Wednesday 13 January 2016

भरोसा

हम दोनों पैरों से एक साथ
कभी नहीं बढ़ते।

एक पाँव के उठते ही
वहाँ की ज़मीन छूट जाती है
और दूसरा पाँव ये देखता है,
हिचकिचाता है
पर पहले का सहारा लेकर
वो भी छोड़ता है अपनी ज़मीन,

एक भरोसे के साथ ...

इस तरह एक भरोसा
बदल जाता है- एक कदम में...

फिर वो 'एक कदम' बदलता है
सैकड़ों मीलों की दूरी में,
उन सारी संभावनाओं को पूरा करता
जो पहले कदम की
हिचकिचाहट में छुपी थीं।

भरोसा दौड़ना सीख जाता है।

आदमी के इतिहास की
सबसे बड़ी उपलब्धि थी-
वो 'पहला कदम' उठाना|

Friday 8 January 2016

वे वहीँ ठीक हैं...

(३ जनवरी की रात, जो लिखते-लिखते ४ की हो गई थी. मुंबई)

बिस्तर के सामने लगे ड्रेसिंग टेबल के पास दो बार जाकर उसपर रखी किताबों को कहीं और रखने की नाकाम कोशिश कर चुका हूँ| दो डायरियाँ, कर्णकविता, प्रेमचंद, परसाई साब, रोबर्ट एम. पिरसिग, कालिदास, ओशो एक के ऊपर एक रखे हुए हैं और इन सबके ऊपर ग़ालिब अपने दीवान के साथ वहीँ बैठे मुझे टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं| पर मुझे पता है मैं आज रात इनमें से किसी को हाथ नहीं लगाने वाला| अभी ये लिख रहा हूँ और पढ़ने का आज का कोटा विनोद कुमार शुक्ल जी ने पूरा कर ही दिया है| इसके बाद बस सोना ही बचता है (अगर नींद आ जाए तो )|

दरअसल किताबों को ऐसे बेवजह साथ में रखने की आदत बचपन से है| स्कूल जाते हुए भी बैग भर के किताबें ले जाने की आदत थी| चाहे उस किताब का उस दिन स्कूल के रूटीन से कोई लेना देना हो ना हो मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था| "भई किताबें हैं तो ले जाएँगे"| पर मैंने ये वाली बात कभी बैग को बताई नहीं और ना ही कभी ये सोचा कि एक बार उससे पूछ लूँ कि “भाई तुझे कैसा लगता है एक साथ इतनी सारी किताबें उठा के?” पर गलती मेरी भी कहाँ थी, उस वक़्त कम ज़्यादा जैसा कोई कॉन्सेप्ट दिमाग में था ही नहीं। तब तो जो मन में आया- किया, जितना मन में आया- उतना किया। ना उससे कम और ना उससे ज़्यादा। पर एक दिन जब बैग ने अपनी साइड की सिलाई खोलकर मानहानि का दावा पेश किया तब मुझे उसकी फीलिंग्स का थोड़ा आईडिया हुआ, वो भी मम्मी के बताने पर| उसी दिन शाम को बैग की सिलाई के साथ मुझे भी बिठकर ठीक किया गया और ये तय हुआ कि अब से मैं बस उतनी ही किताबें ले जाया करूँ जितने की मुझे दरअसल ज़रुरत है|


अगले दिन सुबह उठकर दीवार पर चिपके हुए रुटीन के हिसाब से बैग में किताबें सजा लीं। उस वक़्त ये करते हुए मज़ा भी आया। पर घर से स्कूल जाते हुए ऐसा लगा नहीं कि स्कूल जा रहा हूँ| पीठ पर बैग तो डाला हुआ था पर कम किताबें होने की वजह से वो अन्दर से ही हिल रहा था| अपना बैग ही अपना नहीं लग रहा था उस दिन। उस दिन मुझे ठीक ठीक क्या महसूस हुआ था ढंग से याद नहीं, इसलिए उस बारे में लिखना भी बेमानी होगी| पर मुझे इतना ज़रूर याद है कि उस दिन कुछ ऐसा ज़रूर लगा था, जिसकी वजह से घर पहुंचते ही दुबारा वो सारी किताबें, जो मम्मी और मेरे क्लास के रूटीन के हिसाब से एक्स्ट्रा थीं, मैंने अपने बैग में फिर से रख ली थीं| अगले दिन बैग फिर से वही पुराना वाला...  :) वही वजन, वही चौड़ और अपनी सारी पसंदीदा किताबें अपने साथ। बैग अंदर से बिल्कुल भी नहीं हिल रहा था। क्या हो जाता? मम्मी की एक दो बातें सुनने के लिए मैं तैयार था, और अब तो ये भी पता चल चुका था कि बैग की मरम्मत अपने घर पर ही हो जाती है| 


वो फीलिंग मुझे आज इन किताबों को हटा कर कहीं और रखने की नाकाम कोशिश के दौरान समझ आई| इन किताबों का होना उन रिश्तों का होना है, जिनका बस अपनी जगह पर होना ही खुद में एक रिश्ता है, एक तसल्ली है, एक पूर्णता है| फिल्म लंचबॉक्स की आंटी और उसकी नायिका के रिश्ते की तरह... वो आंटी कभी भी फिल्म में दिखती नहीं, पर फिल्म की नायिका के लिए उनकी आवाज़ का होना ही उनका वहाँ मौजूद होना है| उनकी शक्ल भी नहीं, बस आवाज़... ताकि वो जब चाहे उनसे बात कर सकती है| थोड़ा कह सकती हैं, कुछ सुन सकती हैं। और मैं भी जब इन किताबों के कुछ पन्ने यूँ ही उठा कर पढ़ लिया करता हूँ तो लगता है, किसी से कोई बात हो गई...  इन डायरियों पर कुछ दो चार लाइनें लिख लेता हूँ, तो लगता है किसी से कुछ कह दिया| 

फिलहाल इनको उठा कर कहीं और रखने की हिम्मत नहीं है, उन्हें वहीँ रहने देता हूँ| उनका वहाँ होना एक मकसद सिद्ध करता है| और...  क्या ही फर्क पड़ता है, मेरा कमरा वैसे भी मेरे लिए काफी बड़ा है|

(आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है।)
-नीरज 

Tuesday 5 January 2016

कोर्ट/आईना क्यूँ न दूँ

कहते हैं "किसी को अगर जानना हो तो उसकी दिनचर्या के बारे में पता लगाओ, देखो वो अपने जीवन की छोटी छोटी चीज़ों को कैसे करता है। और आपको पता चलता है कि उसका चरित्र कैसा है। कोर्टदेखते वक़्त भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। पारम्परिक सिनेमा के स्ट्रक्चर से अलग हट कर हर किरदार के साथ उसके पर्सनल स्पेस में जाती यह फिल्म उनके बारें में बहुत कुछ दिखाती है।

कोर्ट न तो सिर्फ कोर्ट के बारे में है, और न ही इसके मुख्य किरदार नारायन कांबले के बारे में। यह फिल्म हमारे बारे में है, हमारे बीच के किरदारों के बारे में। चाहे वो पब्लिक प्रॉसिक्यूटर जो कोर्ट से घर जाते हुए रास्ते में कॉटन साड़ी और ओलिव आयल की बात करती है, घर पर जाकर डेली सोप देख रहे पति के लिए खाना बनाती है। या फिर डिफेंस लॉयर जो कोर्ट के बाद एक सुपर मार्किट में शॉपिंग करते हुए रोज़मर्रा की ज़रूरतों के सामान से लेकर शराब तक की खरीददारी करता है और पार्लर में फेशियल करवाता है। या फिर वो कोर्ट का जज जो एक महिला के केस की सुनवानी इसलिए नहीं करता क्योँकि उसने स्लीवलेस टॉप पहना हुआ है। 

कई बार फिल्म देखते हुए ये भी लगता है कि इस सीन की क्या ज़रुरत थी, ये तो नारायन कांबले का केस से नहीं जुड़ा, पर कुछ आपको पता चलने लगता है कि नारायन कांबले का केस तो एक जरिया है जिसकी ऊँगली पकड़ कर कोर्ट के वो कोने तलाशे जा रहे हैं, जिसके अंदर शायद हम अपना दिमाग रख कर भूल गए है। और उसके कारण हम कांबले के गाने में छिपे मेटाफोर को न समझ कर एक सीवर सफाईकर्मी की मौत की ज़िम्मेदारी हम उसके ऊपर मढ़ने लग जाते हैं| जबकि मौत की वजहें कुछ और ही हैं। उस सफाई कर्मचारी की बीवी से पूछे जाने वाले सवाल के दौरान कैमरा सिर्फ उसी का चेहरा दिखाता है और अपने पति के मौत के बारे में वो हर सवाल का ऐसे जवाब देती है जैसे कोई आम सी बात है। वो जानती है कि हर सीवर साफ़ करने वाले की मौत शायद ऐसी ही होती है। ये सीन हमारे समाज की विसंगतियों पर एक तमाचा है। ठीक उसके बाद जब डिफेन्स लॉयर जाते हुए वो अपने काम की बात करने लगती है। उसके पति की मौत उसके लिए स्वीकार्य हैं। 


दूसरी तरफ एक किताब लिख देने पर या सरकार की नीतियों के खिलाफ गाना गा देने पर नारायन कांबले को गिरफ्तार कर लिया जाना हमारी सरकार की तानाशाही का सूचक तो है ही, साथ ही साथ यह एक तरीका भी है जिससे ये बताया जा सकता है कि हम तुम्हारे आका है और ये सारे नियम हमारे हैं, इसमें रहना है तो हमारे हिसाब से रहना पड़ेगा। 

फिल्म के कुछ जिरह के सीन ये सवाल भी लेकर आते हैं कि आखिर हम कब तक अंग्रेज़ों के जमाने के बने हुए कानून के हिसाब से लोगों को सजा देते रहेंगे। दूसरी तरफ किस तरह हम लोगों ने लिखी हुई चीज़ को पत्थर की लकीर मान लिया है। हमारी सोच उस पैराग्राफ के पहले शब्द से शुरू होती है और आखिरी शब्द तक जाते जाते समाप्त हो जाती है। और आखिर हो भी क्यों ना क्योंकि हमारे पास और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं है क्योंकि हमारा इवनिंग टाइम एंटरटेर्मेंट भी मराठी मानुस के अहम को बढ़ावा देना में जाता है या फिर किसी पब में बैठ कर गप्पियाने में। 

आखिरकार जब कोर्ट एक महीने के लिए बंद होता है, तब तक नारायन कांबले के केस का फैसला नहीं हुआ होता और अब उसको एक महीना जेल में ही रहना होगा। उसके बाद भी उसका क्या होगा पता नहीं शायद इसीलिए उस सीन में सारी लाइट्स धीरे धीरे बंद होती है और दर्शक को अन्धकार में छोड़ती हैं। 

दूसरी तरफ वेकेशन के लिए वही जज अपने दोस्तों के साथ शहर के पास के रिज़ॉर्ट में जाता है और वहाँ अपने दोस्त को उसके बेटे के बोलने के लिए सलाह देता दिखता है कि "इसे अंगूठी पहनाओ तब जाकर ये बोलने लगेगा", वो आईआईएम और आईआईटी में मिलने वाले पैकेज की बात करता है। इस तरह फिल्म हमें उस जज के पर्सनल स्पेस में भी ले जाती है और दिखाती है कि जिन्हें हम सबसे समझदार और दिमाग वाला मानते हैं और शायद इसी वजह से हमारे समाज के बड़े फैसलों पर निर्णय लेने का अधिकार उन्हें देते हैं उनकी खुद की बुद्धि कैसी है। 

फिल्म देख कर थोड़ा गुस्सा आना तो लाजमी हैं| पर ये सोच कर मैं भी करुणा से भर जाता हूँ कि जैसे हम हैं न ... बस आप समझ जाइये| 

(www.indiaree.com के दिसंबर,२०१५. अंक में प्रकाशित)

अपडेट:  

Monday 4 January 2016

आस्था भी कोई चीज़ है |

वो शिरडी से दर्शन कर के आये थे । एक हाथ से साई बाबा का गुणगान किये जा रहे थे और दुसरे से अपनी आस्था बघार रहे थे । बता रहे थे कैसे वहाँ धर्म कर्म के काम में उन्होंने बढ़ चढ़ कर दिलचस्पी ली। कैसे उनका जीवन साल में बस एक बार शिरडी के दर्शन करने मात्र से सुचारू रूप से चलता रहता है। मैं भी हाथ जोड़े और मुँह फाडे सब सुन रहा था । भई आस्था तो मुझे भी है। तभी उन्होंने अपनी नाक छिनकी और अपनी शर्ट में पोंछते हुए बोले " ट्रेन के सफर में ठंड लग गई।" फिर थोड़ी देर बाद रुक कर ऊपर उँगली दिखाते हुए बोले "चलो अब सर्दी भी तो उसी की माया है। बाबा सब हर लेंगे। बस हमारी आस्था और उनकी कृपा बनी रहे। जय साई राम । " 'कृपा' शब्द सुनते ही मुझे याद आया कि बातों बातों में मेरा अपना आध्यात्मिक कार्यक्रम छूट रहा था। मैंने टीवी ऑन किया और 'निर्मल बाबा ' वाला प्रोग्राम लगा कर बैठा और हाथ जोड़कर सुनने लगा। कृपा आनी शुरू हो गई थी। और मेरे पीछे खड़े वो ये सब देख कर अपनी नाक छिनकते हुए बड़बड़ाते रहे " अरे चूतिया हो क्या?… ऐसे भी कहीं कृपा आती है… , बेवकूफ बना रहा है वो.… , अरे तुम तो पढ़े लिखे हो… वगैरह वगैरह… " पर मैं भी उनको इग्नोर कर के अपनी आस्था में लगा रहा । क्योंकि जब मेरी नाक बहती थी तब 'निर्मल बाबा ' की कृपा से ही ठीक होती थी । मैं कृपा बटोरता रहा, वो बड़बड़ाते रहे …

Saturday 2 January 2016

क्यों? ठीक ठीक पता नहीं

(कांदिवली से एयरपोर्ट, के दौरान  1/1/16. 10:20 P.M. मुंबई .)
अभी अभी मुम्बई एयरपोर्ट पहुँचा हूँ, सौरव से मिलने। आदतन मैं जल्दी पहुँच गया और सौरव के आने में अभी थोड़ा वक़्त है। मैं अभी एक कमाल की ख़ुशी से भरा हुआ हूँ। वजह मुझे पता नहीं। सोचा किसी को फ़ोन कर के अपने अंदर अभी जो भी चल रहा है वो बाँट लूँ। फिर यह सोच कर रहने दिया कि इसको लिख लेना ज़्यादा बेहतर होगा। अक्सर मेरे दोस्तों की शिकायत जो मेरे तनाव को लिखने के लिए रहती है, शायद इससे थोड़ी कम हो सके।
मुम्बई में हल्की ठण्ड का मौसम है। ठण्ड इतनी ही की मैं हाफ टीशर्ट पहन कर बैठा हुआ हूँ।  हाँ सर्दी की इज़्ज़त रखने के लिए सर पर एक कैप ज़रूर डाल ली है। थोड़ी देर पहले ही एक कविता लिखी थी और अब सौरव से मिलने निकल पड़ा। कांदिवली के हाईवे से मैंने बस ली, मैं पहली बार एयरपोर्ट  बस से जा रहा था तो आशंका थी कि अगर ट्रैफिक मिला तो मैं कहीं लेट ना हो जाऊँ। इसलिए घर से पहले निकल लिया था। सड़कें और बस दोनों आज उम्मीद से बहुत ख़ाली दिख रहे थे। मैंने कंडक्टर से टिकट ली और पीछे से 2 सीट्स छोड़ कर खिड़की पकड़ पर बैठ गया। बस चली जा रही थी एक के बाद एक फ्लाईओवर फांदती हुई। खिड़की से हल्की ठंढी हवा बस के अंदर आ रही थी, मुझे अच्छा लगने लगा। और एकाएक मैं वो तमाशा का गाना "वत वत वत..." का अंतरा गाने लगा।
"ओ.. हम हमहीं से, तोहरी बतिया
कर के बकत बतावें हैं,
खुद ही हँसते, खुद ही रोते,
खुद ही खुद को सतावें हैं..."
मैं ज़ोर ज़ोर से गा रहा था,जैसे बस की रफ़्तार से कोई मुक़ाबला हो। इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मेरे सामने की सीट पर बैठी हुई लड़की ने पलट कर मुझे देखा। मुझे एक पल के लिए लगा कि उसको अजीब लगा पर वो एक स्माइल दे कर दुबारा सामने की ओर देखने लगी।
तभी बस का एक झटका आया और मैं सीट पर अपना बैलेंस खोने लगा।गाने का 'बेसुर' बार बार
बिगड़ रहा था|  पर मुझे अभी गाना गाने में मज़ा आ रहा था। एक ख़ुशी मिल रही थी| पता नहीं क्यों मुझे जब भी ऐसा कुछ अच्छा लगता है, मुझे दिल्ली की याद आने लगती है। मुम्बई का हाईवे दिल्ली का रिंग रोड बन गया और बेस्ट की बस 'DTC' की। फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर टायर के ऊपर वाली सीट से हटकर पीछे बैठ जाए तो शायद सीट इतनी ना हिले, और इस लड़की से थोड़ा फासला भी बढ़ जाएगा। फिर क्या था, मैंने पीछे देखा, सीट पूरी तरह से खाली थी। मैं कूदकर उसपर बैठ गया। पर मैंने इस बार सामने वाली सीट का रॉड पकड़ा, खिड़की की तरफ झुककर बैठा जैसे बच्चे किसी amusement पार्क में किसी राइड पर बैठते है। बस हाईवे पर वैसे ही दौड़ती चली जा रही थी, हवा वैसे ही हल्की ठंडक बस के अंदर ला रही थी। सीट का हिलना अभी भी वैसा ही था,  मैंने गाना चालू रखा, और वहीँ बैठे बैठे एक ख़ुशी से भरता गया। जिसकी वजह का मुझे अभी भी ठीक ठीक पता नहीं| एयरपोर्ट का स्टैंड अभी आया नहीं था, पर अब तक गाने का दूसरा अंतरा आ गया था... :)
"जान गए लेके सुर्खी कजरा
टेप टाप के, लटके झटके
मार तू हमका फँसावत...
पर ई तो बता
तू कौन दिसा, तू कौन मुल्किया
हाँक ले जावे...
हौले हौले बात पे तू
हमारी वाट लगा..."
...बस कहीं और ले जा रही थी और मैं कहीं और ही चला जा रहा था।
- नीरज


नाटक शुरू होने से ठीक पहले...

अँधेरे में, साफ ना दिखना
कई सारी कल्पनाओं को
जन्म देता है।

सामने खेले जाने वाले
नाटक की परिकल्पना मात्र
एक कुलबुलाहट पैदा करती है।

ये कुलबुलाहट, हमेशा
एक उम्मीद के साथ आती है,
और, मेरे सामने
तैयार करती है - एक दृश्य
सुनहरी रौशनी का...

एक नाटक ठीक मेरे सामने
जीवित हो उठता है।

... वाह!

इसके किरदारों को देखने की,
जानने की, मिलने की इच्छा
इस कुलबुलाहट को
गुदगुदी में बदल देती है...
और, मैं उनसे मिलने
मंच पर पहुँच जाता हूँ

पर यहाँ इनकी आवाज़े
बदली हुई हैं,
उनके चेहरे कुछ और हैं...
मैं उन्हें उनकी पहचान बताता हूँ
- वो मुकर जाते हैं।
मैं कहता हूँ - "मैं तुम्हें जानता हूँ",
- वो हँस पड़ते हैं।
उनकी हँसी मुझे अट्टाहास लगती है।

वो अपना संवाद भूलकर
कुछ और बड़बड़ाते हुए,
कहीं और चले जाते हैं।
दृश्य गायब हो जाता है,
गुदगुदी, सिहरन में
तब्दील हो जाती है...

मेरे दर्शक से पात्र बनते ही
कहानी बदल जाती है|
... परदे के उठते ही
मेरी कल्पनाओं वाला नाटक
ख़त्म हो जाता है।