Monday 5 October 2020

ग़ामक घर और बोरिंग काम

फ़ाइनली पिछले हफ़्ते MUBI पर डिरेक्टर अचल मिश्रा की फ़िल्म "ग़ामक घर" देखी। यह 2019 की फ़िल्म है और पिछले साल मुंबई फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी दिखाई गयी थी। फ़िल्म की हर तरफ़ बहुत तारीफ़ हुई थी, कई अवार्ड भी जीते और इस फ़िल्म को लोगों बहुत सारा प्यार मिला। मैं थोड़ा लेट था, फ़िल्म देखने के बाद लगा कि मुझे पहले ही यह फ़िल्म देख लेनी चाहिए थी। कई बार हम जो मिस कर रहे होते हैं हमें ख़ुद भी पता नहीं होता कि हम क्या मिस कर रहे हैं। यह फ़िल्म एक album थी, एक कोशिश थी कि जो भी छूटता जा रहा है उसे संजों और सज़ा कर रखने की... कोई भी scene उछल-उछल कर नहीं बताता कि "देखो-देखो यह बात सबसे ज़रूरी बात है।" कैमरा एक जगह स्थिर रहता है और हमारे सामने हर दृश्य उभरता जाता है जैसे हम जीवन देख रहे हों। यह फ़िल्म में सौरभ के साथ देख रहा था। मैं पहली बार और वो दूसरी या शायद तीसरी बार। फ़िल्म देखते हुए हमारी बीच बीच में बात भी हो रही थी। एक जगह मैंने फ़िल्म के इस तरह के ट्रीटमेंट को imperssionalism की painitings से compare किया और बोला कि "अगर हम इतिहास उठाकर भी देखें तो सारे महान artwork कहीं ना कहीं सबसे simple और हमारे जीवन के हिस्से से ही आते हैं।" इसपर सौरभ ने कहा "हाँ भाई, life को उठा के वैसा का वैसा ही रख दिया ना।" उसकी बात कितनी सरल और गहरी थी। हम फिर से फ़िल्म देखने लगे। सौरभ की बात मेरे मन में घूमती रही। 

फ़िल्म में  एक scene था, जिसमें एक character आम लाने के लिए घर से बाग़ीचे को जा रहा है। वो एक बच्चे से कहता है कि "चलो बग़ीचा आम लेकर आते हैं।"और बच्चा उसके साथ चल पड़ता हैं। उस scene को देखते हुए एक ख़याल कौंधा कि बस आम लाने के लिए ये लोग बाग़ीचा जा रहे हैं। आम तोड़ेंगे फिर उसे घर लेकर आएँगे, फिर खाएँगे। कितना time waste है। इतनी मेहनत का result क्या है? आम खाना। मैं क्या करता मुझे आम खाना होता तो? ऑर्डर कर लेता। अपना टाइम बचाता। जैसे ही यह टाइम बचाने वाला ख़याल मन में आया उसके पीछे पीछे एक और सवाल दाख़िल हुआ कि मैं टाइम बचा कर क्या करता? उसका जवाब था - कुछ और, कोई और काम, जैसे लिखना या कोई फ़िल्म देखना या कुछ भी और...




इस "कुछ भी और" का क्या मतलब ? इस कुछ और का मतलब था थोड़ा और जीना, थोड़ा बेहतर जीना। मैं यहाँ रहते हुए कुछ और जीने की कामना कर रहा था जो अभी यहाँ नहीं था। अगर अपने बचपन में जाकर देखूँ तो मैं भी बाग़ीचा जाता था, आम तोड़ता था, जामुन खाता था। कई बार सुबह सुबह पाँच बजे उठकर अपने पेड़ से महुआ बीनने जाता था। कभी बस खेत घूमने चला गया तो कभी हफ़्ते में तीन दिन लगने वाला सब्ज़ी बाज़ार चला गया। मैं भी तो वो सब करता था जो फ़िल्म के किरदार कर रहे थे। फिर मेरे पास अचानक यह ख़याल कैसे आया कि ये सब time waste है। अगर मैं पलट कर देखूँ तो वो सब रोज़ दिनचर्या के (अब) बोरिंग से लगने वाले काम ही तो जीवन थे। मैं वो सारे काम करते हुए कभी ये नहीं सोच रहा था कि इसे जल्दी जल्दी कर लूँ क्योंकि इसके बाद कुछ और करना है। वो बोरिंग काम बोरिंग नहीं थे, उनको करते जाना भर ही जीना था। फिर मैं ये सोचने लगा कि यह बात कहाँ आकर बदली कि हम जीवन जीने से ज़्यादा उसे जीने के तरीक़े ढूँढने लगे और हर गुज़रते क्षण में जीवन को जीने से दूर होते गए? हमें यह कब लगने लगा कि हम एक दिन जिएँगे जबकि जीवन और उसको जीना तो हर वक़्त साथ ही चल रहे थे, हमारे साथ, हम ही कहीं और खिंचे चले जा रहे थे। इसमें हम इतना खिंचें की हमारे दो टुकड़े हो गए। एक टुकड़ा हमारे अतीत में गिरा और दूसरा भविष्य में, वर्तमान में बस एक void रह गया। एक ख़ालीपन जिसे भरने की कोशिश में हम हमेशा व्यस्त रहने लगे और इसी को अपनी ख़ुशी का रास्ता मान कर बैठ गए। ख़ुश रहना आने वाले कल की बात हो गयी। 

दरअसल जब हम बड़े होने लगे थे तब ही यह द्वन्द शुरू हुआ था। जब हमें यह बताया गया कि दुनिया बहुत बड़ी है और दूसरी जगहों पर बहुत सारी ख़ुशियाँ है, वैसी जैसी TV में दिखती हैं, जैसी ads में बतायीं जाती है। जब हम अपनी छत पर बैठे खेतों के पीछे से उगता सूरज देख रहे थे तब हमारे सामने एक और सूरज लाकर रखा गया और कहा गया कि इसे देखो यह सूरज तुम्हारे सूरज से ज़्यादा तेज़ चमकता है।  इसके आस पास का आसमान ज़्यादा साफ़ है। ऐसी बातें हमें बार बार बतायीं गयीं तब तक बतायीं गयीं जब तक हमें उन बातों पर भरोसा नहीं हो गया। फिर एक दिन हम उस बनावटी सूरज की तलाश में निकले जो वादा था एक ख़ुशहाल ज़िंदगी का। और हमें यह बहुत देर के बाद एहसास हुआ कि जब हमें यह बनावटी सूरज दिखाया गया उसके ठीक पहले तक हम ख़ुश ही थे। बैठे थे छत पर सूरज को देखते हुए, उसकी रोशनी हमारे ऊपर पड़ रही थी। और उसी वक़्त हमारे साथ एक छल हुआ, हमें  बताया गया कि हमें ख़ुशी की तलाश में निकलना होगा जो कहीं और है। जिसे शायद बाज़ार से ख़रीदा जा सकता है, मेहनत करके पाया जा सकता है। पर हम उस वक़्त ख़ुश थे।फिर हमने जीने के इतने पैंतरे रचे कि बस उन्हीं में ही फँस कर रह गए। 

अभी भी जीवन बस यहीं हैं, उन सारी चीज़ों और कामों में बसता जिसे हमने boring कह कर नकार दिया। मैं अब जब सब्ज़ी ख़रीदने जाता हूँ तो उसकी बोरियत को समझने की कोशिश करता हूँ। मैंने ढूँढा वो बोरिंग काम नहीं है, उसका अपना मज़ा है। शायद हमें उन सारी चीज़ों को फिर से टटोलने की ज़रूरत है जिसे हमने बोरिंग क़रार दे दिया है। शायद उसके अंदर हमें हमारा जीवन बैठा मिल जाए जिसे हम किसी future में तलाश रहे हैं। 

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