुछ और वक़्त खरीदने के लिए… नींद की आगोश में जाने से पहले अगर रात थोड़ी और जी जा सके इसकी सम्भावना लिए हर चाय की प्याली आती है । भले ही देर रात गली नुक्कड़ पर बिकने वाली चाय हो या घर में देर रात बनाई हुई मेरी कॉफ़ी । ये सभी एक टोकन हैं, जो मुझे थोड़ी और देर जगाने में मदद करते हैं । मुझे रात पसंद है, रात में बाहर निकलो तो ऐसा लगता है आसमान मानों एक बड़ा सा तंबू तना हो और टिमटिमाते तारे ऐसे जैसे उस तंबू में लगी छोटी छोटी लाइट्स, और रात के इस वक़्त इस तम्बू के नीचे चल रही बहुत सी कहानियों को थोड़ा ठहराव मिलता दिखता है… एक कहानी शुरू होकर अपने एक मोड तक आती दिखती है, जैसे दिन के पाँव दुःख गए हो और वो रात के पीछे छुप कर थोड़ी देर आराम करना चाहता हो । मुझे यह सब देखना बहुत पसंद है, अलग अलग किरदारों को देखना, उनको गढ़ना, उनके बारे मे सोचना ये सब उसी तंबू के तले होते हैं | मैं रात में सोना बस मजबूरी से करता हूँ। मैं कभी अपनी छत पर बैठे बैठे पूरी रात, रात के साथ सफर करना चाहता हूँ, तब तक, जब तक रात सरकते-सरकते सुबह ना बन जाये… पर ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता । पर मेरी कॉफ़ी का मग या प्याली की चाय मुझे कुछ और देर जागने में मदद करते हैं , इसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ । मेरे लिए दिन और रात के अलग अलग वक़्त पर गटके गए प्यालों का अलग अलग मतलब है । 
खैर अभी अभी बाहर से आया हूँ , आज कोई चायवाला नहीं मिला । मैं अनायास ही लगभग तीन किलोमीटर का सफर कर के खाली हाथ वापस आ गया । रसोई में जाकर देखा तो थोड़ा दूध बचा हुआ था … जैसे मेरे लिए ही छोड़ा गया हो । रात के एक बज रहे हैं … और मैं अपनी कॉफ़ी बना रहा हूँ ।




© Neeraj Pandey

Saturday 20 June 2015

जीवन प्रवाह

हर गर्मी की कोशिश होती है 
ज़रा सी ठंढक में घुल जाना, 
और वैसी ही कोशिश
ठंडक की गर्मी की तरफ.… 

रात दिन में घुल जाती है 
और दिन बढ़ता है धीरे धीरे 
रात की तरफ.… 

समंदर का पानी भी घुल रहा है 
बादलों में,
फिर.… बादल भी नदी में बहकर 
घुल जाते हैं समंदर में 

जीवन काल में घुल रहा है 
जैसे पल पल.…  
काल भी धीरे धीरे 
जीवित हो उठता है । 

सब कुछ घुल रहा है,
एक दुसरे में जैसे,
खुद को थोड़ा थोड़ा खोकर 
घुल जाना ही 
जीवन की शुरुआत है । 

© Neeraj Pandey

Tuesday 9 June 2015

ग़ार्बेज इन ग़ार्बेज आउट...


हम पैदा किए जा रहे हैं, ऐसे लगातार...
जैसे फोटो स्टेट की मशीन
ऑटोमोड़ पर डाल रक्खीं हो |

वो  जितनी भी औरतें कर रक्खीं हैं
पेट से  हमने...
हमारी गलती थी ही नहीं,
हम कामुक इतने थे कि ये काम तो बकरी
 या किसी जानवर से  भी ले लेते हम |

ये जो रेंग रहे हैं, हमारे आस्  पास
हमें अपना 'बाप' बतलाते
और हम भी जिनको ठाट से
 बतला रहे  हैं... ' भविष्य'
दरअसल इनके पाँव अभी भी
भूतकाल  में लटके हैं|

ये जो विचारों से गूँगे बहरों की फौज खड़ी कर रक्खीं है,
ये भी हमारी तरह भीड़ में भेड़ बनने वाले हैं|

... और अगर हमने पाल  रक्खीं है कोई गलतफहमी
इनके अ‍ॅलौकिक होने की
तब यही जानना बेहतर होगा
ये हमसे भी बद्त्तर मौत मरेंगे|

जीवन दर्शन के नाम पर हमने बांचे हैं बस...
कुतर्क
और करनी के नाम पर...
हवस की गैर जिम्मेदाराना हरकतें|
विरासत में  हम दे  जाएंगे इन्हें
गिरते बाल, बढ़ते पेट,
गंदी शक्ल और बांझ सोच...

क्योंकि कल निकलेगा इसी आज से,
और आज में हमने कर रक्खीं है
खूब सारी टट्टी |

ग़ार्बेज इन ग़ार्बेज आउट...

© Neeraj Pandey

Friday 5 June 2015

अपने गांव की तलाश में...

सफर के दौरान
मुझे एक गाँव दिखता है
जो मेरा नहीं हैं …

मैं थोड़ी देर रुककर
देखता हूँ उसे ,

गाँव में पसरी चाँदनी
और रुनझुन सन्नाटे के बीच
दिखते हैं कई घर
नजर आते हैं कुछ लोग |

एक छोटा सा मैदान,
बच्चों का ,
पूरे दिन खेलकर थक गया है |
एक हैंड पम्प,
जिसने उचक-उचक कर
पिलाया है दिन भर पानी
दोनों एक साथ ही अब ऊंघ रहे हैं|

खेत खलिहान के पेड़ों ने
साध ली है चुप्पी
और बोझे भी पलथि मारे
बैठे हैं चौपाल में।

एक छोटा सा तालाब भी है,
जिसमें चंद्रमा सो रहा है
और एक जीवन रेखा सा लंबा
रास्ता जोड़ रहा है इन सबको।

कुछ घरों के बाहर बल्ब
नाईट ड्यूटी पर
मुस्तैद खड़े हैं ,
और दूर उछलते पटाखे भी
मना रहे हैं
जीवन का जश्न |

...मै इस गांव को देखकर
ये सोचकर मुस्कुरा पड़ा
शायद यूँ ही सफर में कभी
 मैँ ढूँढ निकलुंगा अपना गाँव |

-नीरज पाण्डेय