Wednesday 23 December 2015

फाइंडिंग फैनी/कल्पना और यथार्थ के बीच की चिट्ठी

साल खत्म हो रहा है, और इस साल कुछ कमाल की फिल्में आई हैं। मसान, तलवार, दम लगा के हईशा, NH 10, तमाशा वगैरह मेरी इस साल की लिस्ट में कुछ अच्छी फिल्में हैं। दूसरी तरफ कुछ और फ़िल्में हैं जो मैंने पिछले साल यानि कि 2014 में देखी थीं पर उनका हैंगओवर मैं अभी तक महसूस करता हूँ | उनमें से आनंद गांधी की ‘शिप ऑफ़ थीसियस और रजत कपूर की ‘आँखों देखी‘ हैं। ये दोनों फिल्में मेरे साथ साथ बढ़ रही हैं। हर रोज़ मैं इन फिल्मों को अपने आस पास घटित होता हुआ देखता हूँ। पर साल 2014 में एक और फिल्म रिलीज़ हुई थी जो उस वक़्त मुझे बहुत पसंद आई थी पर मैंने उसे दुबारा कभी नहीं देखा। यह फिल्म कहीं न कहीं उस इम्पोर्टेन्ट नोट की तरह थी जो साल के कलैंडर में कहीं खोकर रही गई। वो फिल्म है 'फाइंडिंग फैनी'| आज जब मेरा दोस्त ये फिल्म देख रहा था तो मुझे लगा जब ये अचानक से सामने आ ही गया है तो इस इम्पोर्टेन्ट नोट को दुबारा से पढ़ना चाहिए।

2014 में फिल्म की रिलीज़ के बारे में अगर विकिपीडिया की मानें तो 'फाइंडिंग फैनी' एक कॉमेडी फिल्म हैं। पर मेरे विचार में यह फिल्म कॉमेडी की सतह से काफ़ी अंदर की तरफ गोता लगाती है, और हमारी स्मृति की कल्पनाओं और वर्तमान के यथार्थ के बीच की कोई जगह तलाशती है, जिसे हम सब अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से तैयार करते हैं।

फ्रेडी (नसीरुद्दीन शाह) जो कि लगभग 60 साल का एक बुज़ुर्ग है| उसे एक रात एक खत मिलता है जो उसने उस लड़की स्टेफनी फर्नांडिस (फैनी) के लिए लिखा था, वो आज भी जिससे  प्यार करता है| इस बात को 46 साल बीत चुके हैं, पर ये खत फैनी तक कभी पहुँचा ही नहीं और फैनी को तो पता ही नहीं है कि फ्रेडी उसके बारे में क्या सोचता है।
एंगी (दीपिका पादुकोण) जो कि एक यंग विडो है को ये बात पता चलती है और वो फैनी को ढूंढने में फ्रेडी की मदद करना चाहती है। इसमें उसका साथ देने के लिए ‘रोज़लिन’ (डिम्पल कपाड़िया), ‘पेंटर डॉन पेद्रो’ (पंकज कपूर) और एंगी का बचपन का दोस्त ‘सवियो’(अर्जुन कपूर) एक साथ आते हैं। इन सबकी ज़िंदगी के अधूरेपन की अपनी अलग कहानी है, जिससे ये जूझ रहे हैं| फैनी को ढूंढने के दौरान एक दूसरे से तालमेल बिठाते उस टुकड़े को ढूंढने की कोशिश करते हैं जिसे पाकर वो थोड़ा संतुष्ट महसूस कर सकें। हम सबकी तरह...

यह फिल्म दरअसल ‘फैनी’ की खोज कम और के उस टुकड़े की ख़ोज ज़्यादा है जिसकी तलाश जाने अनजाने हम सबको है| और यह उम्मीद भी कि शायद उसके मिल जाने पर हमें 'पूरा' होने का एहसास हो। फैनी को ढूँढ़ते हुए इन पाँचों का रास्ता भटक जाना और उस भटकने में एंगी और सवियो के उस प्यार का मिलना जो शायद वक़्त के साथ बंट कर अलग अलग दिशाओं में चला गया था | …थोड़ा भटककर खुद को पाने वाला एहसास तो है ही, जिसकी कल्पना हम हमेशा करते रहे हैं। पर एक दुसरे को पाने के बाद भी वहाँ एक अनिश्चितता का बना रहना और फिर भी उस अनिश्चितता में भी प्यार का पनपना, यथार्थ के धरातल की कहानी कह जाता है। इन सारे भटकने, खोने और मिल जाने के बीच मैं ये देखना चाह रहा था की फ्रेडी जब फैनी को मिलेगा तो उससे क्या कहेगा? ...कैसा महसूस करेगा वो, जब वो अपनी ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत एहसास से मिलेगा, जो ज़िन्दगी जीने के तरीकों के बीच खोकर बस उसकी कल्पनाओं में इस उम्र तक ज़िंदा है।  ...और फ्रेडी की फीलिंग्स जानकर फैनी कैसा महसूस करेगी? कैसे रियेक्ट करेगी वो? 

फ्रेडी की नज़रों में फैनी आज भी वैसी ही है, जैसा उसने उसे आख़िरी बार देखा था। बिल्कुल हमारी कल्पनाओं की तरह जैसे हम अपने किसी खूबसूरत पल का स्क्रीनशॉट लेकर रख लेते हैं, और हमें उम्मीद होती है की वो चीज़ आज भी वैसी ही होगी| शायद हम उसकी खूबसरती के तिलिस्म से कभी निकलना नहीं चाहते| पर यथार्थ के सामने आने पर उसकी शक्ल इतनी बदल चुकी होती है कि हमें कुछ वक़्त लगता है हमारी कल्पनाओं और यथार्थ के बीच  सामंजस्य ढूंढने में। ठीक इसी तरह जब आखिरकार फ्रेडी फैनी को मिलता है तो अपनी पुरानी कल्पना की वजह से फैनी की बेटी को फैनी समझ बैठता है, जो हू-बहू जवानी के दिनों की फैनी जैसी दिखती है| पर तुरन्त ही उसे पता चलता है कि फैनी तो मर चुकी है। वो ताबूत में लेटी हुई फैनी की  तरफ देखता है, पर ये क्या... फ्रेडी खुद भी उसे पहचान नहीं पाता। पर वो खुद की तसल्ली के लिए उसकी बेटी से पूछता है कि “क्या फैनी ने कभी उसका नाम  लिया था? क्या फैनी ने कभी उसके बारे में कोई बात की थी?” क्योंकि फ्रेडी को यह भी लगता है कि फैनी उसका  इंतज़ार अब तक कर रही थी। और वो इसी उम्मीद से उसे ढूँढ रहा था कि जिस फैनी को वो पिछले 46 साल से भूला नहीं है, उसे भी उसकी याद तोहोगी ही। पर दुबारा यथार्थ फैनी की कल्पनाओं पर भारी पड़ता है "फैनी ने उसे कभी याद नहीं किया। फैनी की बेटी ने तो कभी फ्रेडी का नाम भी नहीं सुना।" यह पूरा सीन देखकर मैं फ्रेडी के लिए एक दुःख से भरा बस मुस्कुराता रहा (इस एहसास के लिए शायद एक नए शब्द की ज़रुरत है|) । क्योंकि मैं सच में चाहता था कि फ्रेडी एक आखिरी बार तो फैनी से मिल ले। कम से कम वो फैनी को बता तो दे कि वो उसके बारे में क्या सोचता है। पर यहाँ तो फैनी को फ्रेडी का नाम तक याद नहीं है|

पर जैसा कि कहते हैं कि "हर अंत के बाद एक शुरुआत भी पनपती है।" ठीक वैसे ही फिल्म का हर कैरक्टर इस सफर के दौरान अपनी ख़ुशी पाने की एक नई शुरुआत फिल्म के अंत में करता है। और अपनी कल्पनाओं से निकल यथार्य को चुन लेता है| पर ये तो फ्रेडी की कहानी थी। हमारी ज़िन्दगी में यथार्थ और कल्पना दोनों में से किसे चुनने का सुख ज़्यादा है वो तो तब ही पता चलेगा जब हमारी कल्पनाएँ हमारे अपने यथार्थ से टकराएंगी।  पर अभी के लिए मैं यही कहूँगा कि "लिखी हुई चिट्ठियों को वक़्त रहते उनके पते पर पहुँचना बहुत ज़रूरी है।" क्या पता कब कौन सा लिफ़ाफ़ा खुलकर हमारी 'कल्पना' को 'यथार्थ' में  बदल दे।
(आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है।)
- Neeraj Pandey

Saturday 19 December 2015

सहना और जीना

वो जो तैयार कर रहा है
उसका सुख वो कभी जी नहीं पाता।

वो तो बस सहता है
इसके तैयार होने को,
इसके तैयार होने तक,
एक न्यूनतम मजूरी पर,
हर क्षण...

और एक दिन चुपचाप
वक़्त के सरकने पर
धीरे धीरे सरकता हुआ
अपनी शक्ल समेटता
वो हो जाता है कहीं गायब,

फिर सालों बाद
कोई और आकर
भोगता है वो सारा सुख
जो उसने कभी सह सह कर
पार किया था।

मैंने भी कई बार पलट कर
देखा है
तो चकित हुआ हूँ,
वो कौन था जो सह रहा था
वर्षों से?

क्योंकि, अब जो ये जी रहा है
वो, वो नहीं है।
सहने वाला हर बार निकल जाता है
शांत क़दमों से,
और फिर मैं ढूँढने लगता हूँ
खुद को
उस सहने वाले और इस जीने वाले के बीच कहीं।

Monday 9 November 2015

संभावनाएँ

तुम निकल रही हो
अपनी संभावनाओं की तलाश में,
पर छोड़ जा रही हो
एक बिंदु मेरे पास...

बिंदु, जिसमें संभावनाएं थी
लकीर बनने की
लकीर, जिसके साथ हम तय कर सकते थे
क्षितिज तक की दूरी
या शायद उससे भी कहीं पार...

मैंने उस बिंदु को फिलहाल
रख लिया है संभालकर,
अपनी हथेलियों में दबाकर,
तिल बनाकर,
कि
तुम्हारे वापस आने पर
जब कभी संभावनाएं अनुकूल होंगी,
ये तिल जीवन रेखा में बदल जाएगा,
वो बिंदु लकीर हो जाएगी|

© Neeraj Pandey

Wednesday 21 October 2015

अनुवाद : भोजपुरी से हिंदी : मैना

'मैना' 
[कवि - गोरख पाण्डेय / अनुवाद - नीरज पाण्डेय ]

राजा ने एक दिन मारी 
आसमान में उडती मैना 
बाँध के घर वो लाए मैना 

इसी के पिछले जन्म के कर्म,
किया मैंने शिकार का धर्म 
राजा बोले राजकुमार से 
अब तुम लेकर खेलो मैना,
देखो कितनी सुन्दर मैना ।

खेलने लगा जब राजकुमार
उनके मन में उठा शिकार 
पंख क़तर कर बोला उसने 
मेहनत कर के उड जा मैना । 

है पंख बिना कोई  उड़ पाया, 
राजकुमार को गुस्सा आया 
तब फिर तोड़ी टाँग और बोला 
अब तुम नाचो मैना
ठुमक ठुमक कर नाचो मैना । 

है पाँव बिना कोई नाच पाया 
राजकुमार थोड़ा पगलाया 
तब फिर बोला गला दबा के 
अब तुम गाओ मैना
प्रेम सा मीठा गाओ मैना । 

मरकर कैसे गाने पाए 
राजकुमार राजा बुलवाए 
बोले, बड़ी दुष्‍ट है ये
अब एक बात न माने मैना
सारा खेल बिगाड़े मैना। 

जब तक खून पीया न जाए 
तब तक कोई काम न आए 
राजा कहें कि सीखो कैसे 
चूसी जाए मैना 
कैसे स्वाद बढ़ाए मैना । 

Saturday 10 October 2015

भूखा कटोरा

एक खाली कटोरा
अपने ही पेट से धँसा हुआ,
जो सिर्फ समा लेना जानता है |

यह देनेवाले की
शक्ल नहीं पहचानता
और ना ही इसे परवाह है ।
...बस हिसाब लगाता रहता है
और हरबार पाता है
खुद को - अतृप्त |

ये भूखा कटोरा
वहम खा सकता है,
परछाइयाँ निगल सकता है,
धुन्ध चबा सकता है
और आहार बना सकता है
सारी माया को |

इसकी भूख इतनी है
कि
एक पूरा समानांतर विश्व
समा सकता है इसमें
और ये साला कभी एक
डकार तक नहीं मारेगा |

पड़ा हुआ है अपने जन्म से ये
यूं ही खोखला
और ऐसा ही रहेगा |

तुम्हें वहम था...
यह किसी फ़कीर का नहीं,
भिखारी का कटोरा है। 

© Neeraj Pandey

Thursday 1 October 2015

मिडनाइट इन पेरिस : बीते कल की गर्म चादर

जैसा कि अक्सर मेरे दोस्तों की शिकायत रही है कि " तुम जब खुश होते हो तब उस ख़ुशी को क्यों नहीं लिखते ?" इसलिए आज लिख रहा हूँ कि "मैं खुश हूँ" । इतना खुश कि अभी अपनी कुर्सी से उठकर नाचने का मन हो रहा है ।  इतना खुश कि किसी को कसकर गले लगाने का मन हो रहा है। पर दोस्त जिसके साथ में रहता हूँ वो भी 2 दिनों के लिए शहर में नहीं है और मैं घर में अकेला…  । खैर, खुश होने की दरअसल दो वजहें हैं । पहली ये कि मैं फिल्में देखना सीख रहा हूँ । ये अपने आप में बैंगलोर में रह कर 'कन्नड़' और मुंबई में रहकर 'मराठी' सीखने की कोशिश जैसा है... एक नई भाषा । और दूसरी वजह ये कि वुडी एलन की फिल्म " मिडनाइट इन पेरिस " अभी अभी थोड़ी देर पहले देख कर शुरू की … हाँ "देखकर शुरू की " क्योंकि  मुझे पता है ये फिल्म मैं कई बार देखने वाला हूँ, इसका स्क्रीनप्ले पढ़ने वाला हूँ, मेकिंग देखने वाला हूँ वगैरह वगैरह ।


मैंने अनेक बार अपने आस पास के लोगों, दोस्तों और खुद को यह कहते सुना है कि " भाई असली वक़्त तो वो था जो पांच साल पहले था । जब हम लोग ऐसा करते थे, वैसा करते थे।  क्या बढ़िया टाइम था वो।" दरअसल इस तरह से वक़्त को नापने का ये कार्यक्रम मैं लगभल पिछले कुछ दस बारह सालों से हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में देख रहा हूँ । किसी उम्रदराज अंकल से भी बात होती है तो वो भी यही कहते हैं | 

"वो भी क्या दिन थे ।" 
"और…अंकल जी आज ?" 
"अरे आज तो झंड है। " 

जवानी में - बचपन, और बुढ़ापे में - जवानी का खूबसूरत लगना एक आम सी कहावत है। मुझे अक्सर लगता है, हम सबको बीते हुए वक़्त की चादर की गर्मी ज़्यादा सुकून देने वाली लगती है। उसकी गर्माहट में एक आराम होता है और हम वहीँ पड़े रहना चाहते हैं और शायद इसी वजह से हम आज में जो कमाल घट रहा है उसे नहीं देख पाते या उसको उतना तवज्जो नहीं देते। कई बार मैं ये देखने के लिए कि मेरा आज कैसा दिखता है ? मैं मानसिक तौर पर थोड़ी देर रुक जाता हूँ और फिर कुछ साल आगे जाकर (जो कि भविष्य होगा) खुद की 'आज' की ज़िंदगी को देखना चालू करता हूँ… किसी जिये जा चुके अतीत की तरह। फिर मैं क्या देखता हूँ ? मुझे नज़र आता है " उफ्फ्फ वो भी क्या दिन थे :) । " और मेरे अंदर का आदमी जो अभी वर्तमान में ही बैठा हुआ है वो जीवन का धन्यवाद करता है, हल्का सा स्माइल करता है और कहता है "जीवन बहुत खूबसूरत है। और अभी जो मेरे साथ चल रहा है आगे जाकर मेरी कहानी का एक खूबसूरत अध्याय बनने  वाला है । " 

'वुडी एलन' की ये फिल्म भी कुछ ऐसा ही कहती है, उसके मुख्य किरदार 'गिल' जो की 2010 में जीने वाला एक राइटर है। एक रात सड़क के किनारे रास्ता भटककर बैठा हुआ है। तभी वहाँ एक टैक्सी आकर रुकती है… उसमें से कुछ लोग निकल कर उसे बुलाते हैं। और 'गिल'' उस टैक्सी में बैठ कर उन लोगों के साथ 1920's में चला जाता है। पिकासो के वक़्त में… वो वक़्त जो 'गिल' के हिसाब से साहित्य और कला एक गोल्डन एरा है। सब कुछ बहुत कमाल -सुनहरा। वो वहाँ जाकर उन लोगों से मिलता है जो उसके जीवन के सबसे बड़े इन्फ्लुएंस रहे हैं । जिनसे वो हमेशा से मिलना चाहता था। जिनका वो फैन रहा है। वो 'हेमिंग्वे' को अपनी किताब दिखाता है।  है न कमाल की बात ! सोचों अगर कभी तुम्हारे साथ भी ऐसा हो !!  कुछ वक़्त के लिए तो उसे इस पर यकीन नहीं होता पर अब हर रात वो वही टैक्सी पकड़ कर उस एरा में आ जाता है… उस बीते हुए कल के किरदारों के साथ जीने। धीरे धीरे उस वक़्त और किरदारों से 'गिल' का एक रिश्ता बनने लगता है। वो 'एड्रिआना' से मिलता है जो कि 'पिकासो' की गर्लफ्रेंड  है। इस मिलने जुलने के दौरान 'गिल'' और 'एड्रिआना' एक दुसरे के प्यार में पड़ जाते हैं ।


एक रात दोनों पेरिस की सड़कों पर घूम रहे हैं और फिर एक बार एक वैसी ही टैक्सी आकर उनके पास रुकती है, और वैसे ही लोग निकल कर 'गिल' और 'एड्रिआना' को अपनी तरफ बुला रहे होते हैं। दोनों इस टैक्सी में बैठते है और एक बार फिर ये टैक्सी इन दोनों को एक ऐसे वक़्त में लेकर जाती है जो 'एड्रिआना' के लिए एक बिता हुआ एरा है। यहाँ 'एड्रिआना' के लिए सब कुछ बहुत कमाल और सुनहरा है। वो यहाँ उन लोगों से मिलती है जो उसके जीवन के इंस्पिरेशन रहे हैं। वो वहीँ रहना चाहती है, वो वापस उस एरा में नहीं जाना चाहती जो उसके लिए अभी भी वर्तमान है, '1920's' ।  पर 'गिल' इस बात के लिए तैयार नहीं होता उसे कुछ और भी समझ आने लगा है और वो वहाँ से वापस आ जाता है ।


पूरी फिल्म इस बात को तह दर तह पलटती जाती है कि किस तरह हम ये सोचते हैं कि जो हमारा बिता हुआ वक़्त था, कितना शानदार रहा होगा। वो वक़्त भी, जिसको शायद हमने कभी जिया भी नहीं, बस उसके बारे में पढ़ा है या सुना है। पर अगर हम सच में उस वक़्त के लोगों से मिलें तो हमें पता चलेगा कि उस वक़्त की कठिनाइयाँ क्या थीं। और यही बात 'गिल' को फिल्म के आखिर होते होते समझ आ जाती है। जिस बीते हुए कल में वो जाकर पिकासो, हेमिंग्वे, स्टीन, दली, एड्रिआना और भी जाने कितने किरदारों से मिलता है। दरअसल वो वक़्त उसके लिए तो गोल्डन एरा है, पर उस वक़्त के भी अपने उतार चढ़ाव है, अपनी परेशानियाँ भी है। और अगर वो वहाँ रहने लगा तो शायद वो वक़्त भी अपनी खूबसूरती धीरे धीरे छोड़ने लगेगा। उसे समझ में आता है कि जो आज वो जी रहा है, इस वक़्त के अपने मायने और महत्त्व हैं। जिसको किसी भी एरा से कम्पेयर करना ठीक नहीं होगा। इसीलिए फिल्म के अंत में वो ये निर्णय लेता है कि उसे आज में ही रहना है, 2010 में। क्योंकि अगर भविष्य की दूरबीन से इस वक़्त को देखा जा सके तो यह वक़्त भी किसी भी सुनहरे वक़्त से कहीं भी कम नहीं है। 


बाकि फिल्म में और भी बहुत कुछ है जो बहुत ही कमाल का और सुहाना सा है, जिसकी वजह से मैं खुश हूँ । हाँ मैं खुश हूँ, इस फिल्म को देखकर और मैंने इसे लिख भी दिया है । आज रात मैं रोज के मुकाबले थोड़ी और देर तक जागूँगा |  क्योंकि आज और अभी में रहने और इस ख़ुशी को महसूस करने के लिए आँखे खुली रखना बेहद ज़रूरी है।

© Neeraj Pandey

Saturday 26 September 2015

विरासत

ये ब्लॉग घर ही तो है,
जिसमें गूंजती हैं किलकारियाँ  
कविताओं की,
और पाँव पसार कर बैठे
होते है कुछ पद्द। 
…अपने अपने कमरों में । 

कभी कोई गुज़रता हुआ पास से 
छोड़ जाता है 
कोई कमेंट, 
जैसे किसी की चिट्ठी आई हो । 

तो कभी कोई पडोसी आकर टोकता भी है 
कि, कविताएँ बिगड़ने लगी हैं अब,
ज़रा ध्यान दो इनपर, माँझो इनको । 

मैं उन्हें सामने रख घंटों बैठता हूँ, पूछता हूँ 
उनकी परेशानी 
अपने बच्चे की तरह 
और कभी 
बस मेरे ठीक होने से 
उनके चेहरे भी चमक उठते हैं   । 

कई बार तारीफ सुनकर 
सीना फूलता तो है ही  
पर खुद के बच्चों पर मुग्ध होना भी 
उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं । 

मेरे रिश्तों के आधार भी मैंने 
इसी की बालकनी में शुरू होते देखे हैं,
वो लोग 
जो आज अजीज़ हैं 
वो कविता की ऊँगली पकडे
ही तो आये थे मेरी तरफ 
… अच्छे लोग हैं । 

उम्मीद है एक उम्र ढलने पर 
ये मुझे रास्ता दिखाएंगी
और चाहत ये कि 
मैं जाना जाऊं 
इन्हीं के नाम से…

मैं विरासत में घर नहीं एक ब्लॉग छोड़ना चाहता हूँ ।

© Neeraj Pandey

Saturday 29 August 2015

एक पन्ना : रात, चाय, व्हाट्सएप्प और...

फेसबुक पर अनंत ने अभी अभी अपनी कवर फोटो बदली है… चाय का एक गिलास पकड़े  हुए… चाय पीते हुए । कसम से ललचाने वाली फोटो है।  गिलास बिल्कुल वैसा,  जिसमे मैं अपनी कॉफ़ी पीता हूँ। मुझे चाय से ज़्यादा कॉफ़ी पसंद है। स्पेशली फ़िल्टर कॉफ़ी। उसके निचोड़ कर निकाले गए कॉफ़ी बीन्स के रस की थोड़ी मात्रा में मिला दूध और थोड़ी सी शक्कर का जो जादू होता है मैं उसे कह कर शायद बयां नहीं कर सकता। क्योंकि मैं खुद भी इस लाइन को लिखते लिखते यही सोच रहा हूँ कि उसके लिए सही शब्द क्या होगा। मैं लिख नहीं पाया कि मैं कैसा महसूस करता हूँ। पर एक बात तो तय है फ़िल्टर कॉफ़ी से मेरा एक रिश्ता बन गया है। कम से कम मैं ये तो कह ही सकता हूँ कि उबले हुए कॉफ़ी बीन्स को एक कपडे में डालकर निचोड़ना शायद जीवन के उस पल को निचोड़कर एक प्याले में पीने जैसा है  एक प्याले में जीवन के उस पल का सारा रस.… सारा निचोड़। 

पर अभी अनंत की वो फोटो देखकर मुझे चाय पीने का मन हो रहा है। रात के डेढ़ बजे…  पर क्यों? अभी तो कई लोगों की आधी रात गुज़र चुकी होगी। मेरे कमरे में भी बस मैं और मेरा मोबाइल जाग रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ की बाहर जाकर चाय पी लूँ। पर वो उस तरह के गिलास में नहीं मिलेगी जिसमें अनंत पी रहा है। मैं चाहता हूँ चाय की एक प्याली के साथ कुछ पढ़ना, पर मेरे अंदर का एम्प्लॉयी मुझे कल ऑफिस जाने की याद दिला रहा है। पर चाय का ख्याल है कि अभी भी जागा हुआ है। मैं किसी के साथ बैठकर पीना चाहता हूँ, भले ही वो किरदार किताबों से निकल कर क्यों न आये। 

दरअसल मैं अभी भी जागना चाहता हूँ… चाय तो जागने का बहाना है बस। मैं किसी को भी फ़ोन करके रात के इस वक़्त डिस्टर्ब नहीं करना चाहता।  और सभी मेरे इस पागलपन में अपनी हिस्सेदारी देख भी नहीं सकते। मैंने ये सब सोचते सोचते दुबारा मोबाइल उठा लिया, कुछ लोग व्हाट्सऐप पर अभी भी ऑनलाइन हैं। मैंने एक दोस्त के लिए कुछ शब्द टाइप किया पर कुछ सोचकर मिटा दिया। तभी मुझे याद आया, तुम जाग रही होगी। मुझे अमेरिका की अच्छी बात यही लगी कि देर रात भी अगर मैं तुमसे बात करना चाहूँ तो तुम जाग रही होगी। तो मैंने तुम्हे पिंग किया…  हमनें बातों बातों में जीवन में चल रही कुछ बातों को व्हाट्सप्प के नेटवर्क पर हमेशा के लिए दर्ज़ कर दिया। अपने जीवन में हो रहे उतार चढाव के साथ फिल्मों की बात भी की, शायद जो किरदार मैं ज़िंदा करना चाहता था, कई हद्द तक तुमसे बात कर के मैंने गढ़ लिया। 

ये बातें इतनी पर्सनल सी हो गयीं कि मुझे एक कोने की ज़रुरत महसूस होने लगी। जहाँ सिर्फ हम बात कर पाएं, पर ऐसा संभव ना होता हुआ देख मैंने कम्बल ओढ़ लिया और उसके अंदर मोबाइल रखकर तुमसे बातें करने लगा। हमारी बातें अलगे बीस मिनट तक चलती रहीं, जितने में शायद एक कहानी और दो चाय के छोटे छोटे प्याले ख़त्म हो जाते। वैसे ही प्याले जिसमे अनंत चाय पी रहा था। मुझे अचानक याद आया वक़्त भी 1:40 हो चुका है, और तुम अभी ऑफिस में हो। पता नहीं कैसे पर तुमसे बात कर के वो मेरी चाय पीने की इच्छा की तृप्ति भी हो गई है। मैंने कुछ किरदार भी ज़िंदा कर लिए हैं अब मुझे अपने कम्बल में ही उन किरदारों को रखना है। कम्बल और बातों की गर्मी ने मुझे खासा आराम दिया है, मुझे अब नींद आ रही है । मैंने तुम्हे 'गुड आफ्टर नून 'और तुमने मुझे  'गुड नाईट, सी यू' एक स्माइली के साथ कहा। मैं भी जवाब में दो स्माइली भेज कर खुद में ही मुस्कुराया। अब मैं अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर रहा हूँ। 

Wednesday 12 August 2015

ये प्यार नहीं

मैं तुमसे प्यार नहीं करता,
हाँ, अच्छी लगती हो,इतना ज़रूर है । 

क्योंकि,
प्यार जब भी होता था 
वो आता था एक डर के साथ,
जन्म जन्मान्तर का बर्डन डाले । 

एक खुद को बदलने की जद्दोज़हद भी 
कि मैं भी उस साँचे में बंध  जाऊँ
जिसे दुनिया सोलमेट कहती है । 

मैं भी करूँ वही पुरानी क्लिशे हरकतें 
जो दशकों से घिसे पिटे प्यार का प्रमाण हैं । 
मैं सोचूँ कुछ और, और बोल दूँ कुछ,
क्योंकि डेटिंग की किताबों में वैसा ही कुछ लिखा है । 

और जानता हूँ तुम्हें भी मुझसे प्यार नहीं,
क्योंकि, हमारा कोई करार नहीं
और न ही कोई उम्मीद है … 
 हम डरते भी नहीं एक दुसरे से 
और ना हीं ये ख्याल कि 
तुम बिन मेरा क्या होगा । 

एक वक़्त है , एक फ़ोन है, कुछ यादें हैं, 
और कभी कभी ही सही, पर घंटों बातें हैं … 
देखो ये प्यार है ही नहीं,
हाँ,तुम्हेंअच्छा लगता होऊंगा,इतना ज़रूर है ।

Monday 27 July 2015

'मसान' और मैं


बचपन में एक बार बनारस गया था । दसवीं बोर्ड के बाद  CHS की परीक्षा के सिलसिले में BHU का चक्कर लगा था । बनारस उस वक़्त मेरे लिए एक बड़ा शहर था । मेरे दिमाग में ये भी था कि यहाँ के रहने वाले लोग, लड़के, लड़कियाँ  मुझसे काफी फॉरवर्ड होंगे । मुझे यह भी लगता था, यहाँ लड़के गाली नहीं देते होंगे । क्योंकि गाली देना गन्दी बात है और बड़े शहर के लड़के गंदी बातें नहीं करते । इस बात को करीब बारह - तेरह साल हो गए । इस वक़्त के दौरान मेरे अंदर और बाहर बहुत कुछ बदल गया था । बनारस एक क़स्बा हो चुका था । कुछ दोस्तों ने बुलाया भी कि "आओ घूम जाओ बनारस " पर हो नहीं पाया ।  पर दुबारा बनारस देखा, फिल्म 'मसान' में ।

बिना बनारस गए ही मैं इन जगहों और किरदारों से वाकिफ था । फिल्म देखते हुए कई बार मुझे लगा कि मैं 'देवी' को जानता हूँ, ये वही लड़की है जो फलाना गली में रहती थी और जब ट्यूशन पढ़ने जाया करती तो लड़के उसे उसके नाम से कम और 'रंडी' कह कर ज़्यादा सम्बोधित करते थे । क्योंकि वह लड़की किसी लड़के से प्यार करती थी और ये खबर सबको पता थी कि वो उस लड़के से कभी कभार मिला भी करती है । बाकी आगे पीछे की क्या कहानी थी मुझे नहीं पता, और यकीन है कि उन्हें भी पता नहीं होगी जो ऐसा कहा करते थे । पर उस वक़्त अपना कोई नजरिया नहीं था जो लोगों ने कह दिया उसपर भरोसा करना होता था । वजह ये भी थी कि बाहर की दुनिया का पता था ही नहीं और ये भी कि जब आस पास के इतने सारे लोग यह कह रहे हैं तो सच ही होगा । फिल्म देखते हुए मुझे उन सारी देवियों के लिए बुरा लगा जिनको मैंने भभुआ की सड़कों पर देखा था ।

फिल्म के एक सीन में जहाँ 'देवी' का एक सहकर्मी उससे ये बोलता है कि "देगी क्या ? उसको भी तो दिया था । " मैं इस किरदार को भी जानता था, जैसे ही उसने मुँह खोला मुझे पता था ये क्या बोलेगा । वो सीन जैसे जैसे खुला मैं घीन से भरता गया । देवी को किये जाने वाले गंदे कॉल्स और लोगों को 'देवी' को देखने का नजरिया 'देवी' के बारे में नहीं हमारे और हमारे सभ्य समाज के बारे में बहुत कुछ बतलाता है । और जो मुझे दिखा, वो ये था कि सभ्य समाज और कुछ भी नहीं 'गिफ्टरैप्ड टट्टी' है । ऊपर ऊपर से तो बहुत अच्छी लगती है देखने में, पर थोड़ी परत हटाते ही बास आनी शुरू हो जाती है।

देवी के पापा विद्याधर पाठक जी से भी अपना पुराना परिचय था । जिनका गिल्ट समाज और जिम्मेदारियों का थोपा हुआ था । वो भी उस समाज से ऐसे ही डरते नज़र आये जैसे अँधेरे में रस्सी देखकर साँप होने का डर । 


दूसरी तरफ दीपक और शालू का प्यार, उनका पहला चुम्बन । काफी कुछ मेरे पहले प्यार से मिलता जुलता था । वो प्यार जिसकी शुरुआत ही शादी के ख्याल से होती थी । और उस प्यार को पाने के लिए साथ देते थे कुछ जिगरी दोस्त । दीपक और शालू एक दुसरे को जब स्क्रीन पर पहली बार एक दुसरे को चूमते हैं ,  मैंने भी फिर से एक बार, पहली बार किसी को चूम लिया । हमारा प्यार जो अगर किसी पेड़ के नीचे समाज से छुप कर किया जाये तो कितना मधुर और अगर वही हमारे समाज के दायरों में आ जाये तो 'देवी' के प्यार की तरह बाजारू करार दे दिया जाता है  । दीपक का कुछ होना और कुछ और हो जाने की चाहत रखना… हम सबके अंदर एक दीपक है ।

वैसे तो वो आधी नींद से उठकर भी बिना किसी तकलीफ के मुर्दे जला सकता है । पर जब उसे ये दिखता है कि उसके सामने शालू की लाश पड़ी हुई है उसे ठीक ठीक समझ नहीं आता की ये अचानक क्या हुआ ।  उस वक़्त मुझे भी लगा था की दीपक की क्या प्रतिक्रिया होगी ? उधर दीपक दर्द में था पर  चुपचाप बैठा था और इधर अपने अंदर एक बवंडर सा चल  रहा था । दीपक के सामने सिर्फ शालू नहीं बल्कि उसके साथ देखे हुए सारे सपने जलकर ख़ाक हो गए थे |  मेरे अन्दर का बवंडर भी तब टूटा जब दोस्तों के साथ बैठा हुआ दीपक फूट फूट कर रोया । थोड़ी  देर के लिए चश्मा हटा कर मैंने अपनी आँखे पोंछी ।  



पर मसान कोई उपदेश नहीं है , मसान एक गीत है । मसान  हमें यह नहीं बताती कि क्या सही है और क्या गलत है । एक अच्छी कविता की तरह हमें दिखाती है, जो भी हमारे आस पास चल रहा है ।  कबीर के एक दोहे की तंज पर इस फिल्म से भी जिसको जो लेना है वो वही ले पाएगा । यहाँ तक की फिल्म मृत्यु जैसे विषयों को भी बहुत ही सहजता से दर्शाती है । जैसे मृत्यु तो इस जीवन का अंग ही हैं, एक जगह से निकल कर दूसरी जगह पर जाना । एक नयेपन की तलाश और उस तलाश में खुद को ढूंढ लेने की उम्मीद । देवी और दीपक का बनारस छोड़ कर इलाहाबाद जाना भी उसी जीवन प्रवाह का अंग है और एक बदलाव का संकेत देता हैं । एक नई जगह जहाँ शायद पिछले जीवन की बेड़ियाँ पांवों में न उलझें । मसान शायद यह भी कहती है कि जीवन में कुछ भी हो चाहे कितना भी बड़ा या बुरा जीवन से बड़ा नहीं हो सकता। 

मैं खुद भी उसी दीपक की तरह एक छोटे शहर से चलता हुआ, एक शहर से दुसरे शहर घूमता हुआ खुद की तलाश कर रहा हूँ । इस सफर में भी बहुत कुछ ऐसा देखा है जो हमें बताई हुई जीवन की सच्चाइयों से कहीं अलग है ।  हमें तो आगे देख कर चलने के लिए कहा गया था पर कभी कभी ज़िंदगी अचानक से धप्पा भी दे देती है । बस इस खेल को खेलना सीख रहा हूँ, ताकी धप्पों में भी मज़े लिए जा सकें । और अभी तक जो सीखा वो यही कि "मन कस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे … 

Update:
This piece was also published here:  https://www.bollywoodirect.com/मसान-और-मैं/

Thursday 25 June 2015

एक पन्ना : रात की चाय

कभी गौर किया है तुमने ? रात के कुछ ढलने के बाद कई बार एक तलब चढ़ती है… चाय या कॉफ़ी पीने की । ये वो तलब होती है जब चाय या कॉफ़ी में से कुछ भी मिल जाये तो काम हो जाता है । तुम्हारे पास ऑप्शन ढूंढने के कोई हालात बचते ही नहीं । जो भी सामने आता है वो तुम स्वीकार करते हो, या कहो कि उसमें घुल लेते हो । अक्सर रात के बारह बजने के आस पास या उसके बाद मेरी भी यह इच्छा तीव्र हो जाती है । कई बार दोस्तों के साथ या अकेले एक प्याली चाय या कॉफ़ी ढूंढने निकल पड़ता हूँ । बैंगलोर के कई चौराहों, नुक्कड़ और गलियों में कुछ दूकानदार स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी के नीचे अपनी साइकिल पर चाय के थरमस के साथ सिगरेट और चकली लिए अक्सर खड़े होते हैं । और उनके आस पास होती है, दस से पंद्रह लोगों की भीड़, चाय या सिगरेट पीते हुए । सब अपनी बाइक और गाड़ियों को रोक कर चाय का लुत्फ़ ले रहे होते हैं । मैं उन्हीं में से किसी एक नुक्कड़ पर चाय पीने निकल जाता हूँ … जहाँ भी मिल जाए । बैंगलोर की हल्की ठंढी रातों में किसी बंद दूकान की सीढ़ियों या किसी फूटपाथ पर बैठ कर समय को गुज़रते हुए देखना मुझे पसंद है । 


खैर बात हो रही थी चाय की... दरअसल रात की चाय को बस 'चाय' कहना अपराध होगा...लेखन की भाषा में कहूँ तो बड़ा ही फ्लैट होगा । रात की चाय एक टोकन है कुछ और वक़्त खरीदने के लिए… नींद की आगोश में जाने से पहले अगर रात थोड़ी और जी जा सके इसकी सम्भावना लिए हर चाय की प्याली आती है । भले ही देर रात गली नुक्कड़ पर बिकने वाली चाय हो या घर में देर रात बनाई हुई मेरी कॉफ़ी । ये सभी एक टोकन हैं, जो मुझे थोड़ी और देर जगाने में मदद करते हैं । मुझे रात पसंद है, रात में बाहर निकलो तो ऐसा लगता है आसमान मानों एक बड़ा सा तंबू तना हो और टिमटिमाते तारे ऐसे जैसे उस तंबू में लगी छोटी छोटी लाइट्स, और रात के इस वक़्त इस तम्बू के नीचे चल रही बहुत सी कहानियों को थोड़ा ठहराव मिलता दिखता है… एक कहानी शुरू होकर अपने एक मोड तक आती दिखती है, जैसे दिन के पाँव दुःख गए हो और वो रात के पीछे छुप कर थोड़ी देर आराम करना चाहता हो । मुझे यह सब देखना बहुत पसंद है, अलग अलग किरदारों को देखना, उनको गढ़ना, उनके बारे मे सोचना ये सब उसी तंबू के तले होते हैं | मैं रात में सोना बस मजबूरी से करता हूँ। मैं कभी अपनी छत पर बैठे बैठे पूरी रात, रात के साथ सफर करना चाहता हूँ, तब तक, जब तक रात सरकते-सरकते सुबह ना बन जाये… पर ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता । पर मेरी कॉफ़ी का मग या प्याली की चाय मुझे कुछ और देर जागने में मदद करते हैं , इसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ । मेरे लिए दिन और रात के अलग अलग वक़्त पर गटके गए प्यालों का अलग अलग मतलब है । 
खैर अभी अभी बाहर से आया हूँ , आज कोई चायवाला नहीं मिला । मैं अनायास ही लगभग तीन किलोमीटर का सफर कर के खाली हाथ वापस आ गया । रसोई में जाकर देखा तो थोड़ा दूध बचा हुआ था … जैसे मेरे लिए ही छोड़ा गया हो । रात के एक बज रहे हैं … और मैं अपनी कॉफ़ी बना रहा हूँ ।




© Neeraj Pandey

Saturday 20 June 2015

जीवन प्रवाह

हर गर्मी की कोशिश होती है 
ज़रा सी ठंढक में घुल जाना, 
और वैसी ही कोशिश
ठंडक की गर्मी की तरफ.… 

रात दिन में घुल जाती है 
और दिन बढ़ता है धीरे धीरे 
रात की तरफ.… 

समंदर का पानी भी घुल रहा है 
बादलों में,
फिर.… बादल भी नदी में बहकर 
घुल जाते हैं समंदर में 

जीवन काल में घुल रहा है 
जैसे पल पल.…  
काल भी धीरे धीरे 
जीवित हो उठता है । 

सब कुछ घुल रहा है,
एक दुसरे में जैसे,
खुद को थोड़ा थोड़ा खोकर 
घुल जाना ही 
जीवन की शुरुआत है । 

© Neeraj Pandey

Tuesday 9 June 2015

ग़ार्बेज इन ग़ार्बेज आउट...


हम पैदा किए जा रहे हैं, ऐसे लगातार...
जैसे फोटो स्टेट की मशीन
ऑटोमोड़ पर डाल रक्खीं हो |

वो  जितनी भी औरतें कर रक्खीं हैं
पेट से  हमने...
हमारी गलती थी ही नहीं,
हम कामुक इतने थे कि ये काम तो बकरी
 या किसी जानवर से  भी ले लेते हम |

ये जो रेंग रहे हैं, हमारे आस्  पास
हमें अपना 'बाप' बतलाते
और हम भी जिनको ठाट से
 बतला रहे  हैं... ' भविष्य'
दरअसल इनके पाँव अभी भी
भूतकाल  में लटके हैं|

ये जो विचारों से गूँगे बहरों की फौज खड़ी कर रक्खीं है,
ये भी हमारी तरह भीड़ में भेड़ बनने वाले हैं|

... और अगर हमने पाल  रक्खीं है कोई गलतफहमी
इनके अ‍ॅलौकिक होने की
तब यही जानना बेहतर होगा
ये हमसे भी बद्त्तर मौत मरेंगे|

जीवन दर्शन के नाम पर हमने बांचे हैं बस...
कुतर्क
और करनी के नाम पर...
हवस की गैर जिम्मेदाराना हरकतें|
विरासत में  हम दे  जाएंगे इन्हें
गिरते बाल, बढ़ते पेट,
गंदी शक्ल और बांझ सोच...

क्योंकि कल निकलेगा इसी आज से,
और आज में हमने कर रक्खीं है
खूब सारी टट्टी |

ग़ार्बेज इन ग़ार्बेज आउट...

© Neeraj Pandey

Friday 5 June 2015

अपने गांव की तलाश में...

सफर के दौरान
मुझे एक गाँव दिखता है
जो मेरा नहीं हैं …

मैं थोड़ी देर रुककर
देखता हूँ उसे ,

गाँव में पसरी चाँदनी
और रुनझुन सन्नाटे के बीच
दिखते हैं कई घर
नजर आते हैं कुछ लोग |

एक छोटा सा मैदान,
बच्चों का ,
पूरे दिन खेलकर थक गया है |
एक हैंड पम्प,
जिसने उचक-उचक कर
पिलाया है दिन भर पानी
दोनों एक साथ ही अब ऊंघ रहे हैं|

खेत खलिहान के पेड़ों ने
साध ली है चुप्पी
और बोझे भी पलथि मारे
बैठे हैं चौपाल में।

एक छोटा सा तालाब भी है,
जिसमें चंद्रमा सो रहा है
और एक जीवन रेखा सा लंबा
रास्ता जोड़ रहा है इन सबको।

कुछ घरों के बाहर बल्ब
नाईट ड्यूटी पर
मुस्तैद खड़े हैं ,
और दूर उछलते पटाखे भी
मना रहे हैं
जीवन का जश्न |

...मै इस गांव को देखकर
ये सोचकर मुस्कुरा पड़ा
शायद यूँ ही सफर में कभी
 मैँ ढूँढ निकलुंगा अपना गाँव |

-नीरज पाण्डेय

Sunday 19 April 2015

मेरी बेचैनी

(A piece written a year ago at write club, from where I got my Theatre thing started in Bangalore, Have a look)Death bed monologue for scene.
ज़िंदगी को परत दर परत उधेड़ता, बेचैन, आज इसकी आख़िर परत तक आ पहुँचा हूँ. पर वो शोर आज भी थमा नहीं है.शरीर ने कब का साथ देना छोड़ दिया था पर दिमाग़ की बेचैनी और तलाश रुकने का नाम नहीं लेती | कहीं का कहीं वो शोर सन्नाटा बन कर मेरे ज़हन में चीखें मारता है. ये दो चट्टानों के बीच से गुज़रती हुई, चिंघाड़े मारती हुई, हवा का शोर शायद ये मेरी मौत के साथ ही दफ़न हो |...या फिर शायद कभी नहीं |मैं आज अपनी मरन्शैया पर लेटा अपनी ज़िंदगी को फिल्म की तरह रीवैइंड कर कर देख रहा हूँ की वो कौन सा पल था जब ये बेचैनी शुरू हुई थी. उसका भी कोई निशान नहीं मिलता |ज़िंदगी की कड़ियों  को जोड़ते जोड़ते मैं खुद ही उलझ गया, और मैं भी उन्हे सुलझाने के लिए अलग अलग तरीके तलासता रहा, सरकारी नौकरी मे होने के बावजूद , पैंटिंग किया, सोशियल वर्क किया, दुनिया भी घूमा पर बेचैनी जस की तस | हर बार नई खोज एक नशे की तरह काम करती और नशा उतरते ही मैं फिर से बेचैन |हर बार ज़िंदगी को समझने के लिए ज़िंदगी की एक परत उधेड़ता तो फिर नई परत दिखाई पड़ती, पर कुछ वक़्त बाद उसका भी रंग वही, पहले जैसा |ऐसा भी नहीं है की इस परत दर परत ज़िंदगी को समझने मे मैं अकेला था ,सब तो था मेरे पास, पर फिर ये बेचैनी क्यों?इसका जवाब तो इस जन्म मे नहीं मिला, और शायद इस सवाल को करने का ये सही वक़्त भी नहीं है. क्या नहीं था मेरे पास मेरी बीवी थी, बच्चे थे, दोस्त थे, पैसा था. सब कुछ था पर एक बेचैनी के साथ |पर यह शोर शायद थोड़ा कम ज़रूर है, शायद तूफान से पहले का सन्नाटा.क्या पता फिर से कोई नई परत खुलने वाली है |बेचैन रहने की ऐसी आदत पड़ी है तो लगता है मर कर भी चैन नहीं आएगा |मेरी  बेचैनी शायद मेरी कब्र के उपर लगे उसे पेंड के फल में फलेगी,शायद मेरी कब्र के मिट्टी की खुश्बू ले जाती उस हवा में बहेगी , या फिर शायद उस मिट्टी में जो बरसात का पानी एक जगह से दूसरी जगह बहा कर ले जाएगा उसके साथ भटकेगी| कभी वो ही बारिश का पानी नदी से मिल आएगा तो कभी वही नदी समंदर से |मेरी बेचैनी और भी व्यापक होगी, बेचैन तो मैं रहूँगा |
© Neeraj Pandey

Tuesday 31 March 2015

एक रैप... एक शॉर्ट प्ले के लिए

A rap written for one of my Play (Ice Paais) which was part of Short and Sweet Theatre festival, Bangalore 2015. Compositions was provided by the director of the play Sarbajeet Das.  


धुन...
(धूम पिचक धूम.…  पिचक धूम.…  धूम पिचक धूम
पिचक धूम.…  धूम पिचक धूम
पिचक धूम.…  धूम पिचक धूम...)

ये बेचारा आदत का मारा,
डेमोक्रेसी के सपने लेकर 
फिरता रहता,मारा मारा

(धूम पिचक धूम.…  पिचक धूम.…  धूम पिचक धूम
पिचक धूम.…  धूम पिचक धूम
पिचक धूम.…  धूम पिचक... धूम )

गाँव आ गया वोट डालने 
डेमोक्रेसी का बेबी पालने 
डेमोक्रेसी की रेलमपेली 
इसके साथ भी खेल ये खेली 

फिरता रहा वो सब अपनों में 
जब उसने अपनी जेब टटोली
फिर... 


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© Neeraj Pandey

Monday 9 March 2015

ये कुक्कड़

कसाइयों की दुकानों के बाहर
बास मारते दड़बे,
पीभ, थूक, खून, लार से
मवाद से हैं सने हुए
… और उनके अंदर कुक्कड़
चुपचाप अपनी जगह पकड़
कोस रहे नसीब को |

सड़क पर चलता आदमी उन्हें देख कर सोचता …

गुस्सा इन्हें भी आता होगा,
जब पंख नोचे जाते होंगे,
जब अपने खूब चिल्लाते होंगे,


जब थर थर करती गरदन पर
तेज़ छुरी चल जाती होगी ...
जब आधी गरदन लटके मारती
गहरे ड्रम में जाती होगी |

अपनी तरह क्या इनका भी
खून खोलता होगा ?
क्या, कर देते हैं क्रांति कोई
कुक्कड़ बोलता होगा ?

या फिर मौन धरकर सारे
शोक सजाते  होंगे,
और, थोड़ी जगह और मिल जाने का
जश्न मनाते  होंगे |


© Neeraj Pandey

Saturday 17 January 2015

आओ ना

तुम्हें अक्सर कहते सुना है
        - ज़िंदगी के सफर में बहुत लेट हो गई हूँ मैं।
मैं अपनी रेल बचाकर लाया हूँ
इस शातिर दुनिया की नज़रों से,
आओ मेरा हाथ पकड़ चल चलो,
एक सफर के लिए।
आओ ना ।

© Neeraj Pandey