Friday 8 January 2016

वे वहीँ ठीक हैं...

(३ जनवरी की रात, जो लिखते-लिखते ४ की हो गई थी. मुंबई)

बिस्तर के सामने लगे ड्रेसिंग टेबल के पास दो बार जाकर उसपर रखी किताबों को कहीं और रखने की नाकाम कोशिश कर चुका हूँ| दो डायरियाँ, कर्णकविता, प्रेमचंद, परसाई साब, रोबर्ट एम. पिरसिग, कालिदास, ओशो एक के ऊपर एक रखे हुए हैं और इन सबके ऊपर ग़ालिब अपने दीवान के साथ वहीँ बैठे मुझे टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं| पर मुझे पता है मैं आज रात इनमें से किसी को हाथ नहीं लगाने वाला| अभी ये लिख रहा हूँ और पढ़ने का आज का कोटा विनोद कुमार शुक्ल जी ने पूरा कर ही दिया है| इसके बाद बस सोना ही बचता है (अगर नींद आ जाए तो )|

दरअसल किताबों को ऐसे बेवजह साथ में रखने की आदत बचपन से है| स्कूल जाते हुए भी बैग भर के किताबें ले जाने की आदत थी| चाहे उस किताब का उस दिन स्कूल के रूटीन से कोई लेना देना हो ना हो मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था| "भई किताबें हैं तो ले जाएँगे"| पर मैंने ये वाली बात कभी बैग को बताई नहीं और ना ही कभी ये सोचा कि एक बार उससे पूछ लूँ कि “भाई तुझे कैसा लगता है एक साथ इतनी सारी किताबें उठा के?” पर गलती मेरी भी कहाँ थी, उस वक़्त कम ज़्यादा जैसा कोई कॉन्सेप्ट दिमाग में था ही नहीं। तब तो जो मन में आया- किया, जितना मन में आया- उतना किया। ना उससे कम और ना उससे ज़्यादा। पर एक दिन जब बैग ने अपनी साइड की सिलाई खोलकर मानहानि का दावा पेश किया तब मुझे उसकी फीलिंग्स का थोड़ा आईडिया हुआ, वो भी मम्मी के बताने पर| उसी दिन शाम को बैग की सिलाई के साथ मुझे भी बिठकर ठीक किया गया और ये तय हुआ कि अब से मैं बस उतनी ही किताबें ले जाया करूँ जितने की मुझे दरअसल ज़रुरत है|


अगले दिन सुबह उठकर दीवार पर चिपके हुए रुटीन के हिसाब से बैग में किताबें सजा लीं। उस वक़्त ये करते हुए मज़ा भी आया। पर घर से स्कूल जाते हुए ऐसा लगा नहीं कि स्कूल जा रहा हूँ| पीठ पर बैग तो डाला हुआ था पर कम किताबें होने की वजह से वो अन्दर से ही हिल रहा था| अपना बैग ही अपना नहीं लग रहा था उस दिन। उस दिन मुझे ठीक ठीक क्या महसूस हुआ था ढंग से याद नहीं, इसलिए उस बारे में लिखना भी बेमानी होगी| पर मुझे इतना ज़रूर याद है कि उस दिन कुछ ऐसा ज़रूर लगा था, जिसकी वजह से घर पहुंचते ही दुबारा वो सारी किताबें, जो मम्मी और मेरे क्लास के रूटीन के हिसाब से एक्स्ट्रा थीं, मैंने अपने बैग में फिर से रख ली थीं| अगले दिन बैग फिर से वही पुराना वाला...  :) वही वजन, वही चौड़ और अपनी सारी पसंदीदा किताबें अपने साथ। बैग अंदर से बिल्कुल भी नहीं हिल रहा था। क्या हो जाता? मम्मी की एक दो बातें सुनने के लिए मैं तैयार था, और अब तो ये भी पता चल चुका था कि बैग की मरम्मत अपने घर पर ही हो जाती है| 


वो फीलिंग मुझे आज इन किताबों को हटा कर कहीं और रखने की नाकाम कोशिश के दौरान समझ आई| इन किताबों का होना उन रिश्तों का होना है, जिनका बस अपनी जगह पर होना ही खुद में एक रिश्ता है, एक तसल्ली है, एक पूर्णता है| फिल्म लंचबॉक्स की आंटी और उसकी नायिका के रिश्ते की तरह... वो आंटी कभी भी फिल्म में दिखती नहीं, पर फिल्म की नायिका के लिए उनकी आवाज़ का होना ही उनका वहाँ मौजूद होना है| उनकी शक्ल भी नहीं, बस आवाज़... ताकि वो जब चाहे उनसे बात कर सकती है| थोड़ा कह सकती हैं, कुछ सुन सकती हैं। और मैं भी जब इन किताबों के कुछ पन्ने यूँ ही उठा कर पढ़ लिया करता हूँ तो लगता है, किसी से कोई बात हो गई...  इन डायरियों पर कुछ दो चार लाइनें लिख लेता हूँ, तो लगता है किसी से कुछ कह दिया| 

फिलहाल इनको उठा कर कहीं और रखने की हिम्मत नहीं है, उन्हें वहीँ रहने देता हूँ| उनका वहाँ होना एक मकसद सिद्ध करता है| और...  क्या ही फर्क पड़ता है, मेरा कमरा वैसे भी मेरे लिए काफी बड़ा है|

(आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है।)
-नीरज 

3 comments:

  1. Bhai main bhi bilkul wahi karta rehta Hoon..kitabon ko yahaan.idhar.mere samne.udhar..jagah tay karta rehta Hoon..apne aap ko ghere rehta Hoon....

    ReplyDelete
  2. Behtareen kissa..
    Maine aapse kahaa hai pandeyji kai jagah AAP Gulzar saahab ki jhalak de hi detê hain..
    Likhte rahiye..aise hi kisse..AAP k dil k kareeb aur sab k zindagi k khaas!!

    ReplyDelete
  3. Actually it makes a difference. keeping a book and a diary closer brings a level of familiarity and comfort. these books aint just objects, they are companions.

    and companions should be kept nearby :)

    ReplyDelete