Tuesday 13 February 2018

कुछ छूट रहा है...

कुछ छूट रहा है... छूटता जा रहा है। एक हल्का सा धुँधला धुँधला सा कुछ एक दूरी पर रखा हुआ सा दिखता है। जहाँ धरती आकाश से मिलती है उतनी दूर पर। या तो मैं उससे दूर निकल आया हूँ या वो मेरा साथ छोड़कर जा रहा है। क्या वो सच में मुझे छोड़कर जा रहा है? कल रात भी ऐसा ही ख़याल आया, सोते वक़्त। लेटे लेटे ऐसा लगा मैं नहीं कोई और लेटा हुआ है। जो मुझे या कहूँ कि जो दूर होता हुआ दिखता है उसे पहचानता है। उसकी आदतें इसी घर में देखीं हैं इसने। एक बेचैनी रहती थी उसमें, एक बहती हुई सी तड़प...सामने काग़ज़ और बस वो लिखता चला जाता था। उस साल कितनी कविताएँ लिखी थी उसने...कुछ बीस के आस पास। उसके पास बाहर बाज़ार का काम नहीं के बराबर था शायद इसीलिए एक जगह थी कविताओं की जो बनती जा रही थी। पर आजकल कविता लिखना बंद है, मैंने लेटे लेटे सोचा। तीन दिन पहले एक कविता लिखी थी सच के धुँधले होने की...पर पूरी नहीं की। ऐसी कई सारी कविताएँ अधूरी पड़ी है बस इसीलिए कि  मुझे लगता है मैं शायद वही बात कहीं फिर से तो नहीं बोल रहा। क्या मैंने उस आदमी से बात करना कम कर दिया है? कविता छोड़ कर बाक़ी की लिखाई अपनी जगह पर सही है। बाहर बाज़ार से भी वैसा ही काम मिलना शुरू हो गया है जैसा काम मुझे करने में मज़ा आता है। घर और अपने आसपास और काम की चीज़ें भी ऐसे सजा ली हैं जैसी कभी मेरी कल्पना थी...सब सुंदर है पर जब कभी कभी उसकी याद आती है जो दो साल पहले कविता लिख देता था बिना कुछ सोचे समझे तो लगता है वो लड़का ज़रा दूर होता जा रहा है। इसकी एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि  सिर्फ़ पढ़ने के लिए पढ़ना और उसका रस लेना पहले से कम हो गया है। क्या वो जो था अब सचमुच दूर हो रहा है या मैंने ही उससे बात करना कम कर दिया है?

आज कल एक और नई चीज़ मेरे साथ हो रही है। रात में सोते हुए जब नींद और जागने के बीच की पगडंडी पर होता हूँ तो एक क्षण के लिए बंद आँखों के सामने ऐसे चित्र आते हैं जिन्हें देखकर लगता है मैं कहीं और हूँ अपने बिस्तर पर नहीं। 'मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ और मुझे अभी यहाँ नहीं होना चाहिए' का ख़याल आने वाले कल में किए जाने वाले काम को बचाने के लिए झट से आता है। अगले ही पल मुझे समझ में आता है कि मैं कहीं और नहीं अपने बिस्तर पर ही हूँ, आराम करने के लिए। नींद आ जाती है। अभी यह लिखते हुए मुझे बैंगलोर की याद भी आयी। वहाँ भी मैं रात में दोस्तों के साथ निकल जाता था चाय पीने, कोरमंगला बस डीपो की सीढ़ियों पर बैठ कर बातें किया करता था। तभी सिगरेट पीने की आदत भी लगी थी। हम लोग घंटों बैठ कर अपनी ज़िंदगी और सपनों की बात किया करते थे। सोनी सिग्नल के चक्कर और एक आने वाले कल के सपने लिया करते थे। कुछ बहता था अंदर ही जैसे एक नदी अभी अभी खुली हो। मुझे याद है एक रात में बैठकर मैंने नाटक के बड़े बड़े हिस्से लिखकर ख़त्म किया है। उस बात को तीन साल से ज़्यादा होने को हैं अभी मैं मुंबई में हूँ। जो सपने पहले देखे थे उसमें से कई सारे मैंने जी लिए हैं और कई सारे सपने आने वाले वक़्त के लिए फूट रहे हैं। पर वो आदमी जिसने सपने देखे थे उसका एक बड़ा हिस्सा अब दूर खड़ा दिखता है। जानता हूँ किसी दिन अगर वक़्त निकालकर उसको प्यार से बुलाकर उसके पास बैठूँगा तो बात करेगा क्योंकि बीच बीच में वो आता रहता है अपनी झलक दिखलाने। ग़लती मेरी भी है ही मैंने भी अपने दिन में उसके लिए अलग से जगह नहीं रखी है। बैंगलोर वाले फक्कड़ लड़के पर अभी मुंबई वाला लेख़क हावी है जो एक तरीक़े से लिखता है जैसे खेत की मेड बना रहा हो...काट काट कर।

मुझे कई बार रह रह कर उसकी भाषा याद आती है। उसका चीज़ों को देखने का नज़रिया। वो बह जाता था एक क्षण का सीरा पकड़े और घूम आता था उस विचार के हर कोने में। मुझे वो पसंद है, मैं उसे खो नहीं सकता। धीरे धीरे उसके लिए वक़्त निकालने की ज़रूरत है। उससे फिर से बात करने की ज़रूरत है क्योंकि ये जो आज जी रहा है वो उसकी ही मेहनत है, उसके ही सपने हैं। उसका इसपर पहला अधिकार है मुझपर क्योंकि जब कोई नहीं था तो वही था मेरे साथ। अपनी बात कहता...मेरी सुनता और कविताएँ लिखता।

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