Sunday 4 May 2014

ख्वाबो की पोटली

तुम्हारे आने की खबर सुन
कुछ ख्याबों को पोटली में भीगो कर रख दिया है.

जो आज खास तुम्हारे लिए चुने थे,बड़े नाज़ूक हैं वो,
डर था उनके खुली हवा में खराब होने का.

सोचा है तुम आओगे तो तुम्हें परोसुँगा,
वैसे भी मेरे घर के इकलौते मेहमान तुम ही तो हो.

मैं वहीं अपनी चौखट पर बैठा तुम्हारी राह तकता रहा,
बैठे बैठे जाने कब आँख लगी पता ही नहीं चला,

आँख खुली तो दिन ढल चुका था.
परिंदे भी सारे अपने घर लौट आए थे.

पर तुम आज फिर नहीं आए.
चलो खैर, अच्छा मज़ाक था.

और मेरे ख्याब भी उसी पोटली में तुम्हारी राह ताक़ते मुरझा से गये हैं.

और मैं फिर खाली हाथ तुम्हारे इंतज़ार और आने की उम्मीद लिए,
कुछ ताज़े ख्वाब चुनने निकल पड़ा हूँ.

सोचता हूँ  तुम जबभी आओगे, तुम्हें परोसुँगा.

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