Friday 5 June 2015

अपने गांव की तलाश में...

सफर के दौरान
मुझे एक गाँव दिखता है
जो मेरा नहीं हैं …

मैं थोड़ी देर रुककर
देखता हूँ उसे ,

गाँव में पसरी चाँदनी
और रुनझुन सन्नाटे के बीच
दिखते हैं कई घर
नजर आते हैं कुछ लोग |

एक छोटा सा मैदान,
बच्चों का ,
पूरे दिन खेलकर थक गया है |
एक हैंड पम्प,
जिसने उचक-उचक कर
पिलाया है दिन भर पानी
दोनों एक साथ ही अब ऊंघ रहे हैं|

खेत खलिहान के पेड़ों ने
साध ली है चुप्पी
और बोझे भी पलथि मारे
बैठे हैं चौपाल में।

एक छोटा सा तालाब भी है,
जिसमें चंद्रमा सो रहा है
और एक जीवन रेखा सा लंबा
रास्ता जोड़ रहा है इन सबको।

कुछ घरों के बाहर बल्ब
नाईट ड्यूटी पर
मुस्तैद खड़े हैं ,
और दूर उछलते पटाखे भी
मना रहे हैं
जीवन का जश्न |

...मै इस गांव को देखकर
ये सोचकर मुस्कुरा पड़ा
शायद यूँ ही सफर में कभी
 मैँ ढूँढ निकलुंगा अपना गाँव |

-नीरज पाण्डेय