Thursday 22 March 2018

पाण्डेय तुम चलोगे...?


स्क्रिप्ट् पर कुछ फ़ीड्बैक थे तो उसी सिलसिले में मैंकार्तिक और उत्कर्ष एक साथ बैठे थे। रात के क़रीब नौ बजे का समय था। उत्कर्ष ऑफ़िस से कुछ देर पहले ही आया था। हम तीनों मिलकर कहानी के लूपहोल्स को ठीक कर रहे थे तभी उत्कर्ष का फ़ोन बजा। फ़ोन रखने के बाद उसने बताया कि दस बजे तक उसको फ़ुट्बॉल खेलने पहुँचना है तो फटाफट आज के लिए काम निबटाना होगा। उसने मुझसे भी पूछा 'पाण्डेय तुम चलोगे फ़ुट्बॉल खेलने?' मैंने आख़िरी बार फ़ुट्बॉल कुछ पंद्रह साल पहले खेला था पर  फ़्लो-फ़्लो में मैंने 'हाँकह दिया। 9:30 होते ही उत्कर्ष मुझे खींच कर ले गया और कार्तिक ने बचे हुए दस मिनट के काम को निबटाने का ज़िम्मा लिया। उत्कर्ष की कार में बैठ कर हम दोनों कपड़े चेंज करने के लिए उसके घर आए जो कि वहीं पास में वीर-देसाई रोड पर है। उसने मुझे एक स्पोर्ट्स लोअर और एक जोड़ी पुराने हो चुके स्पोर्ट्स शूज़ दिए। तब तक अभिनव और उसके साथ उसका एक और दोस्त भी  गए थे। कपड़े बदलकर हम चारों इन्फ़िनिटी मॉलअंधेरी के पीछे एक ग्राउंड में पहुँचे जहाँ कुछ और दोस्त पहले से मौजूद थे। 

सब एक दूसरे को यही बता रहे थे कि कैसे फ़ुट्बॉल में उनका भरोसा ना किया जाए क्योंकि उन्हें खेलना नहीं आता। मुझे जानकार अच्छा लगा कि चलो अपनी इज़्ज़त जाने का ख़तरा कम हैफिर भी सब मुझसे बेहतर तो होंगे ही का ख़याल मेरे दिमाग़ में कहीं था। इस टीम में कुल 10 लोग थे जिनमें से मैं क़रीब आठ या नौ लोगों को किसी ना किसी तरह से पहले से जानता था। दो टीमें पाँच पाँच लोगों की बँट गयीं। सब एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हुए खेल रहे थे। शुरू में मैं डिफ़ेन्स पर थाधीरे धीरे थोड़ा खुलना शुरू हुआ। मुझे बीच बीच में डर भी लगता कि बॉल किसी तेज़ी से आकर मूँह पर ना लगे का किसी खिलाड़ी के पैर से पैर पर चोट ना लगे। बॉल मेरे पास आती तो पैरों को समझ नहीं आता कि उनके साथ कैसा बर्ताव करना हैवे बस चल जाते और बॉल अपनी दिशा बदल लेती। 'भागती बॉल पर मेरे पैरों का आत्मविश्वास एकदम कम हो जाता है।

बीच बीच में उत्कर्षअभिनव और सौरभ के 'बहुत बढ़िया पाण्डेयऔर 'शाबाशजैसे शब्द आते रहे। कुछ देर बाद मैं विपक्ष के गोल पोस्ट की तरफ़ जा कर खेलने लगा इस उम्मीद में कि अगर इस तरफ़ बॉल आयी तो मैं गोल कर पाउँगा...शायद। सौरभ इस तरफ़ गोलकीपिंग कर रहा था। सौरभ और मैं खड़े खड़े अपने इंटर्नल जोक्स भी मार रहे थे। दरसल सौरभ और मैंने एक फ़िल्म पर साथ में काम किया था तो हम एक दूसरे को पहले से जानते थे। खेल धीरे धीरे गरमा रहा था। इस बार बॉल मेरी तरफ़ आयी जिसकी उम्मीद में मैं इस तरफ़ आया था। मैंने सामने से आती बॉल को देखा और घूम कर गोल पोस्ट की तरफ़ मार दिया। हाव्वव...!!! गोल हो गयाहो गया गोलमेरी टीम ख़ुश थी और मैं आश्चर्य में। सच बोलता हूँ मैंने बस अनुमान कर के उस बॉल को एक दिशा दी थी बस। उसे मारते हुए मुझे एक साथ दोनों कभी नहीं दिखे। या तो बॉल दिखती या फ़िट गोल पोस्ट। पाँवों में इतना ज़ोर भी नहीं था कि वो सट्ट कर के गोल कर सकें...पर गोल हो चुका था। खेल आगे पढ़ चुका था।

थोड़ी देर बार विपक्षी टीम ने भी अपना पहला गोल कर दियाफिर दूसरा। प्रणय बहुत अच्छा खेलता हैफ़ुट्बॉल और उसकी गति मैदान पर बराबर है। सब यह भी बोल रहे थे कि 'वो अर्जुन है इस टीम का मछली की आँख पर ध्यान रहता है उसका'... मुझे कुछ नियम पता नहीं थे इस वजह से मेरी टीम का थोड़ा नुक़सान भी उठाना पड़ा जैसे एक बार मैंने बॉल को हाथ लगा दिया जिसकी वजह से एक पेनल्टी मेरी टीम को झेलनी पड़ी। खेल के आख़िरी पंद्रह मिनट में मैंने गोल कीपिंग की। एक गोल हुआ जिसके बाद मुझे यह बताया गया कि मैं अगर गोल कीपर हूँ तो हाथ लगा कर रोक सकता हूँ। धत्तमुझे यह भी पता नहीं था। उसके बाद मैंने चार गोल होने से रोके। थोड़ी देर बार बाहर से ग्राउंड कीपर ने सीटी बजा कर बताया कि हमारा टाइम ख़त्म हो चुका है। हमने पाँच मिनट और माँगे और उसके बाद खेल ख़त्म हुआ। हमने कुल चार गोल किए और विपक्षी टीम ने पाँच। काश मैंने वो गोल हाथ लगा कर रोक लिया होता।

पर अब कोई बात नहीं। सबकी टीशर्ट पसीने से गीली थी। हम सब बैठ कर पानी पी रहे थे और मैच को लेकर एक दूसरे की टाँग खींच रहे थे। पूरा कॉलेज के दोस्तों वाला माहौल था। मुझे भी बड़े दिनों बाद कुछ ऐसा कर के मज़ा आया।और हाँ मैंने गोल भी तो किया था। 

हम सब थोड़ी देर बाद वहाँ से निकल लिए। मैं उत्कर्ष के घर आया थोड़ी देर बैठाबातचीत करीअपने कपड़े बदले और रात के पौने एग्यारह बजे वहाँ से ये सोचते हुए निकला कि  अब कोशिश करूँगा कि फ़ुट्बॉल रेग्युलर खेल जा सके। उत्कर्ष बता रहा था ये सब लोग हफ़्ते में तीन दिन खेलने जाते हैं। मैं घर वापस लौटते हुए यही सोच रहा था कि जो काम करते हुए या करने के बाद अच्छा लगे उसे अक्सर करना चाहिएहफ़्ते में तीन घंटे की ही तो बात है.और शायद थोड़े दिन लगातार खेलने से बॉल और गोलपोस्ट एक साथ नज़र आने शुरू हो जाएँ

Thursday 15 March 2018

आज मौसम बदला (लास्ट पोस्ट से जुड़ा हुआ)

पिछली पोस्ट में ही लिखा था कि कैसे मुझे बारिश का इंतज़ार है और कैसे इस ख़ुशनुमा मौसम की तलाश में मैं देहरादून जाने वाला हूँ। कल देहरादून के लिए निकल रहा हूँ। पहले दिल्ली जाऊँगा फिर वहाँ से निखिल की कार में रोड के रस्ते देहरादून। 
आज कल सोते हुए काफ़ी देर हो जाती है और वही मेरे देर से उठने का बहाना भी है। मुझे यह पसंद नहीं, ऐसा लगता है जैसे दिन का एक हिस्सा बिना जीए बिना कुछ किए ही बीत गया। कल सुबह उठते हुए भी दस से ज़्यादा बज गए थे।यह कोई  बहुत अच्छा एहसास नहीं है।आदत ठीक करने की कोशिश जारी है...  जब दिन सुस्त शुरू होता है तो उसकी ऊँगली पकड़े हुए बाक़ी का दिन भी वैसे ही सुस्ताता सा रहता है। कल तो बाहर जाने का मन भी नहीं था। मीटिंग्स कैन्सल कर दी थीं और घर पर ही कुछ लिख पढ़ रहा था।पर कल घर पर ही रहने से एक अच्छी बात यह हुई कि मेरा पास्पोर्ट का पोलिस वेरिफ़िकेशन हो गया जो बहुत टाइम से पेंडिंग पड़ा हुआ था। कुछ डॉक्युमेंट्स जो  Police Station में देने हैं उसके लिए भागदौड़ भी की क्योंकि मुझे ये सब ठीक से निबटाकर कल देहरादून के लिए निकलना है। बीच में एक बार ऐसा भी लगा था कि शायद यह ट्रिप कैन्सल करनी पड़े पर ऐसा नहीं है।

पर आज भी मैं दस बजे के आसपास ही खुली। दिमाग़ में दूसरा ख़याल यही आया कि Police Station का काम कराना है। तो आज बिना नहाए धोए सारे डॉक्युमेंट्स लेकर Police Station ही गया।पर आज मन में देर से उठने का चिड़चिड़ापन नहीं था। वजह ये थी कि इस सारी भागदौड़ के बीच मौसम काफ़ी ख़ुशनुमा था। हल्के हल्के बादल छाये  हुए थे (अभी भी हैं) और माहौल की ठंडक बैंगलोर के मौसम की याद दिला रही थी। ख़याल आया कि 'बताओ हम मौसम ढूँढने कल देहरादून जा रहे हैं तब जाकर यहाँ का मौसम बदला है।'  भर की ताज़गी अंदर की तरफ़ अपना रुख़ कर रही थी।

Police Station के दो चक्कर लगे, थोड़ी भाग दौड़ हुई पर सब आराम से हो गया। शुक्रिया टू द मौसम। सोच रहा हूँ देहरादून में अगले दो दिन मौसम के साथ पहाड़ भी होने पर जो लोग किंहि वजहों से मुंबई से बाहर नहीं जा पा रहे उनके लिए तो यह एक सुकून होगा ही। बीच बीच में ऐसा मौसम होना चाहिए। अब देखते हैं देहरादून का मौसम कैसा होता है,  मैं पहली बार जा रहा हूँ कुछ सोच कर ना ही जाऊँ तो बेहतर होगा। कल को कल में ही खुलने के लिए छोड़ना बेहतर है। जब पहली बार बैंगलोर भी गया था तो बैंगलोर ने चकित किया था। वो चकित होने जगह छोड़ कर रखना ही ठीक है।

फ़िलहाल तो बाहर के काम निबटा कर, नहा धोकर, एक अच्छी सी चाय बनाकर अपनी वर्किंग डेस्क पर बैठा हूँ।  जाने से पहले कुछ लिखने का काम है जो आज रात तक निबटाना है। एक साफ़ साफ़ डेस्क है, जिसके बग़ल में एक हरा मनी प्लांट रखा हुआ है, दो किताबें जो मैं एक साथ पढ़ रहा हूँ वो हैं, ऊपर से पंखा अपनी हल्की हल्की हवा फेंक रहा है, मैंने खिड़की पूरी खोल ली है जहाँ से कबूरतों की आवाज़ और ठंडी हवा अंदर आ रही है और मैं लिखने बैठ गया हूँ..।

Tuesday 6 March 2018

मुझे बारिश का इंतज़ार है


यह जो अभी लिखना शुरू किया है पहले भी लिख सकता था। अगर ढंग से देखें तो सब कुछ बंद कर के बस लिखना ही तो था। पर नहीं, इस बारे में सोचते हुए दो दिन निकल गए। जिस वक़्त इसे लिखने की ज़रूरत महसूस हुई उस वक़्त मैं सेट पर था। थोड़ा बहुत मोबाइल में लिखना शुरू ही किया था कि मेरा सीन शूट होने लगा। पूरे दिन काम किया और क्या डिमांडिंग शूट था यह। तेज़ गर्मी और कड़क धूप। ख़ैर शूट अच्छा रहा और मज़ा तो आया ही। सेट पर वैनिटी का AC, बाहर की कड़क गर्मी और धूप को मिला कर आज शाम ही सर्दी ने जन्म लिया है। बग़ल में नाक पोछने के लिए रुमाल रखा हुआ है और बाक़ी दिन के सारे काम निबटाकर या कहें तो छोड़ कर मैं इसे लिखने बैठ गया हूँ। इतना लिख लेने पर यह ख़याल आया कि सच में इसके लिए बस इतना ही तो करना था। धत्, ना चाहते हुए भी आदतन हाथ मोबाइल तक पहुँच ही गया।
दरअसल बात यह है कि मुंबई की गर्मी के इस मौसम में मुझे बारिश का इंतज़ार है। पिछले कुछ दस दिनों से मैं बारिश का इंतज़ार कर रहा हूँ। लगातार होने वाली नहीं, थोड़ी देर होकर आस पड़ोस के लैंड्स्केप को बदल देने वाली बारिश। ऐसा क्या है कि मुझे बारिश का इंतज़ार है? मुझे एक बात समझ आयी। दरअसल मुंबई में बारिश का होना मेरे मुंबई आने के पहले दिन से जुड़ा हुआ है। मुंबई से मेरी पहली पहचान से।  १२ June 2015 को मैं पहली बार मुंबई आया था। हाँ पहली बार... उससे पहले मैंने मुंबई सिर्फ़ क़िस्से-कहानियों और फ़िल्मों में देखा था। उस दिन सब कुछ ही नया था, मुंबई का रूप रंग, फ़िल्मस्टार्स की होर्डिंग्स, बिल्डिंग, सड़कें... सब कुछ ऐसा था जैसे किसी अपरिचित से मैं पहली बार मिल रहा हूँ। मुझे पता था उससे थोड़ी देर बाद बात होगी पर अभी तो शुरुआत की कुछ झिझक थी ही। स्टेशन से ऑटो लेकर शहर देखता हुआ मैं कांदीवली पहुँचा। कांदीवली का घर जो कि मेरे दोस्त गौरव ने दो हफ़्ता पहले आकर लिया था वो भी मेरी कल्पना से अलग था। तंग जगहों के क़िस्सों की मुंबई में यह घर बड़ा था। सिर्फ़ ख़ुद में ही बड़ा नहीं पर अब तक के दिल्ली और बैंगलोर के सारे घरों से बड़ा। मैं अभी भी उसी मकान में रहता हूँ, मेरे दोस्त मज़ाक़ में कहते हैं कि ‘मुंबई में कहीं जगह है तो तुम्हारे घर में।’ मेरे मकान मालिक काफ़ी नेक़ इंसान हैं। उस रात हम दोस्त (मेरा एक दोस्त अमित सिंह भी पहले से अपनी वाइफ़ पारुल के साथ मौजूद था) मुंबई घूमने निकले। 'वाह! नया शहर'। नज़रें रह रह कर किसी सिलेब्रिटी को ढूँढ रही थीं। गेट वे पर TVF में काम करने वाला इंटर्नेट सिलेब्रिटी दिखा भी। मैं जान लेना चाहता था कि जब ये शहर मुझसे बातचीत शुरू करेगा तो क्या कहेगा? क्या मेरी बात सुनेगा ये शहर? या फिर मेरी बातें इसे कैसी लगेंगी? अभी सोचता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे इस शहर को मेरे लिए ही शायद बारिश ने उसदिन धो दिया था। नयी गलियों और लोगों से होते हुए मैं मुंबई को देख रहा था कि कैसे शुरू करूँ इससे बात करना?

अगले दिन वरुण(ग्रोवर) भाई का एक शो था कैन्वस लाफ़ क्लब में, उसके लिए मुझे उन्होंने इन्वाइट किया। तारीख़ थी १३ जून, २०१५। शो के बाद हम दोनों को लोवर परेल से लोकल लेनी थी। रात के कुछ ११ या १२ बज चुके थे। प्लैट्फ़ॉर्म पर लोकल आकर रुकी, डब्बे में अंदर कुछ १०-१२ लोग ही थे। मैं आगे खड़ा था और मेरे पीछे वरुण। मैंने एक पैर हवा में उठाया कि मैं डब्बे में चढ़ जाऊँ पर वो पैर तब तक हवा में ही रहा जब तक वरुण ने टोका नहीं कि 'क्या हुआ चढ़ो अंदर'। मैं चढ़ गया और हम दोनों बातें करते हुए कांदीवली तक आए। मेरी लोकल में फट्ट कर के ना चढ़ने की झिझक उससे पहचान ना होने की ही थी क्योंकि उसके बाद कभी ऐसा नहीं हुआ। अब तो लोकल ज़िंदगी का एक हिस्सा बन चुकी है।

शुरू के एक साल अलग अलग जगहों पर मैं गूगल मैप देखकर जाता था, अलग अलग ठिकानों पर। शहर की कई सारी जगहें मैंने किसी बिंदू की तरह ढूँढी है। नयी जगह पर जाना कुछ नया मिल जाने सा था। मुंबई आकर ही मुझे समझ आय कि  मुझे रंग और काँच के सामान बहुत पसंद हैं। मेरी सारी पसंदीदा जगहें मुझे एक छोटा सा मेले सी लगती थीं। अब शहर के क़रीब क़रीब हर वेन्यू से पहचान हो गयी है। वहाँ पर्फ़ॉर्म भी कर लिया है। अब जब वापस उन्हीं जगहों पर बार बार जाना होता है तो रास्ते समझ आते हैं मैं उन सारे बिंदुओं को जोड़ कर अपने दिमाग़ में एक रास्ता बना पाता हूँ। जो लोग अब रास्ता पूछते है उनको बता देता हूँ और फिर सोचता हूँ यह कैसे हो गया धीरे धीरे। इस शहर से इतनी जान पहचान हो गई। कभी कहीं यूँ ही घूमते हुए दोस्त मिल जाते हैं और फ़ेसबुक वाले दोस्त भी, तो लगता है कि  शहर अपना सा है। पर इसी बीच एक बात हुई है कि भटकना कम हो गया है। भटकने में कुछ मिल जाना आश्चर्य है। वो आश्चर्य धुँधले हो रहे हैं। उनकी जगह नए आश्चर्यों ने ले ली है। बारिश को आने में भी अभी तीन महीने हैं। बैंगलोर में दोस्तों के साथ रात में घूमना और सुंदर भविष्य के सपने भी भटकना था। मुझे उस भटकने की जगह रखनी पड़ेगी अपने अंदर यह समझ आ रहा है। उस भटकाव ने साहित्य और सिनेमा के नए दरवाज़े खोले थे। वहाँ से एक रस निकल आत था। चाय से भी पहले वाला स्वाद ग़ायब है, कभी चीनी ज़्यादा हो जाती है तो कभी चायपत्ती... पर मुझे यक़ीन है एक हल्की बारिश के साथ सब वापस आ जाएगा। पूरी तरह से नहीं पर टूकड़ों में ही। जैसे सिगरेट पीने वाले दिनभर टूकड़ों में अपना सुकून ढूँढते हैं मैं वो बारिश में ढूँढ रहा हूँ। हल्का ठंडा मौसम, चाय, किताबें और काग़ज़ पर उतरता हुआ मनचलापन।

मुंबई में अभी तो बारिश मुमकिन नहीं इसीलिए अगले हफ़्ते देहरादून जा रहा हूँ कुछ दोस्तों के साथ। बारिश ना सही पहाड़ ही सही। होटल भी रस्किन बॉंड के घर के बग़ल में बुक किया है। वहाँ जाकर भटकेंगे थोड़ी देर।  ख़ैर घड़ी १२ बजकर ११ मिनट का वक़्त बता रही है। सड़कें ख़ाली होंगी और मौसम में रात की एक ताज़गी। सोच रहा हूँ थोड़ी देर भटक आऊँ। मम्मी पूछेंगी कि सर्दी हुई पड़ी है तुम्हें और इतनी रात में घूमने निकल रहे हो? पर अब ठीक है उनको समझ आ जाएगा। वैसे भी भटकने के बाद अक्सर नींद अच्छी आती है।


Friday 2 March 2018

14 साल बाद



नीतीश, मेरा स्कूल का जूनियर.14 साल बाद मिला. 2004 में स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं दिल्ली चला आया था. स्कूल की यादें बहुत अच्छी थी नहीं और ना ही कोई दोस्त, तो मैं खुश था एक ऐसे माहौल से निकल कर जिसने घुटन के अलावा कुछ दिया नहीं. हाँ लिखना स्कूल में ही शुरू हो गया था, सातवीं क्लास में. स्कूल के बाद ज़िन्दगी दिल्ली, बैंगलोर से होते हुए लिखने के लिए मुंबई पहुंची... और एक दिन स्कूल का ही एक लड़का फेसबुक पर मुझे ढूँढता हुआ इनबॉक्स में... नीतीश ही था वो. उसने मुझे मेरी ऐसी ऐसी बातें बताई जो मैं भी भूल चुका था. मुझे अच्छा लगा ये. हमने नंबर एक्सचेंज कर लिए क्योंकि दोनों में शायद कॉमन बात यही है कि दोनों में कोई इंजीनियर नहीं है. मैं जो कर रहा हूँ कर ही रहा हूँ और ये फोटोग्राफर बन गया है। दुबई जा रहा है काम के सिलसिले में. दो चार दिनों के लिए मुंबई में था तो मिलने के लिए फ़ोन किया. हम कल मिले और अचानक घूमने का प्लान बना. वर्सोवा, गिरगाँव चौपाटी, मरीन ड्राइव, गेट वे, ईरानी कैफ़े, चर्चगेट और मुम्बई लोकल सबकी सैर खाते-पीते एक साथ हो गई. कुछ 7-8 किलोमीटर पैदल भी चले. मज़ा आया. रात में वापस लौटते हुए सोचा कि इतना तो मैं किसी के साथ एक दिन में नहीं घुमा. नीतीश को कहा 'एक मुट्ठी मुंबई लेकर जा रहे हो'. वो हँस रहा था.खुश था. अब जब सोच रहा हूँ तो लग रहा है कि दरअसल नीतीश मेरे बचपन और स्कूल को एक मुट्ठी मेरे पास छोड़ने आया था. एक अच्छा, सुंदर हिस्सा उस अतीत का जो कोनों में कहीं दबा रहा गया था. आज बड़ा होकर मिला है. मैं बहुत सी बातें और चेहरे भूल चुका हूँ उस वक़्त के. कभी कभी तो अपनी कहानी भी नहीं लगती वो...पर अपना सच है. एक जगह जहाँ बचपन में किसी ने एक्सेप्ट नहीं किया, उसमें आज नीतीश से मिलना ऐसा था जैसे स्कूल के एक हिस्से में अब जाकर एक्सेप्ट किया हो मुझे. 14 साल बाद. एक ग्रहण का हिस्सा अपना भी उतरा कल रात.
आगे के काम और भविष्य के लिए शुभकामनाएं नीतीश. खुश रहो, मज़े करो और अच्छा काम करो. वापस आओ तो फिर मुलाक़ात होगी.