Friday 9 May 2014

एक घाव तुम्हारा

तुम्हारा दिया एक घाव था मेरी शक्ल पर, पिछ्ले कई महीनों से.
सुबह सुबह मुँह धोते उससे मुलाकात होती थी,
और हाथ भी बिना इजाज़त उससे मिल आया करते थे.

धीरे धीरे दोस्ती भी गहरी हो गई,उससे.
तुम्हारी गैरहाजरी में कई शामें उसके साथ ही तो बीती थीं.

हम दोनों में लुक्काछिप्पी का खेल भी होता.
कभी वो मुझे सताता तो कभी मैं उसे मसलता.

पर क्या करें, था तो एक घाव ही...

अब मैं रोज़ उसे चले जाने को कहता हूँ,
पर ये मेरी एक नहीं सुनता,
शायद उसे भी मेरे साथ ही रहना था.

...पर उस दिन आँख खुली तो वो जा चुका था,
शायद बुरा मान कर मेरी बातों का.

दर्पण उसके बिना अब मानों सूना सा लगता है,
और हाथ की उंगलियों को खिलौना नहीं दिखता है.

महसूस अब ये होता है, वो अपने ज़िस्म का  हिस्सा था,
जिससे है मेरी किताब बनी वो उसी का एक किस्सा था.

शक्ल है मेरी बेहतर अब, ये लोगों मे मशहूर है,
पर उसके बिना ज़िंदगी में कुछ कमी तो ज़रूर है.

No comments:

Post a Comment