Wednesday 24 December 2014

ऐलिस इन वंडर लैंड का कुवां

किताबों को उनके किये की सजा मिल रही है ।
बिन बुलाये मेहमान सी
हालत है अब इनकी ।

किताबें सवाल करती थीं ।

पूछती, मुझसे मेरे होने का मकसद ।
बतलाती, दुनिया में कितनी भूख मरी है।
समझती, कि लाल और नीली गोलियों में फर्क होता है।
हिलाती, मान्यताएँ और झझकोरती कम्फर्ट जोन को ।

पर स्क्रीन,
जैसे ऐलिस इन वंडर लैंड का कुवां
एक बार कूदो और गिरते जाओ,
खुद के प्रतिबिम्ब में,
बन लो अपनी दुनिया जैसी तुम चाहते हो ।
उगा लो, खेत और बना लो कारखाने
दूर कर दो भूखमरी और बेरोज़गारी ।
बचा लो किसी शहर को
किसी एलियन के अटैक से ।
दिखा दो सबको कि तुम्हारे अवतार
विष्णु से भी कहीं ज़्यादा हैं ।
सबके वाऊ, हाव्, आव्व के बीच
बन जाओ पूजनीय ।
सुलझा कर सारी पहेलियाँ
बन बैठो इस दुनिया के
सबसे सुलझे हुए शक्स।


© Neeraj Pandey

Saturday 20 December 2014

रंगीन बादलों के ख्वाब

बाग़ में खेलते हुए रंगीन बादलों को देख 
हैरान होता था वो। 
उडते पंछी आदर्श थे उसके,
वो छुना चाहता था आसमान,
गढ़ना चाहता था बादल। 

तरीका?  उसे पता कहाँ था । 

उसके सपनों से अनजान,
जीवन की ज़रूरतों ने बतलाया उसे 
कि ये पेड़ ऊपर तक जाता है। 

आसमान पाने की चाहत में, 
चढ़ता रहा वो उसी पेड़ पर,
पर ऊपर जाकर हैरान हुआ,
धोखा हुआ था उसके साथ,
छाला गया था वो ।
पेड़ की अपनी सीमाएं थीं, 
बंट जाता था वो शाखाओं में,
कुछ टूटी, पतली, निर्बल तो कुछ सूखी ।  

एक-एक पाँव संभलकर रखता है अब वो
ज़मीन पर गिरने के डर से, 
आसमान का स्वप्न तो कब का
जीवन बचाने के यत्न का शिकार हो चूका है |  

© Neeraj Pandey

Tuesday 18 November 2014

पुर्ज़े

वो मशीन के हर पुर्ज़े को 
कसता है अक्सर बड़ी तरकीबों से ।  
पेंच चढ़ाता है । 
और एहसास दिलाता है उन्हें कि 
वो उस मशीन का एक हिस्सा हैं बस । 

पसंद किसी पुर्जे को नहीं
इस तरह से कसा जाना । 
अपना राग खोकर 
किसी और की धुन पर गाना । 

पर कहता है वो बिन कसे 
पुर्ज़े ठीक से काम नहीं करते।  

वो नहीं चाहता उनका अपना अस्तित्व  हो, 
वो नहीं चाहता कि पुर्ज़े बागी हो जायें । 

© Neeraj Pandey

Saturday 15 November 2014

तुम्हारा खुदा

तो कहते हो तुम तुम्हारा खुदा है कोई |
हाँ...  देखा है मैंने उसे अक्सर अलग अलग अवतारों में,
तुम्हारी शक्ल पर दिखता है
और आदत बनकर साथ ही रहता है |
कभी तुम्हारी ज़रूरतों में,
तो कभी तुम्हारे डर में
उसे पनपते और बढ़ते हुए अक्सर देखा है मैनें |

तुम्हारे आँख, नाक, कान तो
सही ग़लत का स्वाद  नहीं चख पाते अब,
बस उसकी घंटी सुनकर
वक़्त बेवक़्त,
जय जयकार करने लगते हो तुम,
वो ही तुम्हारी
इन्द्रियों का इंद्र बन बैठा है अब |

देखा है मैंने उसे अक्सर अलग अलग अवतारों में
तुम्हारी शक्ल पर दिखता है वो
तुम्हारी आदत बनकर.

8 घंटों की नींद, बड़बड़ करता टीवी,
LIC की किश्त और बेतुके बयानों ने
तुम्हें इतना खोखला बना डाला है
की हर नयी शक्ल से परहेज़ होने लगा है तुम्हे,
एक जैसे सबके चेहरे तलाशते
तुम बन चुके हो एक बांझ सोच
और चपटी ज़ुबान के मालिक
जो जन्म लेने से पहले ही कहीं दफ़न हो चुकी है |

अपने आका की तरकीबों पर
कोई सवाल न उठाना
मूक बनकर मान लेने की फितरत 
ही तुम्हारे जीने का मूल मंत्र है|

कसाइयों की  हाँ में हाँ मिलाकर
तुमने कत्ल होने से बचाया खुद को
और बस बंधे हुए हो उसी कसाई खाने में
नैतिकता के नाम पर,
इसके अलावा कुछ और तो नहीं
जो खुद सा हो।

तुम्हे नथुने से पकड़ कर घसीटता
हर रोज़ दीखता है  मुझे
हाँ  मैने भी देखा है उसे अक्सर अलग अलग अवतारों मे,
तुम्हारी शक्ल पर दिखता है वो 

© Neeraj Pandey

Thursday 16 October 2014

बुल्डोज़र



अपने किये पर शर्मिन्दा है शायद,
और आत्मग्लानि से भरा हुआ भी।
तभी तो अपना सर झुका
चुपचाप खड़ा है
मैदान के उस कोने में।
जिसकी छाती से सारे पेड़ उजाड़
खोदा था उसके गर्भ तक इसने
बाँझ बनाया था।

अब सरिया घुस रहा है
उस धरा के जिस्म में,
और कहने को सीमेंट के मसाले
भरे जा रहे हैं,
किसी मरहम के नाम पर।

जैसा कि
इक नींव बनाने की तैयारी हो रही है
जिसका अपनी नींव से कोई भी नाता नहीं।

जाने कितने ऐसे  मैदानों
की कोख को खोदा है इसने
जानें-अनजाने
बस अपने आक़ा की हवस की ख़ातिर

शायद इसी बात से दुखी ये बुल्डोज़र
सर झुकाकर इस धरा से
माँग रहा है माफ़ी,
कर रहा है पश्चाताप
अपनी हैवानियत का

सच है, इन्सानी दिमाग़ से बड़ा शैतान
और कोई भी नहीं ||


© Neeraj Pandey

Wednesday 15 October 2014

लताएँ भी कभी पेड़ बनना चाहती थीं

उस नन्हें से बीज ने
अपनी एक पत्ती निकाल
पास ही के बड़े पेड़ को देखा,
हाथ हिलाकर 'हैलो' भी कहा
और उसने भी जवाब में
एक फूल गिरा
लंबी उम्र का आशीर्वाद दिया

सपनों में था इसके
बिल्कुल वैसा ही बनना है,
घना, बड़ा, शानदार...

अपने जिस्म पर घोंसले रख
आशियाना देगा ये भी
किसी चिड़ीए के परिवार को...
या फिर अपनी छाँव से
कर देगा शीतल उस घर को
जहाँ उसे जन्म मिला है|

मासूम से सपने थे उसके
...और ज़रा उतावले भी,
तभी तो कुछ दिनों में ही
इतने पत्ते खोले थे इसने,

फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ
दुनियाँ देखी हर पत्ते से|

अपने ही बुजुर्गों को देखा
इमारतों की भेंट चढ़ते हुए,
देखा अपने चाचाओं को
जवानी में मरते हुए
वो साथी उसके जो हर शाम
हाथ हिला कर हाल-चाल
पूछ लेते थे,
उखाड़ फेंका था उनको किसी
बुलडोज़र ने चलते हुए

लाशें देखी थी उसने,
पड़ी हुई उन सड़कों पर,
चिथड़े होते जिस्म भी देखे
उम्र के थोड़ा बढ़ने पर
गुहार लगाई थी इसने
बहती तेज़ हवाओं में
रोया भी बारिश के साथ
छाले अब भी हैं निगाहों में|


दुनिया का रूप देख ये बच्चा
ताज़्ज़ुब कर रहा है,
अब ये बेचारा पौधा
बड़ा होने से डर रहा है|

कांपता है डर से थर थर अब ,
बड़े पेड़ से लिपट कर,
और... हमसे अपनी ज़िंदगी

कि मिन्नतें कर रहा है|


© Neeraj Pandey

Friday 10 October 2014

रिश्ते

वो कूड़े वाला हर रोज़ सुबह आकर
ले जाता है हमारा कूड़ा,
वो कूड़ा जो हमारी अपनी पैदाइश है|
और हम भी अपनी नाक सिकोडते
डाल आते हैं इसे उसके ट्रक में


घर के बाहर, हर सड़क पर,
हर नुक्कड़ पर
मुलाकात होती है इन कूड़े के ढेरों से
पर बच बच के चलते हैं सभी
कि कहीं पाँव भी ना लग जाए|

और कोई यह बोलने को तैयार नहीं
कि पड़ोसी के घर के सामने
रक्खा कूड़ा उनका है,
वो कूड़ा जो कभी
उनके अपने सामान का हिस्सा था|

इंसानी फ़ितरत हर उस चीज़ को
कूड़ा घोषित कर देती है
जिससे उसका कोई मकसद सिद्ध नहीं होता|

©Neeraj Pandey

Thursday 2 October 2014

हिन्दुस्तान में तरक्की के मायने

कॉरमंगला की एक सड़क पर
जहाँ महँगी गाड़ियाँ दौड़ती हैं
पिज़्ज़ा हट के ठीक सामने
एक और वैसी ही बिल्डिंग बन रही है,
शानदार, उँची, चमचमाती|

खबर है इसमें डोमिनोज़ खुलेगा
चीज़ ब्र्स्ट के साथ एसी की हवा
खाने का एक और ठिकाना
मिल जाएगा मुझे और मेरे दोस्तों को|

सोशल, एकनॉमिकल, पोलिटिकल
चर्चाओं के बीच कोल्ड्रींक गुड़की जाएगी,
ताकि पेट में पहले से मोजूद
ब्रेकफास्ट सेट्ल हो जाए,
और बनेगा प्लान किसी
ऐडवेंचर का कभी...

पर अभी...

इन सारी बातों से अंजान
इसे बनाने वाला एक मजदूर
वहीं फूटपाथ पर बैठकर
अपना अंगोछा बिछा,
खा रहा है अपनी रोटियाँ
प्याज़ के दो टुकड़े के साथ,
और उसकी बिटिया फाँक रही है
सीमेंट की धूल|

ये कैसे ग़रीब रह गया?
अनपढ़ ही होगा
अगर अख़बार पढ़ता
तो पता चलता कि
देश कितनी तरक्की कर गया है|

©Neeraj Pandey

Wednesday 1 October 2014

किताबें और घर

ये इतने सारे घर हैं?... ... या किताबें ?

ठीक ठीक कहना मुश्किल है. दोनों में बाहर कवर है और अंदर किरदार बसते हैं और हर दीवार किताब के पन्नों की तरह अपने ही अंदर छुपाए हुए है कई कहानियाँ. ड्रामा, ट्रॅजिडी, रोमॅन्स, कॉमेडी... इनकी तो शॉर्ट स्टोरी भी
लाइफ लॉंग चलती है. अलग अलग अध्यायों में| ये इतने सारे घर हैं या किताबें ठीक ठीक कहना मुश्किल है.


© Neeraj Pandey

बिछड़े साथी

वो चेहरे अब धुंधले से दिखते हैं मानों कोहरे में खड़ा हो कोई .
गौर से देखता हूँ पर ठीक से पहचान नहीं पाता| वक़्त ने उन यादों पर भी मानों धूल सी जमा दी हैं. ...अब चाहे अच्छे थे या बुरे बीती रात के सपने किसे याद रहते हैं.

© Neeraj Pandey

Monday 29 September 2014

सिगरेट सा वीकएंड...

इतने सारे दिनों के बीच
कुछ सिगरेट सा मिलता है ये वीकएंड,
होठों से लगा, थोड़ी देर कश लेकर
अपने सीने के अंदर उतार लेता हूँ|

घुलकर बहता है जब धुंवा इसका
मेरे जिस्म की नाड़ीयों में
मीटा देता है थकान पूरे हफ्ते की,
थोड़ा सुरूर आ जाता है,
थोड़ा सुकून आ जाता है|

कई बार आधी पी कर बचा लेता हूँ
इसका दूसरा हिस्सा,
कि, कभी तलब के वक़्त काम आएगी|

कई बार कम पड़ जाती है
ये दो दिनों की सिगरेट भी,
शायद अब इसकी लत पड़ती जा रही है,
ये अब आदत बनती जा रही है|

कई बार ना चाहते हुए भी
बूझा देना पड़ता है, उसे गरदन से मरोड़ कर
पास की रखी ऐश ट्रे में,
कि मंडे का बुलावा आ गया
अब सब छोड़कर, काम पर लगना होगा
अगली सिगरेट के इंतज़ार में|

सिगरेट सा, बिल्कुल सिगरेट सा
मिलता है ये वीकेंड|

© Neeraj Pandey

Tuesday 23 September 2014

एहसासों की पतंग.

बहोत देर से पड़ी थी कोने में ये चरखड़ी,
उठा कर बार, बार रख देता था.
अभी नहीं, अभी नहीं...

पतंग जो फट गई थी उड़ते उड़ते
रख दिया था उसे कोने में सहेज कर,
कुछ काग़ज़ों से चिपकाकर
कि कोई साथी आए,
कन्नी बाँधे और छत की दूसरी छोर तक ले जाकर
छोड़ दे हवा में इसे.

पर बेसबर सा मैं भी,
कहाँ चैन से बैठता
उड़ा दी अपनी पतंग,
तुम्हें दूर से ही देखकर.
खुली हवा में साँस लेने की कोशिश कर रही है अब ये,

अब थोड़ी ढील मैं छोड़ रहा हूँ.
थोड़ी हवा तुम उछालो,
कि एहसासों की इस पतंग को
नई उड़ान मुनासिब हो.

©Neeraj Pandey

Tuesday 2 September 2014

बांझ सोच

कुछ स्वमैथुन के मारे बेचारों को लगता है,
कि सूरज उनके लिंग के चक्कर काटता है,
क्योंकि वो किसी एक विशेष योनि की पैदाइश हैं.
ईश्वर से सीधा नाता है इनका,
और स्वर्ग में सीटें आरक्षित हैं इनकी.
जिस ईश्वर को इन्होनें कभी जाना ही नहीं
और ना ही जानने की कोशिश की
बस सच से आँखें मुन्दे हुए
अपनी ही दुनिया मे खुश हैं साले.

बांझ ज़मीन से दिखते है और उतने ही अनुपयोगी भी,
कि इनपर कोई नया ख़याल नहीं पनप सकता.
बस हर बात पर तान कर बैठ जाते हैं, उतावले,
अपने लिंग का आकार बताने को
जिसमें खुद इनका कोई योगदान नहीं.

ये कुछ सदियों पहले हुई
किसी दुर्घटना का परिणाम हैं,
पर हँसी आती है मुझको
इनको खुद पर इतना क्यों अभिमान है?

© Neeraj Pandey

Wednesday 20 August 2014

अधूरी नज़्म...

वो आयीं और लौट कर चली गयीं
पर मैं ही उस वक़्त कहीं और था.
अभी भी कहीं हैं मेरे अंदर ही
कुछ नज़मेँ जो अपना आकार नहीं ले पाईं हैं.

जब भी थोड़ा इतमीनान से बैठता हूँ

हिचक़ियों से उनके होने का एहसास होता है
जैसे मेरे अंदर ही कहीं पलने लगी हैं ये
पर ढंग से बाहर नहीं आतीं.

जी में आता है बस मार ही दूँ,

परेशान जो इतना करती हैं
पर अपने गर्भ के बच्चे का कत्ल भी करूँ तो कैसे?
सोचता हूँ किसी दिन फुरसत के कुछ पल निकाल
बैठ कर दो एहसासों के घूँट लगाऊं
और एक मुस्त उतार दूँ पन्ने पर.
पूरी रात उधेड़ दूँ इनके लिए
और देखूँ ज़िंदा करके इन्हें
की इनकी शक्ल कैसी है

© Neeraj Pandey

Sunday 13 July 2014

क्योंकि वो गांधारी नहीं

वो दोनों अक्सर दिख जाते हैं
एक दूसरे का बोझ उठाते,
सड़कों पर भटकते
हमसे अपने हिस्से का कुछ माँगते.

वक़्त ने कमर झुका दी है इनकी
खुद अपना भार भी नहीं उठा पाते अब.

इनके कपड़े और हालात हरदिन एक से होते हैं

वो बूढ़ा तो ठीक से बोल भी नहीं पता
आँखो मे भी मोतियाबिंद लगता है उसके,
पर बुढ़िया उसके साथ ही रहती है,
उसकी आँख बन कर आगे चलती है.

और मुझे पता है वो उसका साथ नहीं छोड़ेगी
और ना ही अपनी आँखो पर पट्टी ओढेगी
क्योंकि वो गांधारी नहीं
बस एक मामूली सी औरत है,
हर रोज़ पति की आँख बन जाती है
और हर रोज़ गांधारी को आईना दिखलाती है |

© Neeraj Pandey

Sunday 22 June 2014

मेरे ऑफीस का एक वॉशरूम

पीछले कुछ दिनों से मेरे ऑफीस के एक वॉशरूम का दरवाज़ा अजीब हरकते करता है. एक बार खोल दो तो लगभग अगले एक मिनट तक खुला ही रहता है. शायद अपनी कर्मठता की निशानी पेश करते हुए कुछ और लोगो के अंदर आने की उम्मीद में खुला रहता होगा. और जब उसे लगता है उसका इंतज़ार बेकार हुआ और उसके साथ धोखा हुआ है वो चिल्लाता हुआ ज़ोर से गुस्से में बंद होता है.

पर बात यहीं ख़तम नही होती, मुझे तो कुछ और भी शक़ है, सिर्फ़ दरवाज़े पर नहीं पूरे वॉशरूम पर. बात ऐसी है की वॉशरूम के अंदर का माहौल काफ़ी गरम रहता है, इसके परिवार के सदस्य एक दूसरे से बात नहीं करते. बड़ा ही मान मुटाव है सबका आपस में.

कॉमोड ने तो अपना एरिया ही अलग बना रखा है. वो एक फ्लश और एक टाय्लेट पेपर होल्डर के साथ अपना घर बसा कर खुश है. यहाँ तक की उसने अपने एरिया के बाहर दरवाज़ा भी लगा लिया है,. बाहर बचे दो युरिनल, एक वॉश वॉशिन, एक टिश्यू पेपर होल्डर और कोने मे पड़ा हुआ कूड़ेदान. अछूत बेचारा.

युरिनल्स के बीच में मुझे कुछ प्रॉपर्टी का मसला लगता है बोलचाल ऐसी बंद है की अपने बीच दीवारें खड़ी कर रखी हैं, अंबुजा सेमेंट वाली. और वॉश वॉशिन को साइड में अकेला पड़ा रहता है दीवार के कोने में. दूसरी तरफ़ टिश्यू पेपर होल्डर भाई साब सामने की दीवार पर लटके रहते है, ये तो वैसे भले आदमी है, सारे टिश्यू पेपर्स को अपने शरीर मे जगह दी है. पर इनके कई टिश्यू पेपर्स को बड़ा गुरूर है, जैसे किसी बड़े साइल्ब्रिटी को उसके होने का गूरर हो ना हो पर उसके जानने वालों को गूरूर होता है की वो उस सिलिब्रिटी को जानते है. यही हाल है टिश्यू पेपर होल्डर और टिश्यू पेपर्स का. कूड़ेदान में जाना ही नहीं चाहते, फुदाक कर कूड़ेदान से बाहर फर्श पर पड़े रहते है. उन्हे शर्म तो ऐसी आती है जैसे अँगरेज़ी मीडियम से पढ़े हुए लौन्डो को सरकारी स्कूल जाना पड़ रहा हो.

फ्लश को चलाओ तो ऐसे गुराता है जैसे उसको नींद से उठा कर किसी ने उधार माँग लिया हो. और गुराएगा भी क्योंकि उसका काम ही ऐसा है, सारे किए कराए पर पानी फेरना. वो तो टाय्लेट पेपर्स के काम के बारे में सोच कर थोड़ा बेहतर महसूस कर लेता होगा नहीं तो किसी दिन फटकार बाहर ही आ जाए.

सारी बात यह है की अंदर का माहौल बहूत गरम रहता है, कोई किसी से बात नहीं करता, अब ऐसे माहौल को थोड़ा सामान्य करने के लिए ही वॉशरूम दरवाजे से सेट्टिंग कर के उसे सामान्य करने की कोशिश में लगा रहता है, क्योंकी जीतने लोग एक साथ अंदर होने बाकलोली उतनी ज़्यादा होगी...और वॉशरूम अपने गृहकालेह से उतनी देर के लिए बचा रह पाएगा.

क्योंकि हम आर्टिस्ट्स के लिए वॉशरूम बिल्कुल ही अलग अनुभव है. वॉशरूम ऐसी जगह है जहाँ ना चाहते हुए भी हर व्यक्ति दिन में दो बार तो आ ही जाता है, और किसी स्पेशल केस मे चार से पाँच बार. और कभी भी खुद को अकेला नहीं पता.

कई बार तो हालत ऐसी होती है की मैं कई लोगों से बस इस वॉशरूम में ही मिल पता हूँ मानो सहकर्मी कम और सहसूसूकर्मी ज़्यादा हो. अगर मैं इसे मिनी चौपाल कहूँ तो ग़लत नहीं होगा.सारे 18+  वाले चुटकुले सभी अपना सांस्कृतिक कार्यक्र्म प्रस्तूत करते हुए यहीं फोड़ते हैं. यहाँ भाईचारे का माहौल ये है की कई लोगों ने तो एक दूसरे की टाइमिंग भी नोट कर रखी है.

हम सारे आर्टिस्ट की क्रियेटिविटी का फ्लो यहाँ भी नहीं थमता. लोग तो यहाँ भी निशानची बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते, चाहे किसी की सीट पर कोई जाकर whats up पूछे ना पूछे, सू सू करते हुए ज़रूर पूछता है. शायद यह भी कोई रस्म ही होगी, या फिर इससे फ्लो सही रहता होगा. और वैसे भी जब से न्यू ज़ोइनी को हर आर्टिस्ट से सीट पर ले जाकर मिलवाने का रिवाज़ ख़तम हुई है पहली पहली बार उस न्यू ज़ोइनी से मुलाकात यहीं होती है, टिश्यू पेपर निकलते हुए. रात में अगर किसी की नींद पूरी ना हुई हो तो वॉशरूम मे कॅमोड पर बैठ कर पाँच मिनिट की झपकी ही ले लेता है. कहने को कहे तो हमारा वॉशरूम मिलने मिलने और जान पहचान बढ़ने का केंद्र बन गया है, बिल्कुल उस इलाक़े की तरह जो शहर में तो बदनाम गलियों के नाम से जाना जाता है पर अंदर काफ़ी खुशनुमा माहौल रहता है. मेरा तो यहाँ तक मानना है की हर ऑफीस में सामूहिक सदभाव का केंद्र घोषित कर देना चाहिए.

अब देखने को यहाँ दो रंग है एक तो वॉशरूम के परिवार का आपसी  विवाद और दूसरी तरफ हमारा खुशनुमा माहौल.
मुझे लगता है हमारी बाकलोलियों से वॉशरूम को थोड़ा सुकून ज़रूर मिलता होगा. इसलिए जब भी दरवाज़ा खुले आप अंदर घुस जया करो भगवान कसम वॉशरूम हमें इतना कुछ देता है हमें भी उसका उधर समय रहते ही चुका देना चाहिए, और वो दोस्त क्या दोस्त जो एक दूसरे के काम ना आए.

...और रही बात लेडिज़ वॉशरूम की तो अगर कभी उधर जाने का मौका मिला तो उसके बारे मे भी बताउँगा.

Sunday 15 June 2014

वो सपने देखती थी




















छोटी सी उम्र से ही सपने देखने की आदत थी
चाँद का एक हिस्सा रख लिया था उसने
बाँध कर अपनी चोटी से.
और यकीन था उसे की उसके दाग भी साफ कर देगी वो.

कुछ दिनों बाद खबर आई कोई ब्याह कर ले गया उसे,
और आज उसकी घूँघट में उसके सपने सारे कैदी हो गये हैं.
बाहर ही नहीं निकलते, शायद किसी बोझ तले दबे होंगे.                     

हाँ वो चाँद अमूमन उसकी घूँघट से पीघल कर बहता दिखता है
उसकी शक्ल पर मुझे.
मैं कहता हूँ रोक लो इसे, इसे यूं जाने ना दो
ये तुम्हारी पुरानी पहचान हैं, ये तुम्हारा ही हिस्सा है.

वो कहती है, अब मुमकिन नहीं,
अब बहूत दूर आ चुकी हूँ.
अब बहूत देर हो चुकी है.
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कुछ शब्द समझने को -
चाँद: कुछ बड़ा करने की चाहत
चोटी से बांधना: अपने साथ ही रखना
दाग: लोगों का उसके सपनों पर शक़


Friday 13 June 2014

क्या वो तुम्हारी साइकल थी?




कोने में पड़ी उस साइकल को देखा,
देखा तो मुझे भी देखने लगी वो.
पूछा तो कहा-
तुम जैसा ही कोई लाया था मुझे
अपने घर में जगह दी थी.
फिरता था चप्पा चप्पा
मेरी पीठ पर बैठ कर कभी.

पर अब कोई मेरे पास नहीं आता
बस गुज़र जाते है सब अनदेखा कर के.
मुझमे अब किसी की दिलचस्पी नहीं
देखो किसी को मेरी परवाह नहीं.

घर के बेकार करार दिए हुए बुज़ुर्गों की तरह
मेरे हिस्से में भी बस एक कोना ही आया है.
और यहाँ बैठे बाकी के दिन गिनने हैं मुझे,
की जब तक कोई कबाड़ी मेरा मोल नहीं लगाता.

थकान झाँक रही थी उसकी आँखो से,
पाँव भी फर्श मे धसें जा रहे थे.
किसी ने उसकी गर्दन में जंजीरे डाल कर
जीने से बाँध रखा था उसे.

इस साइकल को उसके हाल पर छोड़ कर
कोई बड़ा हो गया था.
साइकल वहीं रुक गई थी,
ज़िंदगी चली जा रही थी.


Sunday 8 June 2014

ये बारिश वो बारिश नहीं

ये बारिश वो बारिश नहीं जो बचपन में मिलने आती थी..
कश्ती चलाकर काग़ज़ की हमें, सींदबाद बतलती थी.

किसी बात से गुस्सा है अब, बेमौके आती जाती है
कुछ शिकायत भी है तभी तो, बुढ़िया सी गुर्राति है.

बारिश चिंघाड़ती है अब..इसके सुर बदल गये हैं.
मुझे शक है किसी ने तो इसके कान भरे हैं.

दीवारों से उतरती है जैसे कई साँप गुज़रते हैं
गावों मे चलती है तो घर के घर उजड़ते हैं.

लगता है बदला लेने की ताक में रहती है ये
कई सड़कों पर देखा है मौत सी बहती है ये.

और पाने की और पाने की चाहत का है ये अंजाम
सारी प्रकृति कर दी हमने अपनी इस हवस के नाम.

बचपन की फुहारों वाली बारिश अब भी याद आती हैं
मैं कच्चे मकान में रहता हूँ और ये बारिश मुझे डराती है.

Thursday 29 May 2014

तस्वीर हमारी

उसने कहा एक फोटो ले लूँ?
फिर मैनें भी कई पोज़ दिए.

कभी बाहें खोलकर आसमान में,
गगन को अपना मित्र बनाया.
कभी चौड़ी सी स्माइल देकर,
खुश हूँ कितना ये बतलाया.

हवा में खुद को उछाला जैसे,
बंधन अब कोई भी नहीं.
घूरा जग को ऐसे जैसे,
मुझसा विजेता और नहीं.

पर पल दो पल का अभिनय था वो,
खुद अपनी प्रस्तुति का.
सच तो छिपा है गहरा अंदर
अनुभव की अनुभूति का.

जाते ही वहाँ से उसके,
बाहें फिर से सिमट गईं.
गगन भी अब तो मित्र कहाँ था,
मुस्कान भी थोड़ी चिटक गई.

विजय भी दिखती कहीं नहीं अब,
बेड़ियाँ जकड़ी पाता हूँ.
तय करना भी मुश्किल अब ये
वो मैं था, या ये मैं हूँ?

तस्वीर हमारी हमसे अलग है,
हम ऐसी दुनिया में जीते हैं.
मुस्कान दिखाए फिरते सबको,
पर खुद में ही विष पीते हैं.

Thursday 22 May 2014

क्या खोया,क्या पाया.

अन्ना हज़ारे के आंदोलन के वक़्त से एक बेहतर हिन्दुस्तान का सपना सबकी आँखो में पल रहा था. ऐसी ही किसी मूहीम और आंदोलन का सपना लेकर मैं भी बड़ा हुआ था, वो आज मेरे सामने था.  वैसे भी आज़ादी के बाद से कई पीढ़ियों ने इसका इंतज़ार किया था.तो मैं भी जूड गया. इंडिया गेट से लेकर राम लीला मैदान और जंतर मंतर से लेकर तिहाड़ तक की सडकें पैदल ही नापीं थी हम दिल्ली वालों और बाहर से आए लाखों लोगों ने. हर  आँख में एक बेहतर हिन्दुस्तान का सपना पलने लगा था. पर संसद के अंदर बैठे हमारे राजनेता "we the people" की जगह "who the people"  कहने लगे थे. कहते थे चुनाव लड़ लो अंदर आ जाओ और बना लो क़ानून, नहीं तो ये जैसा है वैसा ही रहेगा.

जनता ने चुनौती स्वीकार की "आम आदमी पार्टी" का गठन हुआ. लोग नौकरियाँ छोड़ छोड़ कर इस पार्टी से जुड़ने लगे,लोगों ने अपने घर का हिस्सा "आप" के ऑफीस के लिए दे दिया. क्या बूढ़े , क्या महिलाएँ और क्या जवान सब के सब इस सिस्टम से दो दो हाथ करने को तैयार थे. दिसेंबर २०१३ मे दिल्ली में चुनाव हुए आम आदमी पार्टी की सरकार भी बनी ,और पूरे देश में लोगों ने इस पार्टी की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देखना शुरू कर दिया. पर सरकार ज़्यादा चली नहीं 49 दिनों के बाद सरकार गिर गई. लोगों के बीच अरविंद केजरीवाल की भगोड़ा वाली छवि बनाई गई. "आप" ने फिर लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी की. देश भर में जगह जगह "आप" के ऑफीस खुल गये. आम आदमी पार्टी ने लोकसभा की लगभग ४३० सीटो पर चुनाव लड़ा और हार गई. नतीज़े सबको पता ही हैं.

पर लोकसभा चुनाव के बाद कुछ दिनों से हवा का रुख़ भी बदला सा है, सोशियल मीडीया पर भी और लोगों के जेहन मे भी. जो लोग आम आदमी पार्टी को कभी सपोर्ट करते थे आज अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बोलने लगे हैं, ड्रामा कंपनी करार दे दिया है.एक भी मौका नहीं छोड़ रहे भला बुरा कहने लगे और अचानक नरेन्द्रा मोदी के व्याक़तित्व की सराहना करने लगे हैं. यह उम्मीद अन्ना हज़ारे से  शुरू होकर अरविंद तक आई और अब मोदी उसके चेहरे हैं. कहीं का कहीं लोगो को लग रहा था की अरविंद ने उन्हें धोखा दिया या फिर उन्हें ऐसा सोचवाया गया. दूसरी तरफ केजरीवाल के समर्थक उनका बचाव कर रहे हैं और इस उम्मीद में है की हवा का रुख़ भी बदलेगा और फ़िज़ा का रंग भी. इस जमूरियत में सबका अपना सही है और सबके पास उसके सही की बही है. क्योंकि देश से मोहब्बत तो सभी को है, अब उस मोहब्बत के तरीके सबके अपने अपने हैं. उसपर बहस हो सकती है.

इस सारी कवायद को समझने के लिए इस चुनाव को समझना ज़रूरी है, इस चुनाव में सबने सपने बेचे, हर कोई यही कहता की मेरा सपना उसके सपने से बेहतर है. भाजपा के पास एक बड़ा मौल था कुछ पार्टियों के पास छोटी दुकानें थी और आम आदमी पार्टी ने तो पटरी पर ही दुकान लगा ली जिसमे मेरे भी पंद्रह सौ रुपये लगे थे. चमक धमक भाजपा की दुकान में ज़्यादा दिखी और उसका सेल्समैन भी हर दिन नये कपड़ों में आता था, जब देखो नया कुर्ता, जाने कितनी जोड़ियाँ थी. और अख़बारों रेडियो और टीवी पर आने वाले प्रचार ने भी भाजपा की अच्छी प्रस्तूती की. दूसरी तरफ नरेन्दर मोदी का विरोध तो किया गया पर उनका कोई बेहतर विकल्प नहीं दिया गया, और जो विकल्प थे भी वो भी गुजरात मॉडेल के सामने जनता को छोटे दिखे. पाकिस्तान और अमेरिका को इस चुनाव में एक दुश्मन की तरह रेखांकित कर यह बताया गया था की हमारे सबसे बड़े ख़तरे यही हैं, आम आदमी के मुद्दों मे रोटी कपड़ा और मकान के साथ पाकिस्तान, चीन और अमेरिका भी जूड गये. भाजपा का माल बिक गया. भाजपा जीत गई पूर्ण बहुमत से. देश को नरेंद्र मोदी जैसा एक कॉंग्रेस सरकार से बेहतर प्रधानमंत्री मिला. चुनाव के नतीज़े आते ही भाजपा के नेता न्यूज़ चैनल्स पर बैठ कर पाकिस्तान को धमकाने लगे. और जनता में टीवी को देखकर यह विश्वास जागना शुरू हो गया की ये सरकार मजबूत है. अब बस पाकिस्तान हमारे आगे घिघियाएगा. बहूत अच्छी बात है.

मैं किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं करूँगा, और ना ही इस चुनाव मे उपयोग हुए भिन्न भिन्न संसाधानो की, क्योंकि इस पर बहस चलती रहेगी, कोई ना कोई कहीं ना कहीं इस पर बहस कर ही रहा होगा. और वैसे भी इस पूरे वाकये में अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी या कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है भ्रष्तचार मुक्त भारत और आम आदमी की हालत में सुधार. इसलिए व्यक्ति विशेष की बात नहीं होगी. भाजपा जीत गई है, मोदी सरकार आ गई है और लोग अच्छे दिन का इंतज़ार कर रहे हैं. लोकतंत्र उम्मीद के साथ बेहतर विकल्प तलाशने से ही मजबूत होता है.

पर इस सारे क्र्म में ये जानना ज़रूरी है की इसमे भारत की जनता ने क्या खोया क्या पाया.

हमारे प्रधान मंत्री तो पहले से सशक्त हुए हैं पर ये भी उसी तंत्र का हिस्सा हैं,जिसमे जे. पी. आंदोलन से निकला हुआ लालू यादव चारा घोटाले का लालू यादव बन जाता है. ऐसे बहूत से उदाहरण  इतिहास के पन्नों मे दर्जहैं.

पर आज की संसद को देख कर दूःख इस बात का होता है की लोगों के बीच में पूरी बहस ही ग़लत फैलाई गई. चुनाव होते हैं सांसद चुनने के लिए ना की प्रधान मंत्री, लोगों ने प्रधानमंत्री चुनने के लिए भारी संख्या में अपराधी संसद के अंदर भेज दिए. जो लोगों के हित में कभी काम नहीं कर सकते.

कोई भी राजनीतिक पार्टी अभी भी RTI के दायरे मे नहीं आना चाहती.

लोगों को केजरीवाल के दिल्ली छोड़ने का गुस्सा ऐसा था की उन्होनें ईमानदार उम्म्मिदवार को वोट ना देकर अपराधी और दंगाई को वोट दिया.

जनता यह पता लगाने मे भी विफल रही की राजनीतिक पार्टियो के पास इतना पैसा कहाँ से कैसे और सबसे महत्वपूर्ण क्यों आ रहा है.

जो नेता गूरूर मे यह कहते थे की अंदर आकर अपना क़ानून बना लो उनका विश्वास और गहरा हुआ है की जनता को भटकना बहूत आसान है, भीड़ बकरी की तरह जहाँ चारा दिखाओ वहीं चली जाएगी. उनकी नियत अभी भी शासक की है ना की सेवक की.

अच्छा प्रधानमंत्री चुनने की दौड़ में हमने उन पढ़े लिखे लोगों, समाज सेवियो की अपेक्षा लोगों मे अपराधी चुन लिया है. ये तो शहद के साथ मधुमक्खीयों जो घर लाने जैसी बात है.

एक पूरी तरह से नई राजनीतिक बहस जिनका आधार मुद्दे थे, को फिर से एक व्यक्ति के इर्द गिर्द बुन दिया गया और हम लोगों ने एक नई चीज़ को भी पुराने चश्मे से देखते रहे. ये हमारी मानसिकता की हार है,

इस चुनाव के ठीक बाद दो लोगो को बोनस भी मिला है एक तो अरविंद केजरीवाल जेल की खिचड़ी खा रहे हैं और दूसरी तरफ पाकिस्तान के प्रधान मंत्री शपथ की बिरियानी, जो सच में दागी लोग हैं वो संसद में कुर्सियाँ गरम कर रहे हैं. अच्छे दिनों का आगाज़ तो मुझे अच्छा नहीं दिखता.

यह सपना इस सिस्टम को बदलने के लिए था, यह लड़ाई जनता का हक़ उस तक  पहुँचाने के लिए थी. ना की किसी पद पर पहुँचने की

मेरे जैसे लाखों युवा और बुजुर्गों की आँखों मे वो सपना तोड़ा धुंधला हुआ है, इस लोक सभा चुनाव में. पर जनता की उम्मीदें नरेंद्र मोदी से बहूत हैं, जनता  लगभग किसी चमत्कार की उम्मीद में है. आशा करता हूँ मोदी जी जिस पार्टी के सहारे प्रधानमंत्री बने हैं उसके नेताओं की उम्मीदों से उपर उठ जनता की उम्मीदों पर काम करेंगे. जनता को भी मोदी जी के किए हुए वादों का ट्रैक रेकॉर्ड तो रखना ही चाहिए. क्योंकि वक़्त है नरेन्दर मोदी को डेलिवर करने का और अरविंद केजरीवाल को अपनी ग़लतियो से सीखने का. जो भी हो इस बेहतर विकल्प बनाने की दौड़ में जीत जनता की ही होनी चाहिए. और चाहे  बहाना कोई भी हो लोकतंत्र के मुद्दे जनता के बीच बनें रहने चाहिए. क्योकि वैसे भी इस चुनाव में हार और जीत उन संस्थाओं की हुई है जिन्होने चुनाव मे अपना पैसा लगाया है. इंतजार है उस दिन का जब चुनाव जनता  के लिए होगा.

Sunday 18 May 2014

दर्शक.

टी शर्ट और अपनी जीन्स को उतार कर मैंने नीली धारीदार शर्ट और काली पैंट, पहन ली थी. शर्ट भी बिल्कुल इस्त्री की हुई क्रीज़ वाली और काली पैंट तो जैसे उस शर्ट के रौब को और बढ़ा रही थी. बालों को सलीके से कंघी किया और खड़े होकर खुद को शीशे में निहार रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी बड़े इंटरव्यू के लिए तैयार हो रहा हूँ. तभी पास से गुज़रते हुए सलीम ने टेबल पर रखी हुई मेरी कैप उठाकर मेरे सर पर डाल दी, और यह बोलते मुझे मेरी हक़ीक़त की दुनिया में वापस ले आया कि: क्या हीरो? आज फिर से लेट, जल्दी तैयार हो जा बहूत काम है.

दरअसल मैं अभी अभी अपने रेस्टोरेंट पहुँचा, कुछ दस मिनट की देरी से, धौला कुआँ पर ट्रॅफिक भी तो बहूत था. खैर यह यूनिफॉर्म मुझे एक ज़िम्मेदारी का एहसास करता रहता है, मुझे लगता है मैं इस दुनिया में कुछ छोटा ही सही पर कुछ कर तो रहा हूँ, मेरी भी कुछ औकात तो है. पर मेरा ये एहसास तब टूटने लगता है जब मुझे महीने के आख़िर में पगार मिलती है, और मेरी औकात वहीं फर्श पर लुढ़कती नज़र आती है. अपनी सॅलरी तो नहीं बताउँगा, बस इतना कहूँगा की सॅलरी आने से पहले ही दोस्तों के उधार की लिस्ट मेरे दिमाग़ पर चिपकी रहती है और आधी से ज़्यादा सॅलरी पुराने उधार की भेंट चढ़ जाती है.

वैसे ये काम मैं पूरी ज़िंदगी नहीं करनेवाला, सोचता हूँ थोड़े दिनों काम करने के बाद किसी सरकारी नौकरी के लिए ट्राई करूँगा, उसकी तैयारी भी साथ के साथ चल रही है. पर पूरे दिन घर में बैठ कर पढ़ा भी तो नहीं जाता. पापा के गुज़र जाने के बाद वैसे भी माँ पर बोझ ही तो बना बैठा हूँ मैं, पिछले कई सालों से. इसलिए पार्ट टाइम में ये नौकरी पकड़ ली, पर पैसों और ज़रूरतों के जाल में मैं ऐसा फँसा की ये पार्ट टाइम सरकता हुआ फुल टाइम कब बन बैठा मुझे भी पता नहीं. और अगर सच कहूँ तो इसका दूसरा पहलू ये भी है की किस बेटे को अच्छा लगेगा की उसकी माँ दूसरों के घरों मे जूठे बर्तन साफ करे.. कितना अजीब लगता है जब मेरे दोस्तों को यह पता चलता है की मेरी माँ पास वाली कॉलोनी की कोठियों मे बर्तन साफ़ करती है.

पापा बिजली विभाग में आस्थाई कर्मचारी थे, एक दिन पोल पर बिजली ठीक करते हुए बिजली के नंगे तारो से चिपक कर उनकी मौत हो गई थी, बिजली विभाग ने भी यह बोल कर पल्ला झाड़ लिया कि आस्थाई कर्मचारियों को कोई मुआवज़ा नहीं मिलता. वैसे तो मेरा परिवार सरकार की बनाई हुई ग़रीबी रेखा के उपर आता है, पर बड़ी मुश्किल से जोड़ तोड़ करने पर भी महीनें की बीस तारीख तक पैसे ख़तम हो जाते हैं. उसके बाद ज़िंदगी उधार की...

इसी से नीज़ात पाने के लिए मैंने भी काम करना शुरू किया , पर कुछ ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखता. मैं रोज़ एक कर्मठ कार्यकर्ता की तरह सुबह सुबह नौ बजे तक अपने रेस्टोरेंट आ जाता हूँ. लोगों का ताँता भी उसी वक़्त से शुरू हो जाता है. अलग अलग ज़रूरतो के लिए मुझे भी कई बार अलग अलग काम करना पड़ता है. सफाई से लेकर काउंटर देखने तक तो कभी ऑर्डर लेने से लेकर ऑर्डर की होम डेलिवरी करने तक. सुना है मल्टिटॅस्किंग करनेवालों की तरक्की के आसार अच्छे होते हैं.

काउंटर के इस तरफ और दूसरी तरह होने से ही दुनिया बिल्कुल अलग दिखती है. यहाँ मैं कई बार काउंटर के इस तरफ खड़ा होकर दूसरी तरफ की अजीबो ग़रीब दुनिया को एक दार्शनिक की तरह देखता रहता हूँ, कई बातें तो मेरे सर के उपर से जाती हैं, लगता है या तो दुनिया मेरी पीठ पीछे निकल रही है या फिर मैं ही उल्टा बैठा हुआ हूँ. ऐसा लगता है जैसे पर्दे पर कोई फिल्म चल रही हो. या फिर कई सारे अभिनेता अपने चरित्र  के विपरीत एक चरित्र  ओढ़ कर एक साथ रंगमंच पर कोई नाटक कर रहे हों. भिन्न भिन्न पात्रों की भिन्न भिन्न परिस्थितियाँ और उसमें उनका भिन्न भिन्न बर्ताव.

जैसे वो लड़का कल आया था, काउंटर के पास आने से थोड़ी देर पहले तक अपने दोस्तों के साथ तो हिन्दी में माँ बहन की गलियाँ निकल रहा था, और मेरे पास आते ही अँग्रेज़ी में बोलने लगा.शायद उसे ऐसा लगा हो की मुझे सिर्फ़ अँग्रेज़ी ही आती है, अरे भाई हिन्दुस्तान के ही लोग हैं, हमें हिन्दी भी आती है. और उसकी अँग्रेज़ी भी ऐसी जो बस उसी को समझ आ रही थी. बाद मे मैंने ही हिन्दी में बात करनी शुरू की उससे.

उपभोगतावाद ने एक ग्राहक की हैसियत को भगवान के रूप से उतारकर एक बाज़ार के रूप में तब्दील कर दिया है. और वो ग्राहक अपनी भाषा छोड़कर प्रॉडक्ट की भाषा बोलता है. कई बार तो ऐसे लोगों पर हँसी भी आती है पर हँस भी नहीं सकता. प्रोटोकाल का मामला जो है. यहाँ तो बस हमें "गुड मॉर्निंग सर" के साथ नमस्ते करना बताया गया है. या फिर अँगरेज़ी की चार पाँच लाइनों जो हमें रेस्तूरेंट के मेनू के साथ मिट्ठू की तरह रटवाई जाती हैं.

वैसे यहाँ तो लोगों का ताँता लगा ही रहता है. कभी कोई अपने परिवार को लेकर आता है, तो कभी पास वाले ऑफीस का स्टाफ, तो कभी कॉलेज के स्टूडेंट्स ट्रीट करने आते हैं तो कभी खूबसूरत लड़कियाँ का पूरा समूह.

बीते हफ्ते भी एक लड़की आई थी, मैं तो ऑर्डर लेना ही भूल गया था, उसे देख कर. सोचा मुझे रटाई गई लाइनों और एक ग्राहक और काउंटर बॉय के दायरे से उपर उठकर कुछ बातें की जाए, पर यह सोच कर चुप रह गया की एक काउंटर बॉय में किसको क्या दिलचस्पी होगी.

पर कोई फ़ायदा भी नहीं किसी में दिलचस्पी ले कर. अपने ही रेस्टोरेंट में मैंने ऐसे कपल्स भी देखे हैं की उनके साथ होने पर भी उनकी ज़ुबान से ज़्यादा तो काँटे, छुरी और चम्मच आवाज़ कर रहे होते हैं.

मेरा तो पता नहीं पर मेरे रेस्टोरेंट का नये पुराने रिश्तो को बनाने में भी बड़ा सहयोग है. कोई इसी रेस्टोरेंट में आकर अपनी गर्लफ्रेंड को माना रहा होता है तो कोई ऑफीस की मीटिंग कर रहा होता है, लड़के लड़की देखने दिखाने के कार्यक्र्म मंदिर से उठकर अब रेस्टोरेंट में होने लगे हैं.

पर कुछ निठल्ले लोग भी हैं जो यहाँ बस AC  की हवा खाने के लिए बैठते हैं, कभी ऑर्डर देते नहीं देखा उनको. घंटो लैपटॉप खोलकर कुछ कुछ करते रहते हैं. और मैनेजर भी उन लोगों को कुछ नहीं बोलता, शायद उनके सामने रखा वो लैपटॉप उनकी औकात  बनाता होगा. नहीं तो उस दिन उस बाहर बैठने वाले भिखारी को तो अंदर आने से भी मेरे मॅनेजर ने रोक लिया था, और जब वो बोला की उसके पास पैसे हैं और वो कुछ खाना चाहता है, फिर भी उसको ये बोल कर बाहर कर दिया कि - कोई बात नहीं,जो भी चहिए बता दो हम बाहर ही भेजवा देंगे, अंदर आने की कोई ज़रूरत नहीं है.

बेचारा भिखारी. उसके किस्मत में फ्री AC की हवा भी नहीं है, पर तब तक उसके हिस्से की हवा ये लैपटॉप वाला प्राणी तो ले ही रहा है,वो भी  बिना कुछ ऑर्डर किए हुए. शायद इस बार भीख माँग कर वो भिखारी सबसे पहली चीज़ लैपटॉप ही खरीदेगा जो क्मसकम उसके अंदर आने का एंट्री पास तो होगा...

कई बार मुझे यह देखकर भी जलन होती है की मेरी जितनी तनख़्वाह है लोग एक बार में उससे ज़्यादा का ऑर्डर कर जाते हैं. और दुःख इस बात का भी होता है कि जितना ऑर्डर किया है उसमे से एक बड़ा हिस्सा कूड़ेदान को भेंट चढ़ता है. शायद ये वही लोग होंगे जिनके घरों मे मेरी माँ बर्तन मांजती हैं. और कई बार उनकी पार्टियों का बचा खाना और मिठाई हमारे घर ले कर आती है.

वैसे शाम के पाँच बज रहे हैं मुझे थोड़ी भूख सी लग रही है. दोपहर का खाना तो हमें यहीं मिल जाता है,पर दुबारा लेना हो तो उसके पैसे लगते हैं. चलता हूँ पास वाले "गुप्ता फुड कॉर्नर" पर अपनी भूख मिटाने, जो पास वाले नुक्कड़ पर अपनी रेडी  लगाता है, नहीं तो अगर मैने अपने रेस्तूरेंट मे दो दो बार खाना शुरू कर दिया तो कहीं महँगा खाना पेट के साथ  साथ मेरा बजट भी ना खराब कर दे क्योंकि इतनी रईसी की अभी आदत नहीं है.