Saturday 3 October 2020

अर्ज़ियाँ सारी

आज गिरते पड़ते पाँच किलोमीटर पूरे किए। नहीं, इतनी भी बुरी हालत नहीं हुई थी, ठीक ठाक ही दौड़ा। धीरे धीरे distance बढ़ेगा फिर pace भी ठीक हो जाएगी। सोचा था घर आकर ही post running stretching करूँगा पर घर के बग़ल वाला पार्क ख़ाली (कम भीड़) दिखा तो वहीं घुस गया। एक कोने को पकड़ कर एक लड़कों का group क्रिकेट खेल रहा था, दूसरे कोने में कुछ लोग बैड्मिंटन। अलग अलग बेंचों पर कुछ लोग बैठे हुए थे और पार्क के बीच में काफ़ी ख़ाली जगह बाक़ी थी। मैं उस ख़ाली जगह में अपनी stretching करने लगा। Earphone पर फ़िल्म "दिल्ली-6" का गाना "अर्ज़ियाँ" चलने लगा था। अचानक से उसकी एक लाइन का मतलब समझ गया। वैसे तो ये गाना मैं तब से सुन रहा हूँ जब यह फ़िल्म आयी थी, 2009। तब मैं दिल्ली में था और ओखला के जामिया नगर में काम करता था। महारानी बाग़ के स्टैंड से RTV लेता था और FM पर यह गाना सुनते हुए ऑफ़िस जाता था। 


कुछ ग्यारह साल हो गए पर उस लाइन का सही मतलब और भाव मुझे आज समझ आए। "एक ख़ुशबू आती थी, मैं भटकता जाता था। रेशमीं सी माया थी और मैं तकता जाता था।" उस वक़्त यह लाइन ज़िंदा हो चुकी थी। "इस लाइन में कस्तूरी की बात हो रही है" मैंने ख़ुद से कहा। जिसकी ख़ुशबू ढूँढने के लिए हिरन बस भागता रहता है, पर वो ख़ुशबू उसी की है, हमेशा उसके पास। "एक ख़ुशबू आती थी, मैं भटकता जाता था।" आगे की लाइन इस लाइन का साथ देती है, "जब तेरी गली आया, सच तभी नज़र आया। मुझमें ही वो ख़ुशबू थी जिससे तूने मिलवाया" यह भाव यहाँ पूरा हो गया। मेरे दिमाग़ में मैं फिर से उसी RTV में बैठ कर ऑफ़िस जा रहा था और वह से यहाँ के अपने जीवन और सफ़र को देखने लगा। ये सब रेशमी माया थी और मैं तकता जा रहा था, अभी भी, लगातार। उस वक़्त उस लड़के के अंदर जो सपने थे पिछले ग्यारह सालों के सफ़र में वो सपने सामने सच बन कर उगे हैं, और वो जितने सच हैं उतने ही माया। उसमें बस सफ़र या कहें तो उस कस्तूरी के लिए भागना ही सच है। जौन पॉल सात्रे के शब्दों में "Action is the only reality that exists" मैंने सामने देखा एक खुले हरे पार्क में मैं खड़ा था, सामने एक स्कूल की बिल्डिंग थी, कुछ पेड़ों पर सफ़ेद फूल खिलने लगे थे, सूरज बादलों में कहीं घूमता हुआ निकल रहा था। लोग धीरे धीरे पार्क में आने लगे थे। मैं सोच रहा हूँ कि मैं इस वक़्त में जीवन से क्या माँग रहा हूँ? कौन सी माया है जिसे जीने का बड़ा मन है। पर जो भी हो यह बात समझ आती है कि सारी माया हमारी ही बनायी हुई है। घर जाकर क्या करूँगा घर जाकर ही सोचूँगा। अभी, अभी तो हवा चेहरे को छू कर निकल रही है और पसीने को आराम दे रही है। मैं ये सब सोचते हुए जीवन का शुक्रिया करता हूँ और stretch करते करते सोचता हूँ कि इस moment की एक फ़ोटो निकाल लूँ। जेब से फ़ोन निकाल कर आस पास ही फ़ोटो खिंचता हूँ, फिर ऊपर आसमान की तरफ़ देखता हूँ। एक तार पर अकेला एक पंक्षी बैठा कुछ सोच रहा है। मैं उसकी फ़ोटो भी खींच लेता हूँ।


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