Thursday 15 February 2018

सुख के दुःख...


कोई भी अच्छी ख़बर कभी अकेले नहीं आती। वो आते हैं जैसे आते हैं बादल। जितनी अच्छी ख़बर उतने घने बादल। घने बादलों का मतलब होता है घनी बारिश। ये ख़ुशी के बादल हैं बादल भी आते हैं एक दुःख के ख़याल की बारिश को साथ लेकर। लगता है कभी भी बरस जाएँगे। मैं अभी हल्की हल्की ठंड जो महसूस करना शुरू करता ही हूँ कि दिमाग़ में इन बादलों के बरस जाने का डर अगले ही पल आ जाता है। पर यह बस एक ख़याल है जिसे मैं अक्सर अपने आस पास मँडराता देखने लगा हूँ।  मिडल क्लास में बड़े हुए हर व्यक्ति की यही कहानी है। 'हवा में ज़्यादा मत उड़ो, गिरोगे तो उठ नहीं पाओगे', 'जितना ख़ुश हो रहे हो ना उतना रोना भी पड़ेगा'  जैसी बातें आम हैं। हम सब ऐसी बातें सुनते हुए बड़े हुए हैं। एक आभाव में...मैं जब बड़ा हो रहा था तो मेरे सामने सबसे बड़ा अभाव था संभावनाओं का। सिर्फ़ मेरे पास ही नहीं, आस पास हर तरफ़। इन्हीं संभावनाओं  के आकाल ने देश में इतने सारे इंजीनियर पैदा किए हैं।

बिहार के एक छोटे से क़स्बे में बड़े होते हुए अपने दिमाग़ ये यह बात धीरे धीरे घर करती गयी कि जो भी अच्छा है वो यहाँ से बाहर है। वहाँ से निकलने पर ज़िंदगी बेहतर हो जाएगी कि की बातें आम थीं। एक रोशनी जैसा ऐहसास होता था कि बस इस परीधि से बाहर निकले और उस रोशनी का हिस्सा हो जाएँगे। कल सुंदर होगा। एक वक़्त वो भी आया जब उससे बाहर निकल ही गए। अब बाहर बेहतर तो था पर बिल्कुल वैसा कभी नहीं हुआ जैसी कल्पना थी। उस जगह के अपने संघर्ष और आभाव थे। और अगर मैं ठीक हूँ तो अक्सर ये आभाव मानसिक तौर पर ज़्यादा रहे हैं जो कहीं ना कहीं अपनी परवरिश से जुड़े होते हैं।

कभी कभी तो ऐसा होता है कि मैं किसी वजह से बहुत ख़ुश हूँ और फिर दिमाग़ उसमें दुःखी  होने के बहाने ढूँढने लगता है। शायद इसे दुःखी होना कहना ठीक नहीं होगा पर उतने ख़ुश ना होने के बहाने...फिर यह धीरे धीरे फैलता है और मैं कल्पना करता हूँ अपनी दुनिया में उस बात की जो मेरे साथ सबसे बुरी हो सकती है। दिमाग़ ख़ुद को बतलाता है शायद कि ये मेरे साथ मुमकिन नहीं। या फिर इसको आदत है एक ऐसे अभाव की, जिसकी जगह यह तैयार करता रहता है। मेरे जानकार और दोस्तों के साथ भी अक्सर ऐसा होता है मैंने सुना है। पर मैंने इसका यह पैटर्न पकड़ लिया है और शायद यही पैटर्न है जिसे पकड़ कर भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी कविता ‘सुख का दुःख’ लिखी होगी। अभी जब मुझे इसका यह पैटर्न दिखने लगा है तो मैं इसके साथ भी खेलता हूँ। पर इस सुख के दुःख की आदत पुरानी है जो शायद धीरे धीरे ही जाएगी। तब, जब अभाव थोड़ा कम होगा और सम्भावनाओं की ज़मीन पर छोटे छोटे फूल खिलकर कहेंगे कि ‘देखो यह होना मुमकिन था/’

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