Wednesday 23 December 2015

फाइंडिंग फैनी/कल्पना और यथार्थ के बीच की चिट्ठी

साल खत्म हो रहा है, और इस साल कुछ कमाल की फिल्में आई हैं। मसान, तलवार, दम लगा के हईशा, NH 10, तमाशा वगैरह मेरी इस साल की लिस्ट में कुछ अच्छी फिल्में हैं। दूसरी तरफ कुछ और फ़िल्में हैं जो मैंने पिछले साल यानि कि 2014 में देखी थीं पर उनका हैंगओवर मैं अभी तक महसूस करता हूँ | उनमें से आनंद गांधी की ‘शिप ऑफ़ थीसियस और रजत कपूर की ‘आँखों देखी‘ हैं। ये दोनों फिल्में मेरे साथ साथ बढ़ रही हैं। हर रोज़ मैं इन फिल्मों को अपने आस पास घटित होता हुआ देखता हूँ। पर साल 2014 में एक और फिल्म रिलीज़ हुई थी जो उस वक़्त मुझे बहुत पसंद आई थी पर मैंने उसे दुबारा कभी नहीं देखा। यह फिल्म कहीं न कहीं उस इम्पोर्टेन्ट नोट की तरह थी जो साल के कलैंडर में कहीं खोकर रही गई। वो फिल्म है 'फाइंडिंग फैनी'| आज जब मेरा दोस्त ये फिल्म देख रहा था तो मुझे लगा जब ये अचानक से सामने आ ही गया है तो इस इम्पोर्टेन्ट नोट को दुबारा से पढ़ना चाहिए।

2014 में फिल्म की रिलीज़ के बारे में अगर विकिपीडिया की मानें तो 'फाइंडिंग फैनी' एक कॉमेडी फिल्म हैं। पर मेरे विचार में यह फिल्म कॉमेडी की सतह से काफ़ी अंदर की तरफ गोता लगाती है, और हमारी स्मृति की कल्पनाओं और वर्तमान के यथार्थ के बीच की कोई जगह तलाशती है, जिसे हम सब अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से तैयार करते हैं।

फ्रेडी (नसीरुद्दीन शाह) जो कि लगभग 60 साल का एक बुज़ुर्ग है| उसे एक रात एक खत मिलता है जो उसने उस लड़की स्टेफनी फर्नांडिस (फैनी) के लिए लिखा था, वो आज भी जिससे  प्यार करता है| इस बात को 46 साल बीत चुके हैं, पर ये खत फैनी तक कभी पहुँचा ही नहीं और फैनी को तो पता ही नहीं है कि फ्रेडी उसके बारे में क्या सोचता है।
एंगी (दीपिका पादुकोण) जो कि एक यंग विडो है को ये बात पता चलती है और वो फैनी को ढूंढने में फ्रेडी की मदद करना चाहती है। इसमें उसका साथ देने के लिए ‘रोज़लिन’ (डिम्पल कपाड़िया), ‘पेंटर डॉन पेद्रो’ (पंकज कपूर) और एंगी का बचपन का दोस्त ‘सवियो’(अर्जुन कपूर) एक साथ आते हैं। इन सबकी ज़िंदगी के अधूरेपन की अपनी अलग कहानी है, जिससे ये जूझ रहे हैं| फैनी को ढूंढने के दौरान एक दूसरे से तालमेल बिठाते उस टुकड़े को ढूंढने की कोशिश करते हैं जिसे पाकर वो थोड़ा संतुष्ट महसूस कर सकें। हम सबकी तरह...

यह फिल्म दरअसल ‘फैनी’ की खोज कम और के उस टुकड़े की ख़ोज ज़्यादा है जिसकी तलाश जाने अनजाने हम सबको है| और यह उम्मीद भी कि शायद उसके मिल जाने पर हमें 'पूरा' होने का एहसास हो। फैनी को ढूँढ़ते हुए इन पाँचों का रास्ता भटक जाना और उस भटकने में एंगी और सवियो के उस प्यार का मिलना जो शायद वक़्त के साथ बंट कर अलग अलग दिशाओं में चला गया था | …थोड़ा भटककर खुद को पाने वाला एहसास तो है ही, जिसकी कल्पना हम हमेशा करते रहे हैं। पर एक दुसरे को पाने के बाद भी वहाँ एक अनिश्चितता का बना रहना और फिर भी उस अनिश्चितता में भी प्यार का पनपना, यथार्थ के धरातल की कहानी कह जाता है। इन सारे भटकने, खोने और मिल जाने के बीच मैं ये देखना चाह रहा था की फ्रेडी जब फैनी को मिलेगा तो उससे क्या कहेगा? ...कैसा महसूस करेगा वो, जब वो अपनी ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत एहसास से मिलेगा, जो ज़िन्दगी जीने के तरीकों के बीच खोकर बस उसकी कल्पनाओं में इस उम्र तक ज़िंदा है।  ...और फ्रेडी की फीलिंग्स जानकर फैनी कैसा महसूस करेगी? कैसे रियेक्ट करेगी वो? 

फ्रेडी की नज़रों में फैनी आज भी वैसी ही है, जैसा उसने उसे आख़िरी बार देखा था। बिल्कुल हमारी कल्पनाओं की तरह जैसे हम अपने किसी खूबसूरत पल का स्क्रीनशॉट लेकर रख लेते हैं, और हमें उम्मीद होती है की वो चीज़ आज भी वैसी ही होगी| शायद हम उसकी खूबसरती के तिलिस्म से कभी निकलना नहीं चाहते| पर यथार्थ के सामने आने पर उसकी शक्ल इतनी बदल चुकी होती है कि हमें कुछ वक़्त लगता है हमारी कल्पनाओं और यथार्थ के बीच  सामंजस्य ढूंढने में। ठीक इसी तरह जब आखिरकार फ्रेडी फैनी को मिलता है तो अपनी पुरानी कल्पना की वजह से फैनी की बेटी को फैनी समझ बैठता है, जो हू-बहू जवानी के दिनों की फैनी जैसी दिखती है| पर तुरन्त ही उसे पता चलता है कि फैनी तो मर चुकी है। वो ताबूत में लेटी हुई फैनी की  तरफ देखता है, पर ये क्या... फ्रेडी खुद भी उसे पहचान नहीं पाता। पर वो खुद की तसल्ली के लिए उसकी बेटी से पूछता है कि “क्या फैनी ने कभी उसका नाम  लिया था? क्या फैनी ने कभी उसके बारे में कोई बात की थी?” क्योंकि फ्रेडी को यह भी लगता है कि फैनी उसका  इंतज़ार अब तक कर रही थी। और वो इसी उम्मीद से उसे ढूँढ रहा था कि जिस फैनी को वो पिछले 46 साल से भूला नहीं है, उसे भी उसकी याद तोहोगी ही। पर दुबारा यथार्थ फैनी की कल्पनाओं पर भारी पड़ता है "फैनी ने उसे कभी याद नहीं किया। फैनी की बेटी ने तो कभी फ्रेडी का नाम भी नहीं सुना।" यह पूरा सीन देखकर मैं फ्रेडी के लिए एक दुःख से भरा बस मुस्कुराता रहा (इस एहसास के लिए शायद एक नए शब्द की ज़रुरत है|) । क्योंकि मैं सच में चाहता था कि फ्रेडी एक आखिरी बार तो फैनी से मिल ले। कम से कम वो फैनी को बता तो दे कि वो उसके बारे में क्या सोचता है। पर यहाँ तो फैनी को फ्रेडी का नाम तक याद नहीं है|

पर जैसा कि कहते हैं कि "हर अंत के बाद एक शुरुआत भी पनपती है।" ठीक वैसे ही फिल्म का हर कैरक्टर इस सफर के दौरान अपनी ख़ुशी पाने की एक नई शुरुआत फिल्म के अंत में करता है। और अपनी कल्पनाओं से निकल यथार्य को चुन लेता है| पर ये तो फ्रेडी की कहानी थी। हमारी ज़िन्दगी में यथार्थ और कल्पना दोनों में से किसे चुनने का सुख ज़्यादा है वो तो तब ही पता चलेगा जब हमारी कल्पनाएँ हमारे अपने यथार्थ से टकराएंगी।  पर अभी के लिए मैं यही कहूँगा कि "लिखी हुई चिट्ठियों को वक़्त रहते उनके पते पर पहुँचना बहुत ज़रूरी है।" क्या पता कब कौन सा लिफ़ाफ़ा खुलकर हमारी 'कल्पना' को 'यथार्थ' में  बदल दे।
(आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है।)
- Neeraj Pandey

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