यह जो अभी लिखना
शुरू किया है पहले भी लिख सकता था। अगर ढंग से देखें तो सब कुछ बंद कर के बस लिखना
ही तो था। पर नहीं,
इस बारे में सोचते हुए दो दिन
निकल गए। जिस वक़्त इसे लिखने की ज़रूरत महसूस हुई उस वक़्त मैं सेट पर था। थोड़ा
बहुत मोबाइल में लिखना शुरू ही किया था कि मेरा सीन शूट होने लगा। पूरे दिन काम
किया और क्या डिमांडिंग शूट था यह। तेज़ गर्मी और कड़क धूप। ख़ैर शूट अच्छा रहा और
मज़ा तो आया ही। सेट पर वैनिटी का AC, बाहर की कड़क गर्मी और धूप को मिला कर आज शाम ही सर्दी ने जन्म लिया है। बग़ल
में नाक पोछने के लिए रुमाल रखा हुआ है और बाक़ी दिन के सारे काम निबटाकर या कहें
तो छोड़ कर मैं इसे लिखने बैठ गया हूँ। इतना लिख लेने पर यह ख़याल आया कि सच में
इसके लिए बस इतना ही तो करना था। धत्, ना चाहते हुए भी आदतन हाथ मोबाइल तक पहुँच ही गया।
दरअसल बात
यह है कि मुंबई की गर्मी के इस मौसम में मुझे बारिश का इंतज़ार है। पिछले कुछ दस
दिनों से मैं बारिश का इंतज़ार कर रहा हूँ। लगातार होने वाली नहीं, थोड़ी देर होकर आस पड़ोस के लैंड्स्केप को बदल देने
वाली बारिश। ऐसा क्या है कि मुझे बारिश
का इंतज़ार है?
मुझे एक बात समझ आयी। दरअसल
मुंबई में बारिश का होना मेरे मुंबई आने के पहले दिन से जुड़ा हुआ है। मुंबई से
मेरी पहली पहचान से।
१२ June 2015 को मैं पहली बार मुंबई आया था। हाँ पहली बार... उससे
पहले मैंने मुंबई सिर्फ़ क़िस्से-कहानियों और फ़िल्मों में देखा था। उस दिन सब कुछ
ही नया था,
मुंबई का रूप रंग,
फ़िल्मस्टार्स की होर्डिंग्स, बिल्डिंग, सड़कें... सब कुछ ऐसा था जैसे किसी अपरिचित से मैं
पहली बार मिल रहा हूँ। मुझे पता था उससे थोड़ी देर बाद बात होगी पर अभी तो शुरुआत
की कुछ झिझक थी ही। स्टेशन से ऑटो लेकर शहर देखता हुआ मैं कांदीवली पहुँचा। कांदीवली
का घर जो कि मेरे दोस्त गौरव ने दो हफ़्ता पहले आकर लिया था वो भी मेरी कल्पना से
अलग था। तंग जगहों के क़िस्सों की मुंबई में यह घर बड़ा था। सिर्फ़ ख़ुद में ही
बड़ा नहीं पर अब तक के दिल्ली और बैंगलोर के सारे घरों से बड़ा। मैं अभी भी उसी
मकान में रहता हूँ, मेरे दोस्त मज़ाक़ में कहते हैं कि ‘मुंबई में कहीं जगह है तो
तुम्हारे घर में।’ मेरे मकान मालिक काफ़ी नेक़ इंसान हैं। उस रात हम दोस्त (मेरा
एक दोस्त अमित सिंह भी पहले से अपनी वाइफ़ पारुल के साथ मौजूद था) मुंबई घूमने
निकले। 'वाह! नया शहर'। नज़रें रह रह कर किसी सिलेब्रिटी को ढूँढ रही थीं। गेट वे पर TVF में काम
करने वाला इंटर्नेट सिलेब्रिटी दिखा भी। मैं जान लेना चाहता था कि जब ये शहर मुझसे
बातचीत शुरू करेगा तो क्या कहेगा? क्या मेरी
बात सुनेगा ये शहर?
या फिर मेरी बातें इसे कैसी
लगेंगी? अभी सोचता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे इस शहर को मेरे लिए ही शायद बारिश ने
उसदिन धो दिया था। नयी गलियों और लोगों से होते हुए मैं मुंबई को देख रहा था कि
कैसे शुरू करूँ इससे बात करना?
अगले दिन
वरुण(ग्रोवर) भाई का एक शो था कैन्वस लाफ़ क्लब में, उसके लिए मुझे उन्होंने
इन्वाइट किया। तारीख़ थी १३ जून, २०१५। शो के बाद हम दोनों को लोवर परेल से लोकल
लेनी थी। रात के कुछ ११ या १२ बज चुके थे। प्लैट्फ़ॉर्म पर लोकल आकर रुकी, डब्बे में अंदर कुछ १०-१२ लोग ही थे। मैं आगे खड़ा था
और मेरे पीछे वरुण। मैंने एक पैर हवा में उठाया कि मैं डब्बे में चढ़ जाऊँ पर वो
पैर तब तक हवा में ही रहा जब तक वरुण ने टोका नहीं कि 'क्या हुआ चढ़ो अंदर'। मैं चढ़ गया और हम दोनों बातें करते हुए कांदीवली तक आए। मेरी लोकल में फट्ट
कर के ना चढ़ने की झिझक उससे पहचान ना होने की ही थी क्योंकि उसके बाद कभी ऐसा
नहीं हुआ। अब तो लोकल ज़िंदगी का एक हिस्सा बन चुकी है।
शुरू के एक
साल अलग अलग जगहों पर मैं गूगल मैप देखकर जाता था, अलग अलग ठिकानों पर। शहर की कई
सारी जगहें मैंने किसी बिंदू की तरह ढूँढी है। नयी जगह पर जाना कुछ नया मिल जाने
सा था। मुंबई आकर ही मुझे समझ आय कि मुझे
रंग और काँच के सामान बहुत पसंद हैं। मेरी सारी पसंदीदा जगहें मुझे एक छोटा सा
मेले सी लगती थीं। अब शहर के क़रीब क़रीब हर वेन्यू से पहचान हो गयी है। वहाँ
पर्फ़ॉर्म भी कर लिया है। अब जब वापस उन्हीं जगहों पर बार बार जाना होता है तो
रास्ते समझ आते हैं मैं उन सारे बिंदुओं को जोड़ कर अपने दिमाग़ में एक रास्ता बना
पाता हूँ। जो लोग अब रास्ता पूछते है उनको बता देता हूँ और फिर सोचता हूँ यह कैसे
हो गया धीरे धीरे। इस शहर से इतनी जान पहचान हो गई। कभी कहीं यूँ ही घूमते हुए
दोस्त मिल जाते हैं और फ़ेसबुक वाले दोस्त भी, तो लगता है कि शहर अपना सा है। पर इसी बीच एक बात हुई है कि भटकना
कम हो गया है। भटकने में कुछ मिल जाना आश्चर्य है। वो आश्चर्य धुँधले हो रहे हैं।
उनकी जगह नए आश्चर्यों ने ले ली है। बारिश को आने में भी अभी तीन महीने हैं।
बैंगलोर में दोस्तों के साथ रात में घूमना और सुंदर भविष्य के सपने भी भटकना था।
मुझे उस भटकने की जगह रखनी पड़ेगी अपने अंदर यह समझ आ रहा है। उस भटकाव ने साहित्य
और सिनेमा के नए दरवाज़े खोले थे। वहाँ से एक रस निकल आत था। चाय से भी पहले वाला
स्वाद ग़ायब है, कभी चीनी ज़्यादा हो जाती है तो कभी चायपत्ती... पर मुझे यक़ीन है
एक हल्की बारिश के साथ सब वापस आ जाएगा। पूरी तरह से नहीं पर टूकड़ों में ही। जैसे
सिगरेट पीने वाले दिनभर टूकड़ों में अपना सुकून ढूँढते हैं मैं वो बारिश में ढूँढ
रहा हूँ। हल्का ठंडा मौसम, चाय, किताबें और काग़ज़ पर उतरता हुआ मनचलापन।
मुंबई में
अभी तो बारिश मुमकिन नहीं इसीलिए अगले हफ़्ते देहरादून जा रहा हूँ कुछ दोस्तों के
साथ। बारिश ना सही पहाड़ ही सही। होटल भी रस्किन बॉंड के घर के बग़ल में बुक किया
है। वहाँ जाकर भटकेंगे थोड़ी देर। ख़ैर घड़ी १२ बजकर ११ मिनट का वक़्त बता रही है। सड़कें ख़ाली होंगी और मौसम
में रात की एक ताज़गी। सोच रहा हूँ थोड़ी देर भटक आऊँ। मम्मी पूछेंगी कि सर्दी हुई
पड़ी है तुम्हें और इतनी रात में घूमने निकल रहे हो? पर अब ठीक है उनको समझ आ जाएगा। वैसे भी भटकने के बाद
अक्सर नींद अच्छी आती है।
No comments:
Post a Comment