Monday 21 November 2016

एक सोशल एक्सपेरिमेंट

इस बार इस विडियो में दो अजनबी मिलते हैं, पहले एक दूसरे की फेसबुक प्रोफाइल देखते हैं फिर बताते हैं कि उन्हें वो प्रोफाइल देखने के बाद उस व्यक्ति के बारे में क्या लगा. उसके बाद दोनों जब सामने मिलते हैं तो क्या होता है? जानने के लिए विडियो देखिए. इन दोनों में से एक मैं था.


Friday 30 September 2016

कहानी: लत

हमारा नाम मोहम्मद मोजिद खान है. उमर इस साल अगस्त में सैतालिस हो जाएगी. धंधे से दर्जी हैं. यही एक काम हमको आता है और अब तक यही काम करते हुए ज़िन्दगी कट रही है. जब हमारी उमर कोई पचीस छब्बीस साल की थी तब भी हम इसी दानापुर में ही एक टेलरिंग दुकान में काम किया करते थे. घर से दुकान पहुँचने में पैदल आधा घंटा लगता था. हम घर से सुर्ती रगड़ते निकलते और रास्ता भर रगड़ते. जब दुकान पहुँचते तो मूंह में डाल लिया करते. अब सुर्ती ऐसी चीज़ है ना कि उसको जितना रगडा जाए उतना मज़ा देती है और सुर्ती का नशा वैसे भी कोई नशा नहीं है. ये तो बस एक मनोरंजन है.

तो एक रोज़ ऐसे ही हम अपनी धुन में मस्त सुर्ती रगड़ते दुकान की तरफ चले जा रहे थे. एकाएक एक ठो मारुती गाडी आकर हमारे बगल में रुकी. गाडी के अन्दर कोई बीस साल का लौन्डा बैठा था. उसको देख कर हम भी रुक गए. हमको लगा शायद कोई पता वाता पूछे. पर वो गाडी से निकला और सामने आकर के खड़ा हो गया, बोलाथोडा सुरती हमको भी दो ना यार.हमको बड़ा वैसा सा लगा कि ये आदमी जिसका कपडा लत्ता एकदम टीपटॉप है, मारुती में चलने वाला... भाई ये हमसे सुर्ती क्यों मांग रहा है. पर हमने उस दिन उसको कुछ कहा नहीं. अपने सुर्ती में से ही एक हिस्सा निकल के उसको दे दिया. वो उसको होठ के नीचे दबाया और निकल लिया. अब उस दिन के बाद तो वो रोज हमको उसी टाइम उसी जगह पर मिलने लगा. रोज मिलता, सुर्ती लेता, कुछ कुछ बात बनाता और चला जाता. कभी कभी हमको दस बीस रूपया देने की भी कोशिश करता, पर हमने हर बार उसको मना कर दिया. उसका पैसा कभी लिया नहीं. हाँ हम हर बार यह ज़रूर सोचते कि भाई ये जितना पैसा हमको दे रहा है, उतना में कितना सुर्ती खरीद ले, लेकिन ये हमसे मांग के क्यों खाता है. पर धीरे धीरे हमको पता चल गया कि किसी किसी का ऐसे मांग कर खाने का ही आदत होता है.

एक दिन जब वो हमको फिर से कुछ रुपया देने लगा, हम फिर से उसको मना कर दिए. तो कहने लगाठीक है पैसा नहीं लोगे तो चलो तुमको जहाँ जाना है वहाँ तक छोड़ दें.हम मारुती की तरफ देखे. इससे पहले हम कभी मारुती गाडी अन्दर से नहीं देखे थे. तो उसको मना नहीं किए और यही हमसे एक बड़ी गलती हुई. साला वो हमारा दुकान देख लिया. अब रोज़ कभी दुपहरिया तो कभी शाम को आ जाए, और लगे गप्प हाँकने. पर पैसा के मामला में वो आदमी दिलदार था, जब भी आए जवान कुछ ना कुछ खर्च करे. धीरे धीरे उसका और हमारा जमने लगा. वो भी अपने परिवार के बारे में हमको बताया हम भी अपना बीवी बच्चा के बारे में उससे बात करते. तब कुछ साल पहले ही हम बाप बने थे, इक्कीस साल की उमर में. वो दानापुर से ही ग्रेजुएशन किया था. उसके बाबू जी वहीँ कैंट में काम करते थे. खूब पैसा वाला था और यह दिखता भी था. हम उससे एक दिन पूछे किभाई बाबूजी का तो ठीक है. पर तुम को क्या करना है जिंदगी में?” ये सुन के वो हमको ध्यान से देखा और एकदम गंभीर हो के बोलाहमकोहमको जिंदगी में मजा लेना है.और बोल के हँस पड़ा.

हम दोनों का दोस्ती कुछ महीना का हो गया था. अब हम उसके लिए अलग से सुर्ती रगड़ कर उसको देने लगे थे. एक दिन वो हमसे कहने लगा किमोजिद भाई, तुमसे हमारा मन लगता है, तुम बाकी लौन्डों की तरह बकचोदी नहीं काटते. एक काम करो हमारे बंगले में आ के रहो. हमारे यहाँ कई सारा कमरा ऐसे ही खाली पड़ा हुआ है.हमने उसकी बात पर सोचा. उस वक़्त हम किराये के मकान में रहते थे. तो हमें उसकी बात भी ठीक लगी कि भाई वहाँ रहेंगे तो दो पैसा का बचत ही होगा. तो हम उसी हफ्ता में उसके बंगले के एक कमरे में शिफ्ट हो गए. अब उसका और हमारा टाइम ज्यादा साथ में बीतने लगा. रोज़ शाम को अब जब हम अपना दर्जी का काम कर के आते तो उठाना बैठना उसी के साथ होता. रात में खाना खा के हम अपना सुर्ती रगड़ते और वो पीताशराब अंग्रेजी’. एक दिन हमको पीने के लिए [पूछा भी. पहले तो हम उसको मना किए लेकिन ये कह के वो हमको थोडा सा एक गिलास में ढार के दिया किआज हमको तुम्हारे सुर्ती का एहसान चुकाने दो भाई.हम उस दिन पहला बार शराब पिए. ये शराब उसके बाबू जी को कैंट में मिलती थी. हमको थोडा देर बाद एकदम मज़ा आ गया. थोडा कडवा लगा था शुरू में पर थोडा देर बार शरीर एकदम रिलैक्स हो गया. अब जो है, हमको लगने लगा कि साला क्या चीज़ है शराब! हमको एकदम नया दुनिया में लेके गया. उस वक़्त तो एकदम ऐसा लगा जैसे दुनिया जहान का सारा टेंशन साइड लाइन हो गया

अब हम दोनों का रात में खाने के बाद पीना रोज का धंधा हो गया. कभी कभी दिन में सिर थोडा पकड़ता था लेकिन चाय वाय पीने के बाद ठीक हो जाता था. कुछ टाइम बाद उसने अपने बाबू जी से पैरवी लगा के हमको वहीँ कैंट में टेलरिंग का काम भी दिलवा दिया. बोला किजब तुमको टेलरिंग ही करना है तो यहाँ करो यहाँ पैसा भी अच्छा मिलेगा.पैसा सच में दुकान से अच्छा था. तो अब हम दुकान का नौकरी छोड़ के वहीँ बटालियन का कपडा सीने लगे. फौजी लोग का वर्दी. धीरे धीरे वहाँ काम इतना होने लगा कि हम रात रात भर काम करने लगे. तब भी जो है काम पूरा ना पड़े. काम बढ़ता जाता था टेलर बढ़ते नहीं थे. टेंशन बहुत ज्यादा और अब इस टेंशन में हम शराब पीना और ज्यादा कर दिए. लेकिन कुछ दिनों के बाद हमको लग गया कि इतना काम तो हमसे ना हो पाएगा. फिर एक दिन खीझ के हम वो काम भी छोड़ दिए. उसी रात वो हमारा दोस्त हमको बताया कि उसकी नौकरी मद्रास (जो अब चेन्नई है) में लग गई है. वो कुछ दिन बाद मद्रास चला गया और हम अपना परिवार ले के उसके बंगला से बाहर एक मकान किराया पर ले लिए. फिर से पुराना टेलरिंग दुकान पर काम करने लगे.
लेकिन उसके जाने से एक बात यह खराब हुआ कि अब हमको फ्री का शराब नहीं मिलता. पर आदत हो गई थी पीने की. तो हम अब रोज़ शाम को घर आते हुए शराब का एक छोटा वाला बोतल भट्टी से खरीदने लगे. रास्ते में खोल लेते और घर आते आते ख़तम कर देते. धीरे धीरे शराब का खर्चा चालीस रुपया से बढ़ के नब्बे रुपया हो गया. थोड़े दिन में ही हमको ये बात पता चल गई कि हमारा दो सौ रुपया रोज के कमाई में हम इतना खर्च नहीं कर पाएँगे. लेकिन हमको शराब तो चाहिए था. तो अब हम प्लास्टिक वाला पाउच मारने लगे. लेकिन पाउच कहाँ बराबरी करे अंगरेजी शराब का. उसमे ना तो अंगरेजी वाला मज़ा था ना अंगरेजी वाला नशा. लेकिन क्या करें…? तो अब हम उसका मात्रा बढ़ा दिए. वो मात्रा बढती ही गई और धीरे धीरे खर्चा फिर से उतना ही पहुँच गया.

शुरू शुरू में तो हमारी बीवी समझ जाती थी कि हम पी के आ रहे हैं, लेकिन कुछ कहती नहीं थी. पर अब हमारी हालत ऐसी हो गई कि अब साला रे... हमको सुबह उठते उठते चाहिए. और जब एक बार शुरुआत ही उसी चीज़ से हो गई तो अब दिन भर चाहिए. अब हमारा सुबह, दोपहर, शाम सब एक हो गया.

धीरे धीरे आदत और बिगड़ी. कोई मोहल्ला का आदमी कोई रिश्तेदार, कोई जानकार हमको मना भी करता तो हम उसको गरियाने लगते. हमको लगता ये हमको क्यों बोल रहा है? इसके पैसा का थोड़े पी रहे हैं हम. हम पूरे दिन धुत्त रहते. टेलरिंग का काम भी छूट गया. हम हर शाम को भट्टी पर चले जाते और पीते रहते. उस वक़्त तो ऐसा लगता था कि हमारे नस में खून के जगह दारु बहने लगा है. घर में न बच्चा का ख्याल है ना बीवी का. हर टाइम बस एक ही बात का रट लगा हुआ है कि पीना है... पीना है. जबकि ऐसी बात नहीं है कि हमको पता नहीं चल रहा था कि हमारी ज़िन्दगी किस तरफ जा रही है लेकिन उसके ऊपर हमारा कोई कंट्रोल नहीं था. हम अपना कण्ट्रोल साला दारु के हाथ में दे दिए थे.

घर का हालत बिगड़ता जा रहा था. हम सब देख रहे थे अपने सामने खुद को बर्बाद होते हुए अपना घर बर्बाद होते हुए. इसी हमारे बच्चे का स्कूल में एडमिशन हुआ. स्कूल जिनका था वो जानने वाले थे तो उन्होंने उसका कोई पैसा नहीं लिया. बस बोला कि आप लोग इसके कॉपी किताब और ड्रेस का खर्चा देख लीजिएगा. पर जब हम अपना हिसाब लगाए तो पता चला कि घर में उतना पैसा है ही नहीं. अब हमारे पीने से पैसा बचे तब तो कुछ और काम हो. हमने अपने दोस्त लोग से इस बारे में बात किए, लेकिन वो सब उधार देने से मना कर दिया. दरअसल बात ये थी कि जब कोई बेवडा आदमी पैसा माँगता है तो लोग को लगता है कि बहाना बना रहा है. इसका तो ये शराब पी जाएगा. भले ही उसका सच में कुछ ज़रूरी काम हो. लकिन कोई उसके बात को पर्तियाता नहीं है. धीरे धीरे समाज उसका बहिष्कार करने लग जाता है. तो हमको भी किसी ने उस दिन पैसा नहीं दिया. ये बात हमको कहीं ना कहीं लग गई.

उसी दिन जब हम शाम को भट्टी पर बैठ के पी रहे थे तो हमारे अन्दर से एक आवाज़ आई. अब देखिए, आपको कोई और बताए ना बताए लेकिन आपका अंतर्मन आपको बताता है कि बाबू तुम सही कर रहे हो कि गलत. उस दिन हम खुद सोचे कि हम जो है... कर क्या रहे हैं? अपने आप से सवाल किए और फिर अपना नाम ले के सोचे कि मोहम्मद मोजिद खान, आज जितना पीना है उतना पी लो, और अगर आज के बाद तुम शराब को हाथ भी लगाया तो एक बाप का औलाद नहीं... उस दिन वहीं बैठ के हम खूब पिए. रोज से ज्यादा पिए पर ये सोच के कि आज आखिरी बार पी रहे हैं.

अब क्या है कि अगर कोई और आपको कुछ समझाए तो बात समझ नहीं आती है लेकिन उस दिन हमको ये बात एकबाएके समझ में आ गई थी. अगला दिन से हम शराब को हाथ भी नहीं लगाए. मन तो बहुत करता था कि थोडा पी लेते हैं, पी लेते हैं. लेकिन हमने कहानहीं’, जब एक बार मन बना लिए तो उसपर अटल रहना है. पर यह काम बहुत मुश्किल था. थोडा थोडा देर पर तलब उठता, चिडचिडापन होता, बेचैनी होता. हम ही जानते हैं हम उससे कैसे पार पाए. पर अब जब हमको शराब पीने का तलब लगता तो हम चाय पीने लगे. भट्टी के आस पास से गुज़रते तो दौड़ के पार कर जाते कि हमको इसके सामने ज्यादा देर रहना ही नहीं है. अपने पास फ़ालतू पैसा रखना भी छोड़ दिए. अब जब हम रात में घर जाते तो हमारी बीवी को पता चल जाता कि ये पहले जैसा हालत में अब घर नहीं आता. फिर एक दिन उसने हमसे इसके बारे में पूछा किआजकल पी के नहीं आते..?” तो हम इसका जवाब उसको दे नहीं पाए बस यही बोले किछोडो वो सब फालतू बात, नींद आ रहा है.उसके बाद से हमारी उससे इस बारे में कभी बात नहीं हुई. धीरे धीरे हमारी भी आदत छूटने लगी. गली मुहल्ला में भी धीरे धीरे लोगों को पता चलने लगा कि हम शराब छोड़ दिए हैं. बीवी भी खुश थी, कहती नहीं थी पर हम जानते हैं वो खुश थी.

इस शराबी बेवडे की स्थिति में हम तीन साल रहे थे. जीवन नरक हो गया था. लगता था कि हमारा बच्चा जो बड़ा हो रहा है उसके सामने क्या संस्कार दे रहे हैं हम. लेकिन महसूस तब हुआ जब खुद महसूस किए. इसी बीच वो मारुती वाला हमारा दोस्त एक दो बार दानापुर आया, हम उससे मिले भी, कहे किये क्या आदत डलवा के मद्रास चले गए तुमतो वो हँसने लगा. कहने लगाहम तो अभी भी रोज का दो पेग ही पीते हैं, तुमको ऐसा आदत कैसे धर लिया?” हम उसको कुछ नहीं बोले. खैर अब तो उस बात को बहुत साल हो गया. तब से हम शराब को हाथ भी नहीं लगाए. अब अपनी टेलरिंग की दुकान खोल ली है, अपना काम करते हैं. पर दुकान अभी भी घर से वही आधा घंटा के दूरी पर ही रखे हैं. सुबह सुबह घर से दुकान सुर्ती रगड़ते हुए पहुँचते हैं, रास्ते भर रगड़ते जाते हैं और जब दुकान पहुँचते हैं तो मूंह में डाल लेते हैं. क्योंकि सुर्ती ऐसी चीज़ है ना कि उसको जितना रगडा जाए उतना मज़ा देती है और सुर्ती का नशा वैसे भी कोई नशा नहीं है ये तो बस एक मनोरंजन है.

Monday 15 August 2016

बिखरे पन्नों से: भाग १

खुद को जानना कई मायनों में खुद से ही एक लड़ाई है. जिसे हम ‘जिया जा चुका’ कहते हैं वो दरअसल काफी वक़्त तक साथ चलता है. खुद से होकर गुज़रे हुए वक़्त का काफी हिस्सा अन्दर पड़ा रहता है... हम हर क्षण कुछ और होते हुए, कुछ और हो रहे होते हैं. जीवन के अलग अलग चरणों को पलट कर देखूँ तो खुद के बारे में यह कह सकता हूँ कि मैंने अलग अलग दृष्टिकोणों और अनुभवों को जिया है. यह सिर्फ अलग अलग वक़्त पर बन जाने वाला अलग अलग किरदार नहीं है, यह वो है जो बीत चुका है और वह भी है जो कल आने वाला है. किस पड़ाव से कितना चला जा चुका है और अभी और कितना चला जाना है कह पाना मुश्किल है. इसी बीते हुए और आने वाले के बीच मैं खुद को बस चलता हुआ पाता हूँ. एक ऐसे मिट्टी के लोदे की तरह जिसे एक मुर्ति से तोड़ कर निकाला गया हो और उसी से दूसरी मुर्ति बनाने की तैयारी हो रही है. पर मैं इस वक़्त दोनों में से कोई भी मूर्ति नहीं हूँ...मैं वह सना हुआ मिट्टी का लोदा हूँ जिसे वक़्त अभी सान रहा है.

जो जिया जा चुका है उसमें बहुत कुछ सहना भी शामिल है पर सहन कर जाना हमें मजबूत नहीं बनाता हाँ सचेत ज़रूर कर सकता है... हमें वो आँखे दे देता है देखने के लिए कि “देख लो ये भी है.” और फिर हम खुद से खुद के लिए शातिर बनने का अभिनय करते हैं दरअसल हम डरे हुए हैं, हम जीवन को सहना नहीं, जीना चाहते हैं. और यही जी लेने की इच्छा हमें हमेशा सचेत करती रहती है. जिसका शिकार होता है वो जो अभी जिया जाना बाकी है.

पर इन सबमें जो एक खूबसूरत बात है वो ये कि मैंने हर बार अपने ‘जिए जाने वाले’ से ‘जिए जा चुके’ शातिर और डरे हुए व्यक्ति को हारता हुआ देखता हूँ. हर बार जीवन मुझे जीवन बन कर ही मिलता है और मेरे पूर्वाग्रहों को तोड़ता है. जीवन जो बढ़ा जा रहा है उसे हर बार, यह बात सुकून देती है कि उसके बुरे अनुभवों की हार हुई है, जीवन वहाँ से कब का आगे निकल चुका है. यह इस बात की तसल्ली है कि जो वक़्त का मेहमान है उसे वो सब कुछ फिर से नहीं सहना होगा. हाथ का एक बार जलना या दस बार दोनों ही उतने ही दुखद हैं. इस हार पर पेट में एक फ़व्वारा फूटता है जो अपनी ही हार का जश्न मनाने जैसा है और खुद से सवाल भी कि जो हम जी चुके हैं उसके आगे कितना कुछ है जो हमारा इंतज़ार कर रहा है, जो अभी जीया जाना बाकी है. धीरे धीरे मेरे पूर्वाग्रह टूट रहे हैं, जीवन दिख रहा है, मुझे इस सन रही मिट्टी से बनने वाली नई मुर्ति का इंतज़ार है...

Sunday 17 July 2016

जीवन की नोख़ पर

अभी नज़र घुमा कर आस पास देखा. मेरी कॉफ़ी का मग., पानी की बोतल, डायरियाँ, मेरी लिखने की टेबल, मेरा घर, कमरा, कहानियाँ, कविताएँ. सब कुछ ऐसा ही है जैसा थोड़ी देर पहले था. सब कुछ बिल्कुल वैसा ही पर कुछ बदला था.अचानक...

पूरे दिन में एक ऐसा पल आता है जब मैं एक अनजान सी ख़ुशी से भर जाता हूँ. अलसा कर चलता हुआ दिन एक बिंदु पर आकर सुख की नोख़ बन जाता है जहाँ से टप-टप कर के लगातार सुख चूता है, ख़ुशी चूती है. अभी ऐसी ही नोख के नीचे बैठा हूँ, तो मुझे लगा कि इसको लिख लेना चाहिए. आजकल पिछले एक हफ्ते से एक 'नई' कहानी पर काम कर रहा हूँ. नई पर ज़ोर इसलिए है भी कि जैसा या जो मैं लिखता हूँ उससे काफी अलग है ये. इस पर खूब सारी रिसर्च और कल्पना की एक कसी हुई उड़ान की ज़रुरत है. कहानी का ना लिखा जाना या ना लिख पाना एक थका देने वाला है, इससे उलट लगातार लिखते रहना किसी भाप भरे इंजन का छुक-छुक कर के चलते रहना. पर ऐसे ही अलसाए हुए थकान भरे दिन में ली हुई झपकियों में भी इसके पात्र आपस में बात करते रहते हैं, अपना रास्ता ढूंढते रहते हैं और मुझे आलस को बीच से तोड़ तोड़ कर अपने मोबाइल में ही इनके संवाद और मनस्थिति रिकॉर्ड करने पर मजबूर करते हैं. दूसरी तरफ अलग अलग किताबों की अपनी अलग दुनिया है जो मेरी छोटी से लाइब्रेरी (यह लिखते हुए मुझे बहुत ही अच्छा सा लगा, शायद इसलिए कि यह होना मेरा सपना) से झांकती रहती है. दुनिया में कितना कुछ है पढने के लिए, उस कितने कुछ में से एक ज़रा सा कुछ मैंने अपने पास रखा है जिसे मैं जल्द से जल्द पढ़ लेना चाहता हूँ. इसकी सोच भी एक सुकून एक से भर देने वाली है शायद यह सबकुछ जो आस पास चल रहा है या जो घट चुका है शायद उसमें अपनी परछाई ढूंढ लेने का सुकून है.



आज कल इस नई कहानी की रिसर्च के सिलसिले में जब भी ऑनलाइन आकर थोड़ी रिसर्च करता हूँ तो इस 'कितना कुछ पढने' में बहुत कुछ नया जुड़ जाता है साथ ही दूसरी तरफ कविताओं का दौर है. जो मुझे अपनी तरफ खींच लेता है. यह सब कुछ एक साथ करने की इच्छा के फैलाव में इतना नुकीलापन है कि यह एक तरह का सुख देता है, जिससे में बैठे बैठे ही भरने लगता हूँ. इस सुख को जो ख़ुशी है मैंने पहले भी कई बार महसूस किया है पर इस तरह से लिखा कभी नहीं... आज लिख रहा हूँ. हमने अपने सुखों को कितना कम लिखा है, जीवन को जीवित समझकर कितना कम जिया है. जीवन को इस नोख पर कितना कम जिया है.

Saturday 16 July 2016

आश्चर्य कैसा

आश्चर्य कैसा
जब शून्य से एक के बीच हैं
अनगिनत संख्याएँ
नींद से जागने के बीच
अनगिनत पड़ाव सपनों के 

सागर तक पहुँचते हुए
जाने कितनी बार बहती है नदी
और सात सुरों के बीच भी तो
बजता है अपार संगीत

जब एक कण में छुपा हुआ है
जीवन' का रहस्य
शुरू होने से अंत तक इसके

तो बिल्कुल भी आश्चर्य नहीं
मेरा तुम्हें ढूंढ लेना 
हर प्रेम कहानी में

हमारे बीच
प्रेम के इतिहास का होना
कोई भी आश्चर्य नहीं

तुम्हारी याद में
मेरी आँखों से निकलती
एक गुनगुनी बूँद
उसके आँखों की है
जिसने सबसे पहले प्रेम किया था

मेरे अन्दर दौड़ती
इस लहर को,
इस सांय सांय पुरवाई को
वो भी महसूस करेगा
जिसे प्रेम आखिर में पालेगा


हम दोनों के बीच
जो भी है, कुछ चलता हुआ
बदलता हुआ 
उसमें कोई भी आश्चर्य नहीं..

Monday 13 June 2016

डिअर भावना.

एक देश के रूप में हमने हमेशा से ही दिखने से ज़्यादा ना दिखने वाली चीजों को महत्त्व दिया है, परवाह ज़्यादा की है. जीवित से ज़्यादा पूज्य वो है जो मृत है. जो हमें दिखता नहीं वो देवतुल्य हो जाता है जैसे कोई बात समझ ना आने पर गहरी बात... हमारी बात बात पर आहात होती 'भावना' भी ऐसी ही अदृश्य शक्ति का उदाहरण है. ऐसी सारी अदृश्य शक्तिओं के बचाव के लिए किए जाने वाले यत्न पुरखों के नाम पर किया जाने वाला वो पिंडदान है जिसपर कोई भी सवाल नहीं उठाता बस कर देते हैं. इसकी बात करो तो सारे जीवित मुद्दों को एक तरफ करते हुए अचानक 'भावना' सर्वोपरि हो जाती है. आहात भावना का मानना हमारे और लोकतंत्र की मौलिक ज़रुरत बन जाता है. पर हमें पता नहीं कि भावना का इस बारे में क्या कहना है. वो सोचती क्या है?...तो यह चिठ्ठी एक कोशिश है उससे बात शुरू करने की उसे समझने की कि इसके बाद उन मुद्दों पर भी बात की जा सके जो ज़िंदा है, जो ज़रूरी हैं...जो दिखते हैं.


"देखिए दोस्त मिहिर देसाई द्वारा निर्देशित, मेरे द्वारा लिखी हुई 'डिअर भावना' स्वानंद किरकिरे साब की अद्वितीय आवाज़ में."


अपडेट: मेरे पसंदीदा फ़िल्मकार अनुराग कश्यप को डिअर भावना पसंद आई और उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर इसे शेयर किया .





Saturday 28 May 2016

जानकी पुल पर इस महीने पाँच कविताएँ छपी है. पढने के लिए लिंक पर जाएँ.
प्रभात रंजन जी का बहुत बहुत शुक्रिया.

यहाँ क्लिक करें


Thursday 21 April 2016

जब हमने करी एक्टिंग.

सुबह सुबह व्हाट्सएप्प पर मैसेज की आवाज़ के साथ नींद खुली. देखा तो आकांक्षा (मिश्रा) का मेसेज था.
"आंकाक्षा - सुनो एक्टिंग करोगे? कल?
मैं- टाइम कितना जाएगा?
आकांक्षा - २ घंटे
मैं - कर लेंगे"

इसके बाद अपनी थोड़ी बात इस बारे में हुई की कैसे और क्या करना है . गले दिन अँधेरी में शूट हुआ और  बहुत मज़ा आया. अब ये विडियो  बन कर आ गया है. आप भी देखिए और बताइएगा कैसा लगा. :)




Sunday 3 April 2016

कहानी-संभावनाएँ. www.thelallantop.com पर.

जिस टेबल पर वो दोनों बैठे थे वहाँ आस पास कोई भी नहीं था। कल्चरल वेन्यू होने के बावजूद आज कैफ़े वाला एरिया बिल्कुल खाली था। इसकी एक वजह थी वीक डे का होना और दूसरी यह कि जो थोड़े लोग आज आये थे वे भी अपने अपने इवेंट में बिजी हो गए थे। यहाँ कैफ़े में हरकत के नाम पर कैफेटेरिया में एक औरत कॉफ़ी बना रही थी और दूसरी तरफ लम्बी टेबल जिसपर खूब सारी पुरानी किताबों का ढेर रखा होता, एक बिल्ली करवटें बदल रही थी। इक्का दुक्का लोग पतली बाँस की बनी दीवार के पीछे थोड़ी देर खड़े होते, सिगरेट फूंकते और फिर ऐसे निकल जाते जैसे वहाँ किसी को जानते ही नहीं। पूरे कैफ़े में अलग अलग बल्बों की पीली रौशनी, कैफ़े में बिखरने वाली रात को और गाढ़ा बना रही थी। युग और अनु ऐसे ही किसी एक बल्ब के नीचे बैठे कुछ देर से बातें कर रहे थे। दोनों आज दूसरी बार मिल रहे थे। पहली बार भी यहीं मिले थे, एक इवेंट के दौरान ही, और अब मिलने का बहाना फिर से एक ऐसा ही इवेंट था। बहाना इसलिए, क्योंकि इवेंट तो हॉल में बंद दरवाज़े के अंदर कब का शुरू हो चुका था। पर दोनों इस बात को जानते हुए भी इग्नोर कर रहे थे। उनकी अपनी दुनिया और बाकी की दुनिया के घटने के बीच कुछ था तो बस एक दरवाज़ा। लकड़ी का मोटा, भारी दरवाज़ा। जिसे युग की एक आँख ने लगातार बंद कर के रखा हुआ था। उसे डर था कि उसके आँख हटाते ही वो दरवाज़ा खुल जाएगा और अन्दर की दुनिया उसकी इस दुनिया में घुसपैठ कर बैठेगी। जितनी देर भी हो सकता था वो अनु के साथ इसी दुनिया में रहना चाहता था।  

मैं कुछ और... दस पंद्रह दिनों के लिए ही यहाँ हूँ  अनु ने बातों ही बातों में अपना सर बाएं कंधे की तरफ झुकाते हुए कहा और फिर चुप हो गई। युग जो अब तक काफी खुश था, अनु की इस बात से  उसकी ख़ुशी की आँख में अचानक एक तिनका गिर पड़ा। वो यह सुनने के लिए तैयार नहीं था।  उसके दोनों होठ अभी भी अपनी जगह पकड़ कर वैसे ही बैठे हुए थे पर आखें कुछ और ही हो गई थीं। थोड़ी देर तक वो इधर उधर की बातें करता हुआ खुद को और अनु को भी यही बताता रहा कि शायद उसे फर्क नहीं पड़ता। पर जब मन के अन्दर की सारी गांठे खुल गई तो उससे रहा नहीं गया दुबारा आओगी?उसने पूछा। दरअसल वो पूछना चाहता था दुबारा आओगी ना... पर इस वक़्त कुछ सोच कर उसने सिर्फ इतना ही पूछा दुबारा आओगी?। शायद उस ‘...ना में उसे एक हक़ के छुपे होने की आहट महसूस हुई थी। वो हक़ जिसके बारे में उसे पता नहीं था कि वो उसका है भी या नहीं। क्या वो यह उसे कह सकता था या फिर नहीं... इसी कशमकश में ‘...ना’ कहीं पीछे छूट गया था।


(पूरी कहानी नीचे दिए हुए link पर पढ़ी जा सकती है)
http://www.thelallantop.com/bherant/ek-kahani-roz-neeraj-pandeys-story-sambhavnaayen/

Tuesday 1 March 2016

इंडियरी मार्च में प्रकाशित...'डियर भावना'



डियर भावना,कैसी हो? अभी भी कहीं आहत तो नहीं हो तुम? तुम्हारे बारे में सोचा तो थोड़ी चिंता हुई, सोचा मिल कर तुमसे बातकरूँ। ढूँढने की भी कोशिश की पर तुम मिली नहीं। मैं नहीं जानता तुम कैसी दिखती हो, तुम्हारी उम्र क्या है या तुम कहाँ रहती हो। मुझे कुछ भी पता नहीं। पर पिछले कुछ सालों से जब तुम्हारे बारे में सुन रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ, देख रहा हूँ मुझे लगता है तुम एक बच्ची हो। एक ऐसी बच्ची जिसकी उम्र वक़्त के साथ और कम होती चली जा रही है। और यह भी मेरी चिंता की वजह है। इसलिए इस उम्मीद के साथ लिख रहा हूँ कि अगर कहीं तुम्हें ये चिट्ठी मिले तो मैं अपनी बात तुम तक पहुँचा सकूँगा।उदाहरण के लिए तुम महेंद्र सिंह धोनी वाली घटना को ले लो। कुछ दिनों पहले मैंने सुना, तुम धोनी की वजह से आहत हुई थी। पहली बार तो मुझे लगा कि इसमें ज़रूर ही धोनी की कोई बदमाशी रही होगी। यह सोच कर मैंने थोड़ी जाँच पड़ताल भी की, पता चला धोनी इस मामले में बिल्कुल सूफ़ी है| मैंने वो लेख पढ़ा भी और वो फोटो भी देखी, जिसको लेकर इतना बवाल हुआ था। उसमें धोनी का चेहरा फोटोशॉप कर के लगाया हुआ है, और जहाँ तक मुझे लगता है धोनी फोटोशॉप तो नहीं जानता। नहीं, नहीं मैं धोनी की तरफदारी नहीं कर रहा, अरे मैं तो क्रिकेट भी नहीं देखता| और मुझे भी तुम्हारी तरह अमीर लोगों से थोड़ी परेशानी ही रहती है।...

(पूरा लेख नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है.)
http://indiaree.com/magazines/examples/magazine.php?lang=Hindi&issue=022016&Submit=+Read+

Thursday 25 February 2016

कुश की चटाई

तुम चटाई हो
कुश की
जिसे अपने साथ लिए
दिन भर भटकता हूँ
किसी जोगी की तरह
गाता हुआ एक राग
विरह का...

हर शाम बिछाकर
लेटता हूँ जिसे
थक कर चकनाचूर होने पर
तो नाप लेता हूँ
तुम्हारा हर कोना
बंद आँखों से ही

सुबह...
तुम्हारे कुछ निशान
जब छपे मिलते हैं
मेरे शरीर पर
काफी देर तक उन्हें
छूता, सहलाता हुआ
खुद में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूँ।

- नीरज पाण्डेय 

Wednesday 24 February 2016

इस शोर की 'आवाज़' कहाँ है?

बातें इतनी सारी हैं कि कहाँ से शुरू की जाए समझ नहीं आ रहा। बहुत सारी बातों के बहुत से अनजाने पहलू, जिनको समझना मेरे लिए अभी बाकी है। चारो तरफ शोर इतना मचा हुआ है कि इसके बीच इस छोटी सी बात के खो जाने का डर भी है। यह क्या सही और क्या गलत वाली बात नहीं है और ना ही किसी पर उंगली उठाने की कोई कोशिश। यह लिखना अब एक मजबूरी है। 

हर रोज़ सुबह उठते ही ट्विटर पर ख़बरों का संक्षेपण ऐसे मिलता है जैसे रोज़ सुबह हमें एक विवाद (बहस नहीं) का टॉपिक दे दिया गया हो। जिसपर या तो हमें उसके पक्ष में बोलना है या इसके 
विरोध में। यह संक्षेपण ट्विटर से फेसबुक तक आते आते उन्हीं विषयों पर लम्बा चौड़ा लेख बन जाता है। लेख के हर तरफ भर भर के कमेंट्स दिखते हैं। जिसके जरिए हम दूसरे की बात को गलत साबित करने की कोशिश करते नज़र आते हैं... बिना सुने-बिना समझे। हम सब एक दुसरे से विवाद कर रहे होते हैं पर बात कोई नहीं करता। बिल्कुल वैसे ही जैसे स्कूल के दिनों में ग्रुप डिस्कशन में होता था। उसमें भी कोई किसी की सुनता कहाँ था। हमारे बोलने के बीच इतना भी अंतराल नहीं होता था, जिसमें रुक कर हम यही सुन लें कि हम कह क्या रहे हैं। और इसी वजह से क्लास टीचर को वो ग्रुप डिस्कशन के नाम पर हो रहा मच्छी बाज़ार बर्खास्त करना पड़ता था। पर अब कोई क्लास टीचर नहीं है। शायद इसीलिए एक विवाद तब तक चलता है जब तक हम किसी नए विवाद की पूँछ नहीं पकड़ लेते। ऐसा नहीं है कि मैं कभी ऐसे किसी ऑनलाइन विवाद या बहस का हिस्सा नहीं बना हूँ, ये मैंने भी किया है और शायद इसी वजह से अब 'बहस करने' और 'बात करने' के बीच के फर्क को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। 

पिछले कुछ दिनों से ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो चिंताजनक है। मेरे कम न्यूज़ देखते हुए भी यह 'बहुत कुछ' कहीं ना कहीं से दिख ही जाता है। पहले भी हमारे देश में समाज में ऐसा काफी कुछ होता आया है जो व्यवस्था और खासकर हमारे एक समाज के रूप में सवाल उठाने के लिए काफी है। और अब तक हमने खूब सारे सवाल उठाए भी हैं। पर क्या हमारे सवाल किसी जवाब की तरफ बढ़ भी रहे हैं? हमारे सवाल का जवाब भी एक नया और पुराने से ज़्यादा नुकीला एक सवाल ही है। देश कबड्डी का मैदान हो गया है जहाँ दो विचारधाराओं के बीच एक लकीर खींच दी गई है और फेसबुक उसका स्कोरबोर्ड बना पड़ा है। किसी भी विचारधारा का जीतना या हारना लाइक्स और कमेंट्स से निर्धारित होने लगा है।  इसीबीच अगर कोई चुप रह जाए या किसी बात का जवाब ना दे तो उसे हारा हुआ मान लिया जाता है। हम एक विचारधारा को लेकर दूसरी विचारधारा रखनेवालों को पछाड़ने लिए पहले से रटी रटाई लाइन रटते हुए टूट पड़ते हैं। जो हमारे कुछ नया सोचने या समझने की गुंजाइश को खत्म कर रहा है। ... और यहीं पर बात बहस और बहस से विवाद बन जाती है। मुद्दा चाहे जो भी हो सवाल आने से पहले हमारे जवाब तैयार रहते हैं।


दो दिन पहले मेरी एक दोस्त से बातचीत के दौरान मुझे हरियाणा वाली घटना के बारे में पता चला था और आज इसी वजह से एक दूसरे दोस्त की मुंबई से दिल्ली जाने वाली ट्रेन रद्द हुई तो इस मुद्दे के बारे में थोड़ा और जानने की उत्सुकता हुई|  मैं ऑनलाइन ये सब पढ़ ही रहा था कि इसी बीच एक दोस्त ने इनबॉक्स में JNU से रिलेटेड एक लिंक भेजा। इसी वीडियो भेजने के साथ साथ उसने यह भी बताया कि वह इस वीडियो में बात करने वाला फलाना व्यक्ति उसे दूसरे फलाना व्यक्ति से ज़्यादा समझदार लगता है। अगर इस बात की तह में जाया जाए तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि अब हम (हम मतलब हम सब ,मेरा दोस्त तो बस एक उदाहरण है।) बस ऐसे व्यक्ति या चेहरे तलाशने लग गए हैं जो हमारे पूर्वाग्रहों को और मजबूत कर सकें। क्योंकि बातें हमें वही करनी हैं जो हम पहले से सोच कर बैठे हैं। हमारी तथाकथित समझदारी और बेवकूफ़ी दोनों एक ही जुलूस का हिस्सा हो गए हैं, एक ही जैसे कपड़ों में... हम समझदार बनते बनते इतनी बेवकूफ हो गए हैं कि किसी एक चेहरे को देश से बड़ा समझ कर पार्टीबाज़ी करने से बाज़ नहीं आ रहे। तिरंगे की बात करते करते हम अलग अलग रंगों की बात करने लगे हैं। 
...या तो गलती सत्ताधारी दल की है या विपक्ष की... हर चीज़ को या तो सफ़ेद पेंट किया जा रहा है या काला, या तो तुम देशद्रोही हो या देशभक्त...

पिछले महीने मेरे साथ भी हुई पीवीआर वाली घटना में मेरा सबसे बड़ा रोना यही था कि आखिर दोनों दल के लोग जो भले ही मेरी तरफ से बोल रहे थे या मेरे विरोध में... आपस में बात क्यों नहीं कर रहे। क्यों उस शाम वो सिनेमाघर भी एक छोटा सा फेसबुक बन गया था, जहाँ पांच - सात लोगों का अलग अलग समूह एक दूसरे को गलत साबित करने में कुछ भी बोले जा रहा था। सच बताऊँ तो जितनी ख़ुशी मुझे इस बात की थी कि चलो कुछ लोग हैं जो मेरी तरफ से   बोलने के लिए आगे आये हैं उतना ही दुःख इस बात का भी था कि सब बस बोलना ही चाहते हैं। सुनना और समझना कोई नहीं। हमें बोलने की इतनी जल्दी है कि क्या हम जो खुद कह रहे हैं वही समझ पा रहे हैं।  

लगता है हमारे पास वक़्त की कमी हो गई है कि थोड़ी देर रुक कर साँस ले ले, थोड़ा सोच लें कि आखिर हम किस बात के लिए इतना उत्पात मचायें पड़े हैं। ...और आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। हम सबका देश के प्रति इतना प्यार उमड़ रहा है कि देश को बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा है। बुद्धिजीवी और देशभक्त होने के नाम पर हम लोग ऐसी ऐसी हरकतें करने पर उतारू हैं जो हमें उस व्यक्ति के बराबर में लाकर खड़ा कर रही हैं जिसे हम बेवकूफ कहते रहे हैं। 

एक बात और... किसी के कुछ भी अलग बोलने पर हम उसे एक विशेष प्रकार का तमगा दे देते हैं और फिर खुश होते हैं कि इस तमगे का काट तो है हमारे पास, हम फिर से जीत गए। क्या हमारी सारी वैचारिक लड़ाई बस सामने वाले को गलत साबित करने की है? या इसका कुछ बड़ा मतलब भी है? हम खुद को सही दूसरे को गलत साबित करने में इतने आगे चले आए हैं कि हमने ये भी टटोलना बंद कर दिया है कि आखिर ये बात शुरू क्यों हुई थी। कहीं हम एक विशेष चीज़   समुदाय या वर्ग से नफरत करते करते वैसे ही तो नहीं बनते जा रहे? और ये सवाल हम दोनों पालों में बटें लोगों को खुद से पूछना होगा कि क्या हम बीच में खींची लकीर को नज़रअंदाज़ कर एक दूसरे के पक्ष को थोड़ा समझने और सुनने को तैयार हैं? 

आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है 

Wednesday 13 January 2016

भरोसा

हम दोनों पैरों से एक साथ
कभी नहीं बढ़ते।

एक पाँव के उठते ही
वहाँ की ज़मीन छूट जाती है
और दूसरा पाँव ये देखता है,
हिचकिचाता है
पर पहले का सहारा लेकर
वो भी छोड़ता है अपनी ज़मीन,

एक भरोसे के साथ ...

इस तरह एक भरोसा
बदल जाता है- एक कदम में...

फिर वो 'एक कदम' बदलता है
सैकड़ों मीलों की दूरी में,
उन सारी संभावनाओं को पूरा करता
जो पहले कदम की
हिचकिचाहट में छुपी थीं।

भरोसा दौड़ना सीख जाता है।

आदमी के इतिहास की
सबसे बड़ी उपलब्धि थी-
वो 'पहला कदम' उठाना|

Friday 8 January 2016

वे वहीँ ठीक हैं...

(३ जनवरी की रात, जो लिखते-लिखते ४ की हो गई थी. मुंबई)

बिस्तर के सामने लगे ड्रेसिंग टेबल के पास दो बार जाकर उसपर रखी किताबों को कहीं और रखने की नाकाम कोशिश कर चुका हूँ| दो डायरियाँ, कर्णकविता, प्रेमचंद, परसाई साब, रोबर्ट एम. पिरसिग, कालिदास, ओशो एक के ऊपर एक रखे हुए हैं और इन सबके ऊपर ग़ालिब अपने दीवान के साथ वहीँ बैठे मुझे टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं| पर मुझे पता है मैं आज रात इनमें से किसी को हाथ नहीं लगाने वाला| अभी ये लिख रहा हूँ और पढ़ने का आज का कोटा विनोद कुमार शुक्ल जी ने पूरा कर ही दिया है| इसके बाद बस सोना ही बचता है (अगर नींद आ जाए तो )|

दरअसल किताबों को ऐसे बेवजह साथ में रखने की आदत बचपन से है| स्कूल जाते हुए भी बैग भर के किताबें ले जाने की आदत थी| चाहे उस किताब का उस दिन स्कूल के रूटीन से कोई लेना देना हो ना हो मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था| "भई किताबें हैं तो ले जाएँगे"| पर मैंने ये वाली बात कभी बैग को बताई नहीं और ना ही कभी ये सोचा कि एक बार उससे पूछ लूँ कि “भाई तुझे कैसा लगता है एक साथ इतनी सारी किताबें उठा के?” पर गलती मेरी भी कहाँ थी, उस वक़्त कम ज़्यादा जैसा कोई कॉन्सेप्ट दिमाग में था ही नहीं। तब तो जो मन में आया- किया, जितना मन में आया- उतना किया। ना उससे कम और ना उससे ज़्यादा। पर एक दिन जब बैग ने अपनी साइड की सिलाई खोलकर मानहानि का दावा पेश किया तब मुझे उसकी फीलिंग्स का थोड़ा आईडिया हुआ, वो भी मम्मी के बताने पर| उसी दिन शाम को बैग की सिलाई के साथ मुझे भी बिठकर ठीक किया गया और ये तय हुआ कि अब से मैं बस उतनी ही किताबें ले जाया करूँ जितने की मुझे दरअसल ज़रुरत है|


अगले दिन सुबह उठकर दीवार पर चिपके हुए रुटीन के हिसाब से बैग में किताबें सजा लीं। उस वक़्त ये करते हुए मज़ा भी आया। पर घर से स्कूल जाते हुए ऐसा लगा नहीं कि स्कूल जा रहा हूँ| पीठ पर बैग तो डाला हुआ था पर कम किताबें होने की वजह से वो अन्दर से ही हिल रहा था| अपना बैग ही अपना नहीं लग रहा था उस दिन। उस दिन मुझे ठीक ठीक क्या महसूस हुआ था ढंग से याद नहीं, इसलिए उस बारे में लिखना भी बेमानी होगी| पर मुझे इतना ज़रूर याद है कि उस दिन कुछ ऐसा ज़रूर लगा था, जिसकी वजह से घर पहुंचते ही दुबारा वो सारी किताबें, जो मम्मी और मेरे क्लास के रूटीन के हिसाब से एक्स्ट्रा थीं, मैंने अपने बैग में फिर से रख ली थीं| अगले दिन बैग फिर से वही पुराना वाला...  :) वही वजन, वही चौड़ और अपनी सारी पसंदीदा किताबें अपने साथ। बैग अंदर से बिल्कुल भी नहीं हिल रहा था। क्या हो जाता? मम्मी की एक दो बातें सुनने के लिए मैं तैयार था, और अब तो ये भी पता चल चुका था कि बैग की मरम्मत अपने घर पर ही हो जाती है| 


वो फीलिंग मुझे आज इन किताबों को हटा कर कहीं और रखने की नाकाम कोशिश के दौरान समझ आई| इन किताबों का होना उन रिश्तों का होना है, जिनका बस अपनी जगह पर होना ही खुद में एक रिश्ता है, एक तसल्ली है, एक पूर्णता है| फिल्म लंचबॉक्स की आंटी और उसकी नायिका के रिश्ते की तरह... वो आंटी कभी भी फिल्म में दिखती नहीं, पर फिल्म की नायिका के लिए उनकी आवाज़ का होना ही उनका वहाँ मौजूद होना है| उनकी शक्ल भी नहीं, बस आवाज़... ताकि वो जब चाहे उनसे बात कर सकती है| थोड़ा कह सकती हैं, कुछ सुन सकती हैं। और मैं भी जब इन किताबों के कुछ पन्ने यूँ ही उठा कर पढ़ लिया करता हूँ तो लगता है, किसी से कोई बात हो गई...  इन डायरियों पर कुछ दो चार लाइनें लिख लेता हूँ, तो लगता है किसी से कुछ कह दिया| 

फिलहाल इनको उठा कर कहीं और रखने की हिम्मत नहीं है, उन्हें वहीँ रहने देता हूँ| उनका वहाँ होना एक मकसद सिद्ध करता है| और...  क्या ही फर्क पड़ता है, मेरा कमरा वैसे भी मेरे लिए काफी बड़ा है|

(आपकी राय का कमेंट सेक्शन में स्वागत है।)
-नीरज 

Tuesday 5 January 2016

कोर्ट/आईना क्यूँ न दूँ

कहते हैं "किसी को अगर जानना हो तो उसकी दिनचर्या के बारे में पता लगाओ, देखो वो अपने जीवन की छोटी छोटी चीज़ों को कैसे करता है। और आपको पता चलता है कि उसका चरित्र कैसा है। कोर्टदेखते वक़्त भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। पारम्परिक सिनेमा के स्ट्रक्चर से अलग हट कर हर किरदार के साथ उसके पर्सनल स्पेस में जाती यह फिल्म उनके बारें में बहुत कुछ दिखाती है।

कोर्ट न तो सिर्फ कोर्ट के बारे में है, और न ही इसके मुख्य किरदार नारायन कांबले के बारे में। यह फिल्म हमारे बारे में है, हमारे बीच के किरदारों के बारे में। चाहे वो पब्लिक प्रॉसिक्यूटर जो कोर्ट से घर जाते हुए रास्ते में कॉटन साड़ी और ओलिव आयल की बात करती है, घर पर जाकर डेली सोप देख रहे पति के लिए खाना बनाती है। या फिर डिफेंस लॉयर जो कोर्ट के बाद एक सुपर मार्किट में शॉपिंग करते हुए रोज़मर्रा की ज़रूरतों के सामान से लेकर शराब तक की खरीददारी करता है और पार्लर में फेशियल करवाता है। या फिर वो कोर्ट का जज जो एक महिला के केस की सुनवानी इसलिए नहीं करता क्योँकि उसने स्लीवलेस टॉप पहना हुआ है। 

कई बार फिल्म देखते हुए ये भी लगता है कि इस सीन की क्या ज़रुरत थी, ये तो नारायन कांबले का केस से नहीं जुड़ा, पर कुछ आपको पता चलने लगता है कि नारायन कांबले का केस तो एक जरिया है जिसकी ऊँगली पकड़ कर कोर्ट के वो कोने तलाशे जा रहे हैं, जिसके अंदर शायद हम अपना दिमाग रख कर भूल गए है। और उसके कारण हम कांबले के गाने में छिपे मेटाफोर को न समझ कर एक सीवर सफाईकर्मी की मौत की ज़िम्मेदारी हम उसके ऊपर मढ़ने लग जाते हैं| जबकि मौत की वजहें कुछ और ही हैं। उस सफाई कर्मचारी की बीवी से पूछे जाने वाले सवाल के दौरान कैमरा सिर्फ उसी का चेहरा दिखाता है और अपने पति के मौत के बारे में वो हर सवाल का ऐसे जवाब देती है जैसे कोई आम सी बात है। वो जानती है कि हर सीवर साफ़ करने वाले की मौत शायद ऐसी ही होती है। ये सीन हमारे समाज की विसंगतियों पर एक तमाचा है। ठीक उसके बाद जब डिफेन्स लॉयर जाते हुए वो अपने काम की बात करने लगती है। उसके पति की मौत उसके लिए स्वीकार्य हैं। 


दूसरी तरफ एक किताब लिख देने पर या सरकार की नीतियों के खिलाफ गाना गा देने पर नारायन कांबले को गिरफ्तार कर लिया जाना हमारी सरकार की तानाशाही का सूचक तो है ही, साथ ही साथ यह एक तरीका भी है जिससे ये बताया जा सकता है कि हम तुम्हारे आका है और ये सारे नियम हमारे हैं, इसमें रहना है तो हमारे हिसाब से रहना पड़ेगा। 

फिल्म के कुछ जिरह के सीन ये सवाल भी लेकर आते हैं कि आखिर हम कब तक अंग्रेज़ों के जमाने के बने हुए कानून के हिसाब से लोगों को सजा देते रहेंगे। दूसरी तरफ किस तरह हम लोगों ने लिखी हुई चीज़ को पत्थर की लकीर मान लिया है। हमारी सोच उस पैराग्राफ के पहले शब्द से शुरू होती है और आखिरी शब्द तक जाते जाते समाप्त हो जाती है। और आखिर हो भी क्यों ना क्योंकि हमारे पास और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं है क्योंकि हमारा इवनिंग टाइम एंटरटेर्मेंट भी मराठी मानुस के अहम को बढ़ावा देना में जाता है या फिर किसी पब में बैठ कर गप्पियाने में। 

आखिरकार जब कोर्ट एक महीने के लिए बंद होता है, तब तक नारायन कांबले के केस का फैसला नहीं हुआ होता और अब उसको एक महीना जेल में ही रहना होगा। उसके बाद भी उसका क्या होगा पता नहीं शायद इसीलिए उस सीन में सारी लाइट्स धीरे धीरे बंद होती है और दर्शक को अन्धकार में छोड़ती हैं। 

दूसरी तरफ वेकेशन के लिए वही जज अपने दोस्तों के साथ शहर के पास के रिज़ॉर्ट में जाता है और वहाँ अपने दोस्त को उसके बेटे के बोलने के लिए सलाह देता दिखता है कि "इसे अंगूठी पहनाओ तब जाकर ये बोलने लगेगा", वो आईआईएम और आईआईटी में मिलने वाले पैकेज की बात करता है। इस तरह फिल्म हमें उस जज के पर्सनल स्पेस में भी ले जाती है और दिखाती है कि जिन्हें हम सबसे समझदार और दिमाग वाला मानते हैं और शायद इसी वजह से हमारे समाज के बड़े फैसलों पर निर्णय लेने का अधिकार उन्हें देते हैं उनकी खुद की बुद्धि कैसी है। 

फिल्म देख कर थोड़ा गुस्सा आना तो लाजमी हैं| पर ये सोच कर मैं भी करुणा से भर जाता हूँ कि जैसे हम हैं न ... बस आप समझ जाइये| 

(www.indiaree.com के दिसंबर,२०१५. अंक में प्रकाशित)

अपडेट:  

Monday 4 January 2016

आस्था भी कोई चीज़ है |

वो शिरडी से दर्शन कर के आये थे । एक हाथ से साई बाबा का गुणगान किये जा रहे थे और दुसरे से अपनी आस्था बघार रहे थे । बता रहे थे कैसे वहाँ धर्म कर्म के काम में उन्होंने बढ़ चढ़ कर दिलचस्पी ली। कैसे उनका जीवन साल में बस एक बार शिरडी के दर्शन करने मात्र से सुचारू रूप से चलता रहता है। मैं भी हाथ जोड़े और मुँह फाडे सब सुन रहा था । भई आस्था तो मुझे भी है। तभी उन्होंने अपनी नाक छिनकी और अपनी शर्ट में पोंछते हुए बोले " ट्रेन के सफर में ठंड लग गई।" फिर थोड़ी देर बाद रुक कर ऊपर उँगली दिखाते हुए बोले "चलो अब सर्दी भी तो उसी की माया है। बाबा सब हर लेंगे। बस हमारी आस्था और उनकी कृपा बनी रहे। जय साई राम । " 'कृपा' शब्द सुनते ही मुझे याद आया कि बातों बातों में मेरा अपना आध्यात्मिक कार्यक्रम छूट रहा था। मैंने टीवी ऑन किया और 'निर्मल बाबा ' वाला प्रोग्राम लगा कर बैठा और हाथ जोड़कर सुनने लगा। कृपा आनी शुरू हो गई थी। और मेरे पीछे खड़े वो ये सब देख कर अपनी नाक छिनकते हुए बड़बड़ाते रहे " अरे चूतिया हो क्या?… ऐसे भी कहीं कृपा आती है… , बेवकूफ बना रहा है वो.… , अरे तुम तो पढ़े लिखे हो… वगैरह वगैरह… " पर मैं भी उनको इग्नोर कर के अपनी आस्था में लगा रहा । क्योंकि जब मेरी नाक बहती थी तब 'निर्मल बाबा ' की कृपा से ही ठीक होती थी । मैं कृपा बटोरता रहा, वो बड़बड़ाते रहे …

Saturday 2 January 2016

क्यों? ठीक ठीक पता नहीं

(कांदिवली से एयरपोर्ट, के दौरान  1/1/16. 10:20 P.M. मुंबई .)
अभी अभी मुम्बई एयरपोर्ट पहुँचा हूँ, सौरव से मिलने। आदतन मैं जल्दी पहुँच गया और सौरव के आने में अभी थोड़ा वक़्त है। मैं अभी एक कमाल की ख़ुशी से भरा हुआ हूँ। वजह मुझे पता नहीं। सोचा किसी को फ़ोन कर के अपने अंदर अभी जो भी चल रहा है वो बाँट लूँ। फिर यह सोच कर रहने दिया कि इसको लिख लेना ज़्यादा बेहतर होगा। अक्सर मेरे दोस्तों की शिकायत जो मेरे तनाव को लिखने के लिए रहती है, शायद इससे थोड़ी कम हो सके।
मुम्बई में हल्की ठण्ड का मौसम है। ठण्ड इतनी ही की मैं हाफ टीशर्ट पहन कर बैठा हुआ हूँ।  हाँ सर्दी की इज़्ज़त रखने के लिए सर पर एक कैप ज़रूर डाल ली है। थोड़ी देर पहले ही एक कविता लिखी थी और अब सौरव से मिलने निकल पड़ा। कांदिवली के हाईवे से मैंने बस ली, मैं पहली बार एयरपोर्ट  बस से जा रहा था तो आशंका थी कि अगर ट्रैफिक मिला तो मैं कहीं लेट ना हो जाऊँ। इसलिए घर से पहले निकल लिया था। सड़कें और बस दोनों आज उम्मीद से बहुत ख़ाली दिख रहे थे। मैंने कंडक्टर से टिकट ली और पीछे से 2 सीट्स छोड़ कर खिड़की पकड़ पर बैठ गया। बस चली जा रही थी एक के बाद एक फ्लाईओवर फांदती हुई। खिड़की से हल्की ठंढी हवा बस के अंदर आ रही थी, मुझे अच्छा लगने लगा। और एकाएक मैं वो तमाशा का गाना "वत वत वत..." का अंतरा गाने लगा।
"ओ.. हम हमहीं से, तोहरी बतिया
कर के बकत बतावें हैं,
खुद ही हँसते, खुद ही रोते,
खुद ही खुद को सतावें हैं..."
मैं ज़ोर ज़ोर से गा रहा था,जैसे बस की रफ़्तार से कोई मुक़ाबला हो। इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मेरे सामने की सीट पर बैठी हुई लड़की ने पलट कर मुझे देखा। मुझे एक पल के लिए लगा कि उसको अजीब लगा पर वो एक स्माइल दे कर दुबारा सामने की ओर देखने लगी।
तभी बस का एक झटका आया और मैं सीट पर अपना बैलेंस खोने लगा।गाने का 'बेसुर' बार बार
बिगड़ रहा था|  पर मुझे अभी गाना गाने में मज़ा आ रहा था। एक ख़ुशी मिल रही थी| पता नहीं क्यों मुझे जब भी ऐसा कुछ अच्छा लगता है, मुझे दिल्ली की याद आने लगती है। मुम्बई का हाईवे दिल्ली का रिंग रोड बन गया और बेस्ट की बस 'DTC' की। फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर टायर के ऊपर वाली सीट से हटकर पीछे बैठ जाए तो शायद सीट इतनी ना हिले, और इस लड़की से थोड़ा फासला भी बढ़ जाएगा। फिर क्या था, मैंने पीछे देखा, सीट पूरी तरह से खाली थी। मैं कूदकर उसपर बैठ गया। पर मैंने इस बार सामने वाली सीट का रॉड पकड़ा, खिड़की की तरफ झुककर बैठा जैसे बच्चे किसी amusement पार्क में किसी राइड पर बैठते है। बस हाईवे पर वैसे ही दौड़ती चली जा रही थी, हवा वैसे ही हल्की ठंडक बस के अंदर ला रही थी। सीट का हिलना अभी भी वैसा ही था,  मैंने गाना चालू रखा, और वहीँ बैठे बैठे एक ख़ुशी से भरता गया। जिसकी वजह का मुझे अभी भी ठीक ठीक पता नहीं| एयरपोर्ट का स्टैंड अभी आया नहीं था, पर अब तक गाने का दूसरा अंतरा आ गया था... :)
"जान गए लेके सुर्खी कजरा
टेप टाप के, लटके झटके
मार तू हमका फँसावत...
पर ई तो बता
तू कौन दिसा, तू कौन मुल्किया
हाँक ले जावे...
हौले हौले बात पे तू
हमारी वाट लगा..."
...बस कहीं और ले जा रही थी और मैं कहीं और ही चला जा रहा था।
- नीरज


नाटक शुरू होने से ठीक पहले...

अँधेरे में, साफ ना दिखना
कई सारी कल्पनाओं को
जन्म देता है।

सामने खेले जाने वाले
नाटक की परिकल्पना मात्र
एक कुलबुलाहट पैदा करती है।

ये कुलबुलाहट, हमेशा
एक उम्मीद के साथ आती है,
और, मेरे सामने
तैयार करती है - एक दृश्य
सुनहरी रौशनी का...

एक नाटक ठीक मेरे सामने
जीवित हो उठता है।

... वाह!

इसके किरदारों को देखने की,
जानने की, मिलने की इच्छा
इस कुलबुलाहट को
गुदगुदी में बदल देती है...
और, मैं उनसे मिलने
मंच पर पहुँच जाता हूँ

पर यहाँ इनकी आवाज़े
बदली हुई हैं,
उनके चेहरे कुछ और हैं...
मैं उन्हें उनकी पहचान बताता हूँ
- वो मुकर जाते हैं।
मैं कहता हूँ - "मैं तुम्हें जानता हूँ",
- वो हँस पड़ते हैं।
उनकी हँसी मुझे अट्टाहास लगती है।

वो अपना संवाद भूलकर
कुछ और बड़बड़ाते हुए,
कहीं और चले जाते हैं।
दृश्य गायब हो जाता है,
गुदगुदी, सिहरन में
तब्दील हो जाती है...

मेरे दर्शक से पात्र बनते ही
कहानी बदल जाती है|
... परदे के उठते ही
मेरी कल्पनाओं वाला नाटक
ख़त्म हो जाता है।