Monday 28 April 2014

दादी का तोहफ़ा

जब मैं आज सवेरे से अपना मूँह छुपाते हुए अपनी नींद रूपी माशुका से दुबारा मिल रहा था तभी मेरे मोबाइल की रिंगटोन बजरंग दल के किसी कार्यकर्ता की तरह मेरे प्रेम संबंध में खलल डालने आ टपकी.

देखा तो अरुण का फोन था.

- भेन्चोद!!! (अब सुबह सुबह कोई फोन करे तो उसका अभिवादन ऐसा ही होगा)

इसे क्या हो गया आज तो छुट्टी है, कम से कम आज तो ढंग से सो लेने देता. दस ही तो बजे हैं, इंसान ढंग से सोए भी ना?

पर तब तक मेरा रुझान मेरे दोस्त की कॉल में देखकर मेरी नींद रूपी माशुका भी मेरा साथ छोड़ कर जा चुकी थी.

फोन उठाया तो पता चला की अरुण की दादी का देहांत हो गया है, बीती रात.
वैसे तो ऑफीस से छुटटी लेने के लिए वो अपनी दादी को पहले भी मार चुका है, पर इस बार सच में ऐसा था.

उसने ये बताया की शाम को पास वाले डोमिनोस में मिलते है, बताउँगा क्या हुआ था. और वैसे भी यार घर पर खाना वाना बनाने वाला है नहीं.

मुझे भी थोड़ा अजीब लगा की अभी इसकी दादी का देहांत हुआ है और ये पार्टी करने की बात कर रहा है.

- ओ भाई तेरे घर में मातम चल रहा है, और तू शाम को डोमिनोस पर मिलने की बात कर रहा है?

- भाई क्रिया कर्म तो आज सुबह ही कर के आ गये, कुछ एक हफ्ते की बात है, उसके बाद घर मे सब नॉर्मल हो जाने वाला है, कल रात से कुछ ढंग का खाया भी नहीं है, और तुझे फोन कर रहा हूँ तो तू ज्ञान दे रहा है.

- साले दादी मारी है तेरी और तुझे खाने की सूझ रही है और वो भी डोमिनोस.

- दादी के मरने का गम तो मुझे भी है भाई, पर नब्बे से उपर की हो रही थीं यार.

- पर साले, तुझे ये नहीं लग रहा की घर में ऐसा माहौल है और तू पार्टी करेगा?

- भाई मैं तेरे से मिलकर कुछ बताने वाला हूँ, देख, दादी के चक्कर मे मेरी प्रेम कहानी का गला घोटा जा रहा था, वो तो निकिता प्यार करती है मुझसे जो इतने सालों तक इंतज़ार कर लिया. दादी के रहते तो मैं निकिता से शादी कर ही नहीं सकता था. और ऐसा मैं नहीं कह रहा वही कहती थी, कि मेरे जीते जी नही होने दूँगी मैं ये अनर्थ. कहती थी ब्राह्मण तो ठीक है पर वो वाली ब्राह्मण नहीं हैं, जैसे आज कल की आंटी लोग करते है, कि पर्फ्यूम तो है पर वो ब्रांड वाला नहीं है.  इट्स नोट दैट क्लासी टाइप्स. कहती थी हमारा कुल बड़ा है. और ये उच्चकुल का ब्राह्मण हो कर मैने क्या उखाड़ लिया, वही कर रहा हूँ जो सब करते है.

मैं चुपचाप फोन के इस तरफ उसकी दादी को "ना आना इस देश लाडो" के महिला खलनायक की भूमिका मे देखता रहा. और दूसरी तरफ अरुण ने बोलना जारी रखा...

- पापा मम्मी सारे तैयार थे, लड़की अच्छी है, वर्किंग भी है, हम एक दूसरे से प्यार भी करते है ,पर दादी के लिए ये काफ़ी नहीं था. जब दादी तक बात जाती तो वो अपने शास्त्र बीच मे घुसा देती थीं, जो शायद आज तक उन्होने देखे भी नहीं होंगे. अब तू ही बता यार ये शास्त्र काम बनाने के लिए बने थे या खराब करने के लिए, मुझे तो समझ नहीं आता. वैसे अभी तो बस इतना समझ ले की ये सब ख़तम होते ही तेरा भाई शादी करने वाला है.

ये सब बोलते हुए उसकी आवाज़ मे एक विजेता का भाव था,जैसे काफ़ी मेहनत की बाद आख़िरकार उसने कोई किला फ़तह कर लिया हो...

- और तेरे पापा? वो क्या कहेंगे? उनकी तो माँ मरी है. इतनी जल्दी सब कुछ करने देंगे?

- पापा तो तैयार बैठे है यार, ये आइडिया ही उनका है, वो भी यही कह रहे थे की माँ के रहते तो ये सब नहीं हो सकता, थोड़ा इंतज़ार कर ले, और मैनें भी सोचा की भाई लोगो को मिलकर खुशख़बरी दे दूं. इसलिए शाम को सात बजे डोमिनोस मे मिलते है.

-अच्छा, चल ठीक है शाम को मिलते है, कहकर मैने फोन काट दिया.

दरवाज़ा खोलकर बाहर देखा तो सूरज चढ़ चुका था, पर आसमान में कुछ बादल मंडरा रहे थे. उन बादलो में मैने अरुण की दादी की जाती हुई आत्मा की कल्पना कर उनको धन्यवाद किया. किसी का इस दुनिया से दूर जाना किसी दो की दुनिया को पास तो ला रहा था. अरुण और निकिता की प्रेम कहानी थी भी आठ साल पुरानी. पर ऐसा क्यों हो रहा है की हमारे समाज में उन ना बोलती किताबों को तो लोग समझते हैं, पर किसी के ज़िंदा रिश्ते को समझने के लिए लोगों के पास ना ही दिमाग़ है, ना ही दिल और ना ही आँखें.
और मुझे ये भी पता है की मेरे कई दोस्त और कई अजनबी अपने ही किसी ऐसे दादा या दादी के मरने का इंतज़ार कर रहे है.

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