Thursday 1 May 2014

ख़त

आज मेरा जन्मदिन है, पूरा पचास का हो गया मैं. कई दोस्तों की शुभकामनाएँ मेरी फ़ेसबुक वॉल पर बिखरी पड़ी हैं. कुछ दोस्त ऐसे भी है जिनसे मैं करीब बीस बरसों से नहीं मिला, बस उनके स्टेटस पर 'कॉमेंट' और फोटोस को 'लाइक' करता रहता हूँ. और वो भी हर साल मुझे जन्मदिन की शुभकामनाएँ भेजना नहीं भूलते, भले लोग हैं.

पलक झपकते ही सूचना प्रसारित करने का बेहतरीन साधन है ये  सोशल मीडीया.

पर एक वक़्त वो भी था जब उन लाल डब्बों में हम अपने खत डाल कर यह सोचा करते थे की आख़िर यह खत मेरी नानी के पास कैसे पहुँचेगा, तब किसी समझदार रिश्तेदार से पता चला था कि एक पूरा सरकारी विभाग मेरी भावनाओं को मेरी नानी तक पहुँचने के लिए कार्यरत है. सोच कर अच्छा लगा था की मेरी भावनाओं की परवाह भारत सरकार को भी है.

पर फ़िल्मों में तो भाग्यश्री को हमने " कबूतर जा जा जा...पहले प्यार की पहली चिटठी साजन को दे आ" गाते सुना था, पर हिन्दुस्तान की जनता ने कबूतर पर भरोसा करना कब का छोड़ दिया था . भाग्यश्री को ज़्यादा फिल्में मिली नहीं और जनता ने कबूतर की खोपड़ी पर भरोसा ना करते हुए  पहले ही ये काम डाकियाबाबू को दे दिया था.

कबूतर तो पहले ही बेरोज़गार हो चुके थे, पर आज कल डाकियाबाबू भी देखने को नहीं मिलते. और किसी के ख़त का इंतज़ार की रस्म भी ख़तम हो गई है.

वो हल्के पीले रंग वाला पोस्ट कार्ड और नीले रंग की अंतर्देशीय घर में मेरी किताब रखने वाली तख्त पर हमेशा लेटी हुई पाई जाती थी. और पापा भी हर रविवार धूप में कुर्सी डालकर रिश्तेदारो के खतों का जवाब लिखा करते थे. कभी गोंद की अनुपस्थिति में भात के दो दानों से लिफ़ाफ़ा चिपकाने की कल्पना भी आज हम नहीं कर सकते, पर ये कभी हमारी ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करते थे, तब ख़त लिखने और बाचने का अपना रौब हुआ करता था.

पोस्टकार्ड भाई साब बहूत कम बोलते थे, ऐसे में अगर आपको सीमित शब्दो में बात रखने की कला नहीं आती तो फिर आपकी मदद के लिए अंतर्देशीय दीदी थीं, पूरे साढ़े तीन पन्नो वाली. और अगर उससे भी बात ना बने तो लिफाफे, लिफाफो को तो मैं अपना यार कहूँगा, कई बार मेरे प्रेमपत्र को छुपा कर सही जगह पहुँचने का काम किया है इस दोस्त ने. अक्सर नये साल के आगमन पर खुद से पेंट की हुई ग्रीटिंग्स भी इसी लिफाफे में लेटकर अपने चाहनेवालों तक पहुचती थीं.

ये पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय, लिफाफे रिश्तेदार ही तो थे अपने. और इनमे एक रिश्तेदार था "तार", उस वक़्त के सबसे तेज़ संवाद का माध्यम. "तार" एक ऐसा रिश्तेदार था जो ज़्यादातर बुरी खबर ही लेकर आया करता था... तार में पैसे शब्दो के हिसाब से लगा करते थे तो लोग उसका उपयोग किसी के गुज़र जाने या बीमार होने की खबर देने करते थे. कई बार तो "तार" का मतलब ही यही हो गया था जैसे कोई अनहोनी.

मैं भी जब पहली बार घर से बाहर नौकरी करने गया, तो पूरे हफ्ते अपने जीवन में होने वाली घटना को उन खतों में डालकर ही भेजा करता था, जिसे पढ़कर मेरी माँ को मेरे सही सलामत होने का विश्वास रहता था. और इनके जवाब के इंतज़ार में उठने वाली भावनाएँ और उस इंतज़ार के ख़तम होने का सुकून भी अद्भूत था.
यह सुनकर भी अच्छा लगता था की मेरा खत पूरा परिवार साथ मिलकर सुनता है और इंतज़ार करता है मेरे अगले खत का.

पर आज वक़्त बदलता गया, खतों को फोन ने हर घर से बेदखल कर दिया है. हमने जल्दी से जल्दी बात करने और दुनिया से जुड़ने के कई माध्यम खोज निकले हैं, पेजर से शुरू होकर आज हमारे पास स्मार्ट फोन्स, गूगल हॅंगआउट, स्काइप, फ़ेसबुक, ट्विटर तमाम चीज़े है. पहले कभी पाँच घरों में एक फोन हुआ करता था, फोन करने और सुनने के बहाने रिश्ते बनते थे. और आज एक घर में पाँच फोन है, और नतीज़ा.... मेरा बेटा पीछले एक घंटे से अपने अलग अलग दोस्तो से बात कर रहा है, बेटी कैंडी क्रश मे अपना लेवेल अपडेट कर रही है, बीवी स्काइप पर अपनी माँ से बात कर रही है, और मैं भी फेसबुक पर बैठा अपनी बर्थडेविशहेस गीन रहा हूँ.

हम सब बिज़ी है. हममे से कोई भी एक दूसरे से बात नहीं कर रहा. उमीद्द है रात के खाने पर पूरे परिवार से एक साथ बातचीत होगी.

पर मैं सोच रहा हूँ तब तक बाहर जाकर कुछ लिफाफे यार और अंतर्देशीय दीदी को दोबारा घर ले आउ. उन्हें भी अच्छा लगेगा...

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