Wednesday 23 April 2014

कुछ वक़्त मिले अपने साथ..

शाम के छः बज चुके है, अपने ऑफीस की सीट पर बैठे- बैठे बाहर जाती हुई सड़क पर देखा, कुछ लोग बैग लटकाए अपने अपने घर जाने को तैयार है, वही पास में ही एक चार लोगो का समूह सिगेरते और चाय पीते हुए पूरे दिन की थकान मिटा रहा है, और वो चाय की टपरि मुझे टपरि कम और समाज सेविका ज़्यादा लग रही है. एक भाई साब अपनी बीवी को फोन कर के अपने ऑफीस से निकल जाने की सूचना दे रहे है, और उन्हे इस बात की खुशी है की आज वो अपने वैवाहिक जीवन को बेहतर दिशा दे पाएँगे.

मैं बाहर ये नौ से पाँच वाली दुनिया को देख ही रहा था, तभी मुझे याद आया की आज तो मुझे घर जल्दी निकलना था...(जी हाँ छः बजे घर के लिए निकलना जल्दी होता है) मेरे दिमाग़ मे आज ऑफीस से घर जाकर करने वाले सारे कार्यक्रम की रंगोली सी तैयार थी, कितना सुखद अपनी छत पर बैठ कर पास वाले पेड़ से बातें करना, बच्चो को गली मे खेलते हुए देखना, पास ही किसी दोस्त से मिल कर आना या फिर अपने हाथों से खुद के लिए कुछ पकाना.

पर तभी मेरी सारी कल्पनाओ को चकनाचूर करता हुआ सबमिशन बीच मे आ टपका, अब शायद दस बज़ेंगें....

मानो ऐसा लगा जैसे वहीं गली में खेलते हुए किसी बच्चे की साइकल मेरी रंगोली के उपर से निकल कर चली गई हो.

रंगोली बिखर गई थी.

हर रोज़, बार बार यही तो होता है, और मैं भी अपने मन को मना कर यह कहता रहता हूँ , अरे पगले चल कोई बात नहीं, आज एक दिन और सही, कल से वक़्त पर निकल जाया करूँगा.

पर कहाँ...

ये सिर्फ़ मेरी हालत नहीं है, मेरे जैसे जाने कितने लोग हैं जो इस रुबिकू की पहेली में उलझे हुए हैं, और वो बहूत कम लोग हैं जिन्हे ये पहेली सुलझाने आ गई है. हमसारे लोग उस प्रॉजेक्ट रूपी दानव से रोज़ डटकर मुकाबला करते हैं, और यह कम्बख़त भिन्न भिन्न रूप धरकर हमारे सामने आता रहता है ,मानो हमें चिढ़ा रहा हो. कभी एफीशियेन्सी तो कभी डेडलाइन तो कभी सबमिशन. अपना मास डालकर हम लोग इसका पेट भरते है, पर ये दानव है... दानव, ये कभी संतुष्ट नहीं होगा.


ऐसा भी नहीं की हमें इससे मोहबत्त नहीं है, ये कम्बक्त दानव से पहले महबूब ही हुआ करता था, पर किस आशिक़ को ये पसंद होगा की उसकी मोहब्बत का बार बार इम्तहान लिया जाए?

सच कहूँ तो ये मुझे बस एक परछाई की तरह लगता है, जिसके पीछे हम सब भाग तो रहे हैं पर ये परछाई कभी हाथ नहीं आने वाली. और दिन के ढलने के साथ ये भी विलूपत हो जाएगी, शायद तब कहीं जाकर हमें अपनी शक्ल देखते का वक़्त मिले, और शायद तभी हमें इस बात का भी एहसास हो की इसके पीछे भाग भाग कर हमारे चेहरे पर कितनी धूल जम गई है, और अगर हम इसी तरह इसके पीछे भागते रहे तो शायद कुछ वक़्त बाद खुद का चेहरा भी ना पहचान पाए...

1 comment:

  1. Nicely said brother. So many thing runs in our mind and we cant put those thoughts in words, like you. This is a gift that you have, cherish it, keep writing...

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