Saturday 2 January 2016

नाटक शुरू होने से ठीक पहले...

अँधेरे में, साफ ना दिखना
कई सारी कल्पनाओं को
जन्म देता है।

सामने खेले जाने वाले
नाटक की परिकल्पना मात्र
एक कुलबुलाहट पैदा करती है।

ये कुलबुलाहट, हमेशा
एक उम्मीद के साथ आती है,
और, मेरे सामने
तैयार करती है - एक दृश्य
सुनहरी रौशनी का...

एक नाटक ठीक मेरे सामने
जीवित हो उठता है।

... वाह!

इसके किरदारों को देखने की,
जानने की, मिलने की इच्छा
इस कुलबुलाहट को
गुदगुदी में बदल देती है...
और, मैं उनसे मिलने
मंच पर पहुँच जाता हूँ

पर यहाँ इनकी आवाज़े
बदली हुई हैं,
उनके चेहरे कुछ और हैं...
मैं उन्हें उनकी पहचान बताता हूँ
- वो मुकर जाते हैं।
मैं कहता हूँ - "मैं तुम्हें जानता हूँ",
- वो हँस पड़ते हैं।
उनकी हँसी मुझे अट्टाहास लगती है।

वो अपना संवाद भूलकर
कुछ और बड़बड़ाते हुए,
कहीं और चले जाते हैं।
दृश्य गायब हो जाता है,
गुदगुदी, सिहरन में
तब्दील हो जाती है...

मेरे दर्शक से पात्र बनते ही
कहानी बदल जाती है|
... परदे के उठते ही
मेरी कल्पनाओं वाला नाटक
ख़त्म हो जाता है।

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